नई दिल्ली के करीब होने के बावजूद थी पुरानी दिल्ली दूर
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
यह 1939-1940 का दौर था। उस समय भारत ब्रिटिश हुकूमत के अधीन था, लेकिन राजधानी बन चुकी दिल्ली दो हिस्सों में बंटी हुई थी— एक नई दिल्ली, जहां सत्ता का केन्द्र था और दूसरी पुरानी दिल्ली, जो पुराने दिनों की सांस्कृतिक गवाही थी। लेकिन दिलचस्प बात तो ये है कि उस समय शिमला, दिल्ली से सैकड़ों किलोमीटर दूर होने के बावजूद, अफसरशाही की नजदीकी के चलते ‘नई दिल्ली का मोहल्ला’ कहलाता था। जबकि पुरानी दिल्ली इतनी ‘दूर’ मानी जाती थी मानो कोई अलग शहर हो।
इतिहास ही नहीं भूगोल भी बदला
इतिहा की मानें तो उस दौर में दिल्ली के दो चेहरे थे—एक ब्रिटिशों द्वारा निर्मित योजनाबद्ध, सफेद इमारतों से चमचमाती नई दिल्ली, दूसरी मुगल कालीन संकरी गलियों और बाजारों वाली पुरानी दिल्ली। लेकिन इन दोनों के बीच सबसे अधिक कमी यातायात के साधनों की थी। हालात ऐसे थे कि एक स्थान से दूसरे तक पहुंचना एक यात्रा जैसी प्रतीत होती थी।
और 1940 तक, यह फर्क न सिर्फ प्रशासनिक था, बल्कि भावनात्मक रूप से भी था। राजेंद्र लाल हांडा ने अपनी किताब ‘दिल्ली में दस वर्ष’ में अपने अनुभव साझा करते हुए लिखा है कि ‘कश्मीरी गेट से औरंगजेब रोड तक जाने के लिए मुझे कई दिन पहले मन में तैयारी करनी पड़ती थी।” बसें नहीं थीं, टैक्सी दुर्लभ और तांगे सिर्फ़ कुछ किलोमीटर तक जाने को तैयार।

दिल्ली की ग्रीष्मकालीन कालोनी थी शिमला
दरअसल, गर्मी के मौसम में अंग्रेज अफसरों का मुख्य ठिकाना शिमला ही होता था। केंद्रीय सचिवालय, होम डिपार्टमेंट, यहां तक कि प्रधानमंत्री (वायसरॉय) का दफ्तर तक शिमला स्थानांतरित हो जाता था। शिमला जाना अफसरों के लिए उन दिनों सामान्य बात थी जबकि पुरानी दिल्ली जाना मानों लंबी दूरी की दौड़।
राजेंद्र लाल हांडा अपनी किताब में लिखते हैं कि उनके एक जानने वाले सरकारी कर्मचारी 5 साल शिमला में नौकरी करने के बाद नई दिल्ली आए। नई दिल्ली में सरकारी आवास मिला, लेकिन एक साल के अंदर ही उन्हें किसी कारण सिविल लाइंस (पुरानी दिल्ली) में रहना पड़ा। इसी जगह से उन्हें रिटायर होना पड़ेगा, क्योंकि अब वे नई दिल्ली में मकान के हकदार नहीं। खुद उन्होंने स्वीकारा—”नई दिल्ली में रहकर शिमला जाना आसान था, लेकिन पुरानी दिल्ली आने के बाद तो जैसे सब कुछ छूट गया।”
नई और पुरानी दिल्ली के बीच की दीवार
अधिकारियों समेत रईसों के लिए नई दिल्ली जहां आधुनिकता का प्रतीक थी, वहीं पुरानी दिल्ली आने के पीछे मकसद केवल व्यापार, भीड़भाड़ और परंपरा का केंद्र रह गई थी। दिल्ली के तांगों के बारे में राजेंद्र लाल हांडा लिखते हैं कि वे इतने हल्के होते कि “बिना घोड़े के भी उड़ जाएं”।
दरअसल, नई और पुरानी दिल्ली के बीच की दूरी भौगोलिक से अधिक मानसिक थी। नई दिल्ली के बाशिंदे पुरानी दिल्ली नहीं जाना चाहते थे, और पुरानी दिल्ली के निवासियों के लिए नई दिल्ली एक अलग ही दुनिया थी। अफसरों के लिए शिमला नजदीक था, लेकिन पुरानी दिल्ली दूर।
आज हम दिल्ली मेट्रो, ई-रिक्शा और ऐप कैब के युग में रहते हैं लेकिन तब की दिल्ली में दूरी सिर्फ किलोमीटरों से नहीं, सोच से भी तय होती थी।
- Dharmendra death news: जानिए ‘ही-मैन’ के बारे में 5 अनसुनी बातें, जो बताती हैं क्यों थे वो ‘लीजेंड’
- 10वीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते ही खास ‘टॉप 10 क्लब’ में शामिल हुए नीतीश कुमार! जानिए बाकि नौ दिग्गजों के बारे में
- Realme GT 8 Pro Dream Edition Launch: भारत में एंट्री, 200MP कैमरा और F1 रेसिंग डिजाइन ने उड़ाए होश!
- How to Make Money on Facebook: हिंदी में पढ़िए A to Z Guide for Facebook Page Monetization
- 2026 में मालामाल करेंगे ये 9 AI टूल्स, 9 AI Tools That Will Make You Rich In 2026






