विदेशी कहानी को देशी अंदाज में परोसा गया

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।  

36 Days Web Series Review: इन दिनों ओटीटी में कॉन्टेंट की भरमार हो गई है। भले ही कहानी या सीरीज कुछ भी है। वेब सीरीज को ओटीटी में लाने का सीधा सा फंडा है अगर कोई कहानी ना सूझे तो किसी विदेशी शो को उठाओ और देसी स्टाइल में जैसे-तैसे परोस दो। ऐसे ही शोज का नाम है ’36 डेज’। ‘छोरी’ जैसी मजबूत मैसेज वाली डार्क थ्रिलर बनाने वाले विशाल फूरिया निर्देशित यह सीरीज ब्रिटिश शो ’35 डिर्वनॉड’ का अडाप्टेशन है। यह मूल शो जहां काफी हिट रहा था, वहीं इसका देसी वर्जन खासा सुस्त और उबाऊ है।

’36 डेज’ की कहानी

गोवा के बैकड्रॉप से कहानी शुरू होती है एक खूबसूरत एयर होस्टेस के मर्डर से और पहुंचती है 36 दिन पहले, जब यह लड़की फराह जैदी (नेहा शर्मा) गोवा के एक पॉश विला में रहने आई थी। यहां फराह को कुछ पड़ोसी मिलते हैं। इनमें ढीले करैक्टर वाला मैनेजर टोनी (चंदन रॉय सान्याल) है जो घर में हसीन-जवान बीवी सिया खुशी भारद्वाज के होते हुए भी दूसरी औरतों पर आंखें गड़ाए रखता है। वह सेक्स चेंज सर्जरी के प्रॉसेस के गुजर रही सिया की दोस्त तरुण उर्फ तारा (सुशांत दिवगिकर) से पंगे लेता रहता है।

एक पड़ोसी जो अभी नई-नई अमीर बनी है। जिनका नाम शोशेबाज ललिता अमृता खानविलकर और उसका दब्बू पति विनोद (शारिब हाशमी) रहता है। वहीं, पास के एक विला में रहते हैं बुड्ढें कपल डेंजी (केनी देसाई) और बिनायफर उर्फ बिन्नी (शेरनाज पटेल)। बेकिंग में अपने अकेलेपन का इलाज ढूंढने वाली बिन्नी बेटे रियाद के तलाक और बेटी को खोने के गम से जूझ रही है। एक परिवार चर्चित राइटर डॉक्टर ऋषि (पूरब कोहली) और उनकी पत्नी राधिका (श्रुति सेठ) का है। दुनिया के लिए परफेक्ट इस कपल की शादीशुदा जिंदगी में भी उथल पुथल चलती रहती है।

सीरीज में दिखाया गया है कि पड़ोस में फराह के आने के बाद इन सभी लोगों की जिंदगी में क्या बदलाव आते हैं? उसका खून कौन क्यों करता है?

फिल्म में एक्टिंग

एक्टिंग की बात करें तो चंदन रॉय सान्याल नेगेटिव रोल में यहां भी जंचते हैं। अमृता, सुशांत और शेरनाज ने अपनी भूमिका संग न्याय किया है, तो पूरब, श्रुति सेठ, शारिब हाशमी ठीकठाक हैं। हालांकि, उनके किरदार को ज्यादा विस्तार नहीं मिला है। जबकि, मुख्य आकर्षण होने के बावजूद नेहा के पास ग्लैमरस दिखने के अलावा ज्यादा कुछ नहीं था।

कैसा है सीरीज में निर्देशन और स्क्रीनप्ले

स्‍क्रीनप्‍ले इतना सुस्त है कि फास्ट फॉरवर्ड में देखने का मन करता है। निर्देशन में भी धार नहीं है। शुरू के दो-तीन एपिसोड में कोई रोमांच महसूस नहीं होता। सीन में दोहराव भी बहुत है। कहानी में थोड़ी रुचि चौथे एपिसोड से जगती है, लेकिन कोई भी खुलासा चौंकाता नहीं है। बाकी, सिनेमेटोग्राफी, सेटिंग, बैकग्राउंड स्कोर जैसे तकनीकी पक्ष माहौल को रहस्यमयी बनाने में अपना योगदान देते हैं, पर कमजोर कहानी के चलते कोई रोमांच पैदा नहीं कर पाते।

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