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भविष्य की चुनौतियां: इंडिया गठबंधन के लिए आगे का रास्ता

संजीव कुमार मिश्र

उपराष्ट्रपति चुनाव परिणाम: 2025 के उपराष्ट्रपति चुनाव में, राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के उम्मीदवार सी.पी. राधाकृष्णन की जीत, संख्या बल के आधार पर अपेक्षित थी। हालांकि, परिणामों के गहन विश्लेषण से पता चलता है कि यह चुनाव नवगठित विपक्षी गठबंधन, जिसे ‘इंडिया’ ब्लॉक के नाम से जाना जाता है, के लिए एक गंभीर रणनीतिक और राजनीतिक झटका साबित हुआ है। चुनावी आंकड़ों में विपक्षी उम्मीदवार बी. सुदर्शन रेड्डी को मिले वोटों में 15 वोटों की कमी, क्रॉस-वोटिंग के आरोपों, और प्रमुख क्षेत्रीय दलों की मतदान से दूरी ने विपक्षी खेमे की आंतरिक कमजोरियों को उजागर कर दिया। यह चुनाव सिर्फ एक हार-जीत का मुकाबला नहीं था, बल्कि विपक्ष की घोषित एकजुटता, अनुशासन और रणनीतिक दक्षता की परीक्षा थी, जिसमें यह स्पष्ट रूप से विफल रहा। यह घटनाक्रम 2029 के लोकसभा चुनावों के संदर्भ में विपक्ष की राह में खड़ी होने वाली प्रमुख चुनौतियों का एक पूर्वावलोकन प्रस्तुत करता है, विशेषकर उनकी आंतरिक कमजोरियों और बाहरी दलों को साथ लाने में उनकी असमर्थता को उजागर करते हुए।

चुनावी पृष्ठभूमि और विपक्षी रणनीति का उद्भव

उपराष्ट्रपति चुनाव 2025 एक अप्रत्याशित राजनीतिक घटनाक्रम के बाद हुआ। देश के पूर्व उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने जुलाई 2025 में अपने पद से अचानक इस्तीफा दे दिया था, जिसके कारण निर्धारित समय से पहले ही चुनाव कराना आवश्यक हो गया । इस चुनावी प्रक्रिया में दो प्रमुख उम्मीदवार मैदान में थे: सत्तारूढ़ एनडीए की ओर से अनुभवी नेता सी.पी. राधाकृष्णन और विपक्षी दलों के संयुक्त उम्मीदवार के रूप में पूर्व सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश बी. सुदर्शन रेड्डी।

विपक्ष के लिए, यह चुनाव केवल एक संवैधानिक पद के लिए एक औपचारिक मुकाबला नहीं था। विपक्षी खेमे ने इसे अपनी नवजात एकता और राजनीतिक मजबूती को प्रदर्शित करने के एक महत्वपूर्ण मंच के रूप में देखा। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इस चुनाव को महज एक पद के लिए नहीं, बल्कि विचारधारा और सैद्धांतिक संघर्ष की लड़ाई बताया । विपक्षी नेताओं ने सार्वजनिक रूप से इस चुनाव को अपनी एकजुटता, अनुशासन और वैचारिक प्रतिबद्धता का प्रमाण देने का अवसर बताया । उनका उद्देश्य एक मजबूत संदेश देना था कि वे संख्या बल में पीछे होने के बावजूद एक साथ खड़े हैं और सत्ता पक्ष को कड़ी चुनौती देने के लिए तैयार हैं। इसी रणनीति के तहत, विपक्षी उम्मीदवार बी. सुदर्शन रेड्डी ने सांसदों से “अंतरात्मा की आवाज” पर वोट करने की अपील की, जिससे एनडीए के भीतर से भी समर्थन प्राप्त होने की संभावना तलाशी जा सके।

संख्यात्मक विश्लेषण: दावे, वास्तविकता और छिपी हुई दरारें

उपराष्ट्रपति चुनाव का परिणाम, जो कि पहले से ही संख्यात्मक रूप से एनडीए के पक्ष में तय माना जा रहा था, ने विपक्षी एकता की वास्तविकता पर सवाल खड़े कर दिए।

मतदान का विस्तृत लेखा-जोखा:

  • कुल मतदाताओं की संख्या: संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) में कुल 788 सांसद हैं। सात सीटें रिक्त होने के कारण, प्रभावी मतदाता संख्या 781 थी ।
  • कुल मतदान: 767 सांसदों ने मतदान किया, जो 98.2 प्रतिशत मतदान को दर्शाता है।
  • अवैध वोटों की संख्या: 15 वोट अवैध घोषित किए गए । यह एक महत्वपूर्ण आंकड़ा है, जिस पर बाद में गहन राजनीतिक चर्चा हुई।
  • वैध वोटों की संख्या: 752।
  • एनडीए उम्मीदवार सी.पी. राधाकृष्णन को मिले वोट: 452
  • विपक्षी उम्मीदवार बी. सुदर्शन रेड्डी को मिले वोट: 300

विपक्षी गणित का मूल्यांकन:

चुनाव परिणाम घोषित होने के बाद, विपक्षी खेमे में एक गंभीर विरोधाभास सामने आया। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने दावा किया था कि ‘इंडिया’ गठबंधन के सभी 315 सांसद एकजुट होकर मतदान में शामिल हुए। हालांकि, जब अंतिम परिणाम सामने आए, तो विपक्षी उम्मीदवार को केवल 300 वोट ही मिले। यह 15 वोटों की कमी विपक्षी एकता के दावों पर एक बड़ा प्रश्नचिह्न लगाती है। यह संख्यात्मक अंतर महज एक आंकड़ा नहीं है, बल्कि एक गहरी राजनीतिक और मनोवैज्ञानिक विफलता का प्रतीक है।

यह असंतुलन तब और भी महत्वपूर्ण हो जाता है जब हम सत्ता पक्ष के प्रदर्शन को देखते हैं। एनडीए के पास अपने 427 सांसद और वाईएसआर कांग्रेस के 11 सांसदों का समर्थन मिलाकर कुल 438 वोटों का अपेक्षित आंकड़ा था। लेकिन, सी.पी. राधाकृष्णन को 452 वोट मिले, जिसका मतलब है कि उन्हें 14 अतिरिक्त वोट प्राप्त हुए।

यह दर्शाता है कि एनडीए ने न केवल अपने आधार को मजबूत रखा, बल्कि विपक्ष के खेमे में सेंध लगाने में भी सफल रहा। वहीं, विपक्ष अपने ही घोषित वोटों को सुरक्षित रखने में विफल रहा। यह स्थिति विपक्ष के शुरुआती दावे की विश्वसनीयता पर संदेह पैदा करती है और उनकी आंतरिक एकजुटता की कमी को स्पष्ट रूप से दर्शाती है।

क्रॉस-वोटिंग और अनुपस्थिति: फूट के स्पष्ट संकेत

उपराष्ट्रपति चुनाव के परिणाम ने ‘इंडिया’ गठबंधन के भीतर की कमजोरियों को कई तरीकों से उजागर किया।

क्रॉस-वोटिंग के आरोप

विपक्षी उम्मीदवार को मिले वोटों में 15 की कमी ने तुरंत आंतरिक क्रॉस-वोटिंग के आरोपों को जन्म दिया। राजनीतिक गलियारों में इस बात की चर्चा है कि विपक्षी खेमे के सदस्यों ने अपने गठबंधन उम्मीदवार के बजाय एनडीए के उम्मीदवार को वोट दिया। यह माना जाता है कि आम आदमी पार्टी (आप) और शिवसेना (यूबीटी) जैसे ‘इंडिया’ ब्लॉक के प्रमुख घटकों के सांसदों ने क्रॉस-वोटिंग की। इन पार्टियों का नाम आना गठबंधन के लिए एक गंभीर मुद्दा है, क्योंकि यह इसके सबसे महत्वपूर्ण सदस्यों के बीच अविश्वास और मतभेद को दर्शाता है। एक विपक्षी नेता ने सार्वजनिक रूप से इस स्थिति को “चिंता का विषय” स्वीकार किया और इस पर “चिंतन” करने की आवश्यकता पर जोर दिया। यह स्वीकारोक्ति अपने आप में विपक्ष के लिए एक बड़ी राजनीतिक हार है, क्योंकि यह उनकी आंतरिक दरारों की पुष्टि करती है।

तटस्थ दलों की भूमिका

इस चुनाव में कुछ प्रमुख क्षेत्रीय दलों की रणनीतिक अनुपस्थिति ने भी एनडीए को अप्रत्यक्ष रूप से लाभ पहुंचाया और विपक्ष की कमजोरी को उजागर किया।

  • बीजू जनता दल (BJD): ओडिशा के पूर्व मुख्यमंत्री नवीन पटनायक के नेतृत्व वाली बीजेडी ने एनडीए और ‘इंडिया’ दोनों से “समान दूरी” बनाए रखने की अपनी घोषित नीति के तहत मतदान से दूर रहने का फैसला किया।
  • भारत राष्ट्र समिति (BRS): तेलंगाना की बीआरएस ने किसानों के लिए यूरिया की कमी के विरोध में मतदान से अनुपस्थित रहने का फैसला किया, जिसके लिए उन्होंने केंद्र और राज्य सरकारों दोनों की आलोचना की।
  • शिरोमणि अकाली दल (SAD): अकाली दल ने पंजाब में आई बाढ़ से निपटने में केंद्र से अपेक्षित मदद न मिलने के विरोध में मतदान नहीं किया।

इन दलों की मतदान से दूरी, हालांकि उनके अपने कारणों पर आधारित थी, इसका रणनीतिक प्रभाव एनडीए के पक्ष में रहा। उपराष्ट्रपति चुनाव में जीत के लिए कुल वोटों के 50% से अधिक की आवश्यकता होती है। जब बीजेडी, बीआरएस, और अकाली दल के सांसदों ने मतदान नहीं किया, तो कुल मतदाताओं की संख्या 781 से घटकर 767 हो गई। इससे जीत के लिए आवश्यक जादुई आंकड़ा 391 से कम होकर 386 हो गया, जिससे एनडीए के लिए जीतना और भी आसान हो गया। यह इस बात का प्रमाण है कि विपक्ष इन महत्वपूर्ण क्षेत्रीय दलों को अपने खेमे में लाने या कम से कम उन्हें मतदान से दूर रहने से रोकने में विफल रहा।

इसके अतिरिक्त, आंध्र प्रदेश की वाईएसआर कांग्रेस पार्टी ने खुलकर एनडीए उम्मीदवार सी.पी. राधाकृष्णन का समर्थन किया। उनके 11 सांसदों का समर्थन एनडीए के वोट बैंक को और मजबूत करने वाला एक अतिरिक्त लाभ साबित हुआ।

2022 से तुलना: नैतिक जीत या राजनीतिक भ्रम?

विपक्षी खेमे के कुछ नेताओं ने इस चुनाव के परिणाम को “नैतिक जीत” करार दिया। उन्होंने दावा किया कि 2022 के उपराष्ट्रपति चुनाव की तुलना में उनका वोट शेयर 26% से बढ़कर 40% हो गया है। यह तर्क एक सतही विश्लेषण पर आधारित है और एक राजनीतिक भ्रम पैदा करता है।

सारणी: 2022 और 2025 के उपराष्ट्रपति चुनावों का तुलनात्मक विश्लेषण

विवरण2022 चुनाव2025 चुनाव
एनडीए उम्मीदवारजगदीप धनखड़सी.पी. राधाकृष्णन
विपक्षी उम्मीदवारमार्गरेट अल्वाबी. सुदर्शन रेड्डी
कुल वैध वोट725 752
एनडीए उम्मीदवार को मिले वोट528 452
विपक्षी उम्मीदवार को मिले वोट182 300
विपक्ष का वोट शेयर~26% ~40%
मतदान से अनुपस्थित दलतृणमूल कांग्रेस बीजेडी, बीआरएस, अकाली दल, एक निर्दलीय

इस तुलनात्मक विश्लेषण से स्पष्ट होता है कि “नैतिक जीत” का यह दावा वास्तविकता से परे है। 2022 के चुनाव में, एनडीए के पास लोकसभा में 353 सांसदों का भारी बहुमत था, जिसके कारण उनके उम्मीदवार की जीत का मार्जिन बहुत बड़ा था। इसके विपरीत, 2025 के चुनाव तक एनडीए का लोकसभा संख्या बल घटकर 293 हो गया था।

इसलिए, विपक्ष के लिए स्वाभाविक रूप से अधिक वोट प्राप्त करने की संभावना थी। असली विफलता यह नहीं है कि उन्हें 40% वोट मिले, बल्कि यह है कि वे अपने घोषित 315 वोटों को भी सुरक्षित नहीं रख पाए। यह इस बात का प्रमाण है कि संख्या बल में गिरावट के बावजूद, एनडीए अपनी “सेंध लगाने” की रणनीति में सफल रहा, जबकि विपक्ष अपने आंतरिक कुनबे को बनाए रखने में विफल रहा। यह विपक्षी खेमे की रणनीतिक अपरिपक्वता और अक्षमता को उजागर करता है, जिससे उनकी “नैतिक जीत” का दावा वास्तविकता में एक राजनीतिक भ्रम साबित होता है।

भविष्य की चुनौतियां: इंडिया गठबंधन के लिए आगे का रास्ता

उपराष्ट्रपति चुनाव ने 2029 के लोकसभा चुनावों के लिए ‘इंडिया’ गठबंधन की रणनीति की कमजोरियों को स्पष्ट रूप से उजागर कर दिया है।

  • समन्वय की कमी और आंतरिक मतभेद: तृणमूल कांग्रेस जैसी प्रमुख पार्टियों का उम्मीदवार चयन प्रक्रिया से शुरू में दूरी बनाए रखना और बाद में क्रॉस-वोटिंग के आरोपों पर बयान देना यह दर्शाता है कि गठबंधन के भीतर नेताओं और दलों के बीच गहरे मतभेद मौजूद हैं। एकता का यह अभाव भविष्य में भी उनकी साझा रणनीति और एकजुटता को प्रभावित कर सकता है।
  • क्षेत्रीय बनाम राष्ट्रीय राजनीति का द्वंद्व: बीजेडी, बीआरएस और अकाली दल जैसे दलों का अपने-अपने राज्य-विशिष्ट मुद्दों (जैसे यूरिया की कमी, बाढ़ राहत) के कारण राष्ट्रीय चुनाव से दूरी बनाए रखना यह साबित करता है कि क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाएं अभी भी राष्ट्रीय एकता से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं। यह ‘इंडिया’ गठबंधन के लिए एक बड़ी चुनौती है, क्योंकि इसे क्षेत्रीय दलों को एक राष्ट्रीय मंच पर एकजुट करने के लिए ठोस और विश्वसनीय आधार की आवश्यकता है।
  • नेतृत्व का संकट: विपक्षी गठबंधन के पास अभी भी कोई एक स्पष्ट और सर्वमान्य चेहरा नहीं है जो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सामने प्रभावी रूप से खड़ा हो सके। यह एक बड़ी चुनौती बनी हुई है, जो गठबंधन की विश्वसनीयता को प्रभावित करती है।
  • ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का संभावित प्रभाव: विपक्षी दल ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ जैसे प्रस्तावों का पुरजोर विरोध कर रहे हैं। यह विरोध इस बात को उजागर करता है कि उन्हें डर है कि इस तरह की पहल से चुनावी अभियानों में क्षेत्रीय मुद्दों के बजाय राष्ट्रीय मुद्दे प्रभावी हो जाएंगे, जिससे क्षेत्रीय दलों को नुकसान होगा। यह एक बार फिर ‘इंडिया’ ब्लॉक की नाजुक एकता और उसके क्षेत्रीय हितों पर आधारित होने की प्रवृत्ति को रेखांकित करता है।

विपक्षी एकता के आगे की राह

उपराष्ट्रपति चुनाव का परिणाम ‘इंडिया’ गठबंधन के लिए एक महत्वपूर्ण चेतावनी है। यह चुनाव सिर्फ एक संख्यात्मक हार नहीं थी, बल्कि यह उनकी रणनीतिक और मनोवैज्ञानिक विफलता भी थी। इसने विपक्ष के भीतर की उन दरारों को दिखाया, जिन्हें वे एकजुटता के नारे के पीछे छिपाने का प्रयास कर रहे थे।

एनडीए ने अपनी संख्यात्मक जीत को विपक्ष में दरार डालने के लिए एक मनोवैज्ञानिक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया। यह दर्शाता है कि बीजेपी की रणनीति सिर्फ चुनाव जीतना नहीं है, बल्कि विपक्ष को आंतरिक रूप से कमजोर करना भी है।

विपक्ष को अब इन परिणामों से आत्म-चिंतन करना चाहिए। उन्हें अपने आंतरिक मतभेदों को सुलझाने, अपने सदस्यों पर विश्वास बहाल करने, और एक ठोस, साझा विचारधारा और रणनीति विकसित करने की आवश्यकता है जो केवल ‘मोदी को हराने’ के उद्देश्य से परे हो। अन्यथा, 2029 की राह उनके लिए और भी कठिन हो जाएगी। यह घटनाक्रम भारतीय राजनीति पर दीर्घकालिक प्रभाव डालेगा, क्योंकि यह दिखाता है कि गठबंधन बनाना आसान है, लेकिन उसे एकजुट रखना कहीं अधिक कठिन है, खासकर जब सत्ता पक्ष के पास संसाधनों और रणनीतिक कौशल का मजबूत आधार हो।

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