आजादी के दौरान दिल्ली ने दंगों का दर्द झेला था

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।

Delhi: आजादी के दौरान एक तरफ दिल्ली दंगों का दर्द झेल रही थी तो दूसरी तरफ राजनीतिक सरगर्मियां उफान पर थीं। एक तरफ दंगों भरा आलम था तो दूसरी तरफ राजधानी के राजनीतिक हलकों में बड़ी सक्रियता थी। नेहरू ने अन्तरिम सरकार के बाद जिस मन्त्रिमंडल का गठन किया था, उसमें मौलाना आज़ाद भी थे और जगजीवनराम भी, श्यामाप्रसाद मुखर्जी भी थे और सरदार पटेल भी, राजकुमारी अमृत कौर भी थीं और बलदेव सिंह भी। बाद में संविधान के प्रधान शिल्पी तो डॉ. अम्बेडकर ही हुए।

ऐसी धर्म-जाति-लिंग निरपेक्ष राजनीतिक दृष्टि नेहरू के बाद विरल होते-होते अन्ततः विलुप्त हो गई। वे सच्चे अर्थ में लोकतान्त्रिक दृष्टि सम्पन्न प्रधानमन्त्री थे। इसलिए मतभेदों के बावजूद सबके सम्मान और विश्वास के पात्र थे।

उसी दौरान ‘दिल्ली में ही एक और आस्था केन्द्र था, जिसकी तरफ़ लोग लगभग धर्म-भावना से, आत्मा के अनुरोध से खिंचे चले जाते थे। राजनेता भी और जनता भी। इसके सूत्रधार और नायक गांधीजी थे। सत्ता का सूत्र तो उन्होंने कभी पकड़ा ही नहीं, पर उनकी राय लेना, संकट की घड़ी में मध्यस्थता और सुलह-समझौते के लिए उनकी तरफ रुख करना बदस्तूर कायम था।

मतभेदों के बावजूद नेहरू तब भी उनकी आँख के तारे थे। गांधीजी को जैसे समझ में आ गया था कि देश की राजनीतिक बागडोर उनके हाथ से निकल चुकी है, पर उनकी चिन्ताएँ तो सामाजिक शान्ति और साम्प्रदायिक सौहार्द से जुड़ी थीं। वे दिल्ली लौट आए थे। तीन मूर्ति पर बिरला-भवन में सन्ध्यावेला में उनकी प्रार्थना सभाएँ होती थीं।

जब-जब दिल्ली में रहते, उनका नियमित कार्यक्रम होता था। शाम को निर्धारित समय पर खुले प्रांगण में जनता इकट्ठी होती, परम श्रद्धा-भाव से। वे धीमी चाल से युवा कन्धों का सहारा लिए सभा-स्थल में प्रवेश करते। सर्वधर्म- समभाव की भावना से गीता, कुरान, गुरुग्रन्थ साहब के अंशों के पाठ के बाद सभा ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए-‘ पद के गायन से शुरू होती। उसके बाद गुजराती मिश्रित हिन्दी में ‘बैनो और भाइयो’ को सम्बोधित करते हुए वे अपना प्रवचन आरम्भ करते।

किसी न किसी समसामयिक विषय पर शान्ति और सद्भावना बनाए रखने की अपील के साथ वे बड़ी मार्मिक निष्ठा से अपनी बात कहते। बिना भेदभाव के हर धर्म, आयु और वर्ग के लोग, इन प्रार्थना सभाओं में इकट्ठे होते। बड़ी संख्या ऐसे लोगों की थी जो नित्य नियम से वहाँ उपस्थिति दर्ज करते। इतना अनुशासन, इतनी शान्ति धार्मिक प्रवचनों में भी कभी नहीं दिखाई पड़ी। सबकी टकटकी उस गैलरी की तरफ़ लगी रहती जिधर से आकर वे ज़मीन पर बैठी निस्पन्द जनता के सामने बरामदे में स्थान ग्रहण करते।

उन सभाओं में उपस्थिति, अपने आपमें एक अनुभव होती थी। कुछ ऐसा था वचनों से परे, जिसका स्पन्दन उस वातावरण में महसूस किया जा सकता था। शायद उनकी सत्यनिष्ठा, त्याग, आत्मविश्वास जिससे उनकी वाणी में कायल करने की शक्ति आती थी। जब कोई बड़ी घटना घटती तो उनकी वाणी करुणा और कातरता से जैसे आर्द्र हो आती थी। 15 अगस्त की परिणामी घटनाओं ने उनकी वाणी के ओज का हरण कर लिया था। राजनीति से उनका भरोसा जैसे उठ गया था, पर जनता पर उनका, और उन पर जनता का विश्वास कायम था।

30 जनवरी, 1948 को गांधी जी के प्राण हर लिए गए। यह बात अलग है कि गोली चलानेवाले ने भी यह हरकत करने से पहले उनके चरण छूकर उन्हें प्रणाम किया। यह व्यवहार उस शक्ति और वाणी की अमोघता का स्वीकार था जिसका प्रतिरोध गोली जैसे जड़ साधन से ही सम्भव था। सारे तर्क और वाग्मिता उनके मौन तक के सामने निष्प्रभ और व्यर्थ हो जाते थे।

रेडियो से ख़बर फैलते ही पूरे शहर में मौत का मातम छा गया। सारे पैर बिरला-भवन की तरफ दौड़ रहे थे। रुँधे कंठ से नेहरू ने देश को सम्बोधित करते हुए कहा, ‘द लाइट इज़ गॉन।’ उस दिन उस प्रकाशपुंज के महाप्रस्थान से जिस अन्धकार का प्रसार हुआ था, क्या आज भी उस पर पूरी तरह विजय पाई जा सकी है-सोचने की ज़रूरत है।

गांधीजी की हत्या से दिल्ली ही नहीं, पूरा देश स्तब्ध था। सारे कान रेडियो से चिपके थे और घटना के सम्भावित कारणों के बारे में अटकलों का बाज़ार गर्म था। आम जनता के लिए यह कल्पनातीत था कि कोई उन्हें हिन्दू-विरोधी मानकर यह क़दम उठा सकता है। गोली लगते ही गांधीजी तो धराशायी हो गए। सभा में मौजूद जनता की तात्कालिक प्रतिक्रिया यह भी हो सकती थी कि उन्हें मारनेवाले को वहीं घेरकर वारा-न्यारा कर देती, पर ऐसा कुछ नहीं हुआ। न गोडसे ने भागने की कोशिश की न उपस्थित जनता ने उसके साथ हिंसक व्यवहार करने की। वह वहीं सिर झुकाए अपनी गिरफ्तारी की प्रतीक्षा करता रहा। अगर वहाँ एकत्र भीड़ ने उसकी उपस्थिति को अहिंसक भाव से सहा तो इसका अर्थ न उससे सहमति थी, न सहानुभूति। ज़्यादा से ज़्यादा किंकर्त्तव्यविमूढ़ता हो सकती थी। पर मुझे इस स्थिति में कहीं न कहीं उस माहौल की भूमिका दिखाई पड़ती है जो उन प्रार्थना सभाओं में अनायास पैदा हो जाता था।

उनके अन्तिम संस्कार के दृश्य से भारतीय जनमानस फ़िल्मी रीलों के माध्यम से भली भाँति परिचित हैं। कहने लायक बात इतनी ही है कि वह मानव-समुद्र जो उमड़ रहा था, प्रायोजित नहीं था। अंसारी रोड के पिछवाड़े के मकानों की छतों पर तिल धरने की जगह नहीं थी। भीड़ में लोग अपने पाँव पर चलकर नहीं, अगल-बगल की रेल-पेल में निराधार कहीं से कहीं पहुँचे जा रहे थे। जहाँ से कुछ भी देखा जा सकता था, उन पेड़ों पर जनता ने बनमानुसों की तरह जगह बना ली थी। तमाम डालें बोझ न उठा पाने के कारण आसीनों को लिए नीचे आ रहीं। रोना-धोना अपनी जगह अलग। पूरी दिल्ली के सभी रास्तों का एकमात्र गन्तव्य था राजघाट।

धीरे-धीरे माहौल से मातम का साया छँटता गया। काफ़ी समय राजघाट पर देशभर से लोग, तीर्थयात्रा के भाव से आते रहे। पूरे विश्व ने इस हादसे को मानवता के लिए बहुत बड़ी क्षति के रूप में देखा। गांधी सही अर्थों में युग पुरुष थे। विश्व के किसी भी राजपुरुष ने भारत आने पर राष्ट्रपिता की समाधि पर श्रद्धा अर्पित न की हो, ऐसा नहीं हुआ। केन्द्र में जब-जब नई सरकार बनी, मन्त्रिमंडल के गठन के बाद राजघाट पर, कर्त्तव्य-बोध से श्रद्धा अर्पित करने की परम्परा का निर्वाह करना सबने ज़रूरी समझा।

यह बात अलग है कि मतभेदों के निबटारे के लिए एक विश्वसनीय प्रेरणास्रोत का अभाव उन्हें ज़रूर सालता होगा जो सत्ता की बागडोर थामे थे। राजधानी में स्थितियाँ दो-तीन वर्षों में सहज हो चलीं। जो विभाजन की त्रासदी के कारण आफ़त के मारे आए थे, वे तो आबाद हो ही गए, उनके अलावा तमाम दूसरे भागों से बड़ी संख्या में लोगों ने रोज़ी-रोटी की तलाश में राजधानी की तरफ रुख किया। एक काफ़िला राज्य सभा और संसद सदस्यों का था। दूसरी खेप केन्द्र के अधीन विभिन्न मन्त्रालयों में काम करनेवाले अलग-अलग स्तर के सरकारी कर्मचारियों की थी। बड़े पैमाने पर इनकी आवासीय व्यवस्था का प्रश्न था। देखते-देखते नॉर्थ और साउथ ब्लाक में नीचे की तरफ़ दाएँ-बाएँ दूर तक मन्त्रालयों के लिए तरह-तरह की इमारतें खड़ी हो गईं। नॉर्थ और साउथ एवेन्यू के दोमंज़िले फ़्लैट बन गए जिनमें संसद सदस्य एक होता था, दुमछल्ले अनेक । परिवार सबके साथ नहीं आए, पर उनके स्थानापन्न रिश्तेदार और इलाके के सेवादार अच्छी-खासी संख्या में इनमें पड़े रहते थे। कुछ वर्ष बाद इन लोगों में से कुछ ने आबंटित घरों को गैरकानूनी रूप से किराए पर देकर उसमें एक कमरा अपने लिए रोक लिया। अधिवेशन के दौरान वे वहीं बिराजते, दरबार लगाते और किराएदार परिवार उनके खान-पान की व्यवस्था कर दिया करता था। ध्यान देने की बात यह है कि इन तमाम इमारतों की वास्तुकला की तुलना साम्राज्यवादियों की देख-रेख में बनी ल्यूटन की दिल्ली से करने पर निराशा ही होती है। इस दृष्टि से दिल्ली की जनता को मुग़ल और ब्रिटिश शासकों का कृतज्ञ होना चाहिए कि दिल्ली की तमाम ऐतिहासिक इमारतें उन्हीं की देन हैं-वास्तुकला के आदर्श नमूने ।

भारत के पहले प्रधानमन्त्री राजपुरुष ही नहीं, संस्कृतिपुरुष भी थे। उनकी एक नज़र देश की विदेश-नीति और आर्थिक विकास पर रहती थी और दूसरी संस्कृति के संरक्षण और प्रोत्साहन पर। उनके इस लगाव का प्रमाण है उनकी सुविख्यात रचना ‘भारत की खोज’, जो भारत के सांस्कृतिक इतिहास का बेहतरीन आख्यान है जिसकी रचना वे देश के गुलाम रहते कर चुके थे। यह बात अलग है कि उनकी गुट-निरपेक्षता पर आधारित विदेश-नीति और विज्ञान व तकनीकी विकास पर आधारित अर्थनीति, समय-समय पर मतभेद और विवाद के विषय रहे हैं।

अपनी इस मानसिक बनावट के अनुरूप उन्होंने ‘नाम’ (गुट-निरपेक्ष आन्दोलन) की नींव डाली, बांडंग कॉन्फ्रेंस करके ‘पंचशील’ के झंडे के नीचे विश्व के पूर्वी देशों को एकजुट करने का प्रयत्न किया। आर्थिक विकास के लिए उन्होंने रूस के मॉडल पर पंचवर्षीय योजनाएँ बनाई और देश में इस्पात के कारखानों और नदियों पर बाँध-घाटी योजनाओं को कार्यान्वित करने की मुहिम चलाई।

Spread the love

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here