प्रबल व्यक्तित्व, संघर्ष, बलिदान, निःस्वार्थता, समर्पण और निष्ठा की बदौलत गौरव के शिखर पर पहुंचे चितरंजन दास
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
Chittaranjan Das biography: उन्नीसवीं शताब्दी में जन्मे जिन महारथियों ने स्वतंत्र भारत के भाग्य निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी और जो हमारे राष्ट्रीय जीवन तथा राजनीति के क्षेत्र में अपनी अमिट छाप छोड़ गए उनमें चित्तरंजन दास का नाम एक नायक की भांति उभर कर सामने आता है। चित्तरंजन दास का गौरव के शिखर पर पहुंचना न तो उनके भाग्य के फलस्वरूप हुआ और न ही यह एक संयोग था बल्कि यह सब उनके प्रबल व्यक्तित्व, संघर्ष, बलिदान, निःस्वार्थता, समर्पण और निष्ठा का परिणाम था।
चितरंजन दास का जन्मस्थान
चित्तरंजन दास, जिन्हें उनके प्रशंसक और अनुयायी प्रेम से “देशबन्धु” कहते थे, का जन्म 5 नवम्बर 1870 को मध्य कलकत्ता में भुवनमोहन दास तथा निस्तारिणी देवी के घर हुआ। उनके पिता भुवनमोहन दास कलकत्ता उच्च न्यायालय के विख्यात सॉलिसिटर थे, जो अपनी बौद्धिक क्षमता तथा कुशल पत्रकारिता के लिए भी सुविख्यात थे।
चितरंजन दास की शिक्षा-दीक्षा
वर्ष 1878 में, चित्तरंजन दास ने कलकत्ता में भवानीपुर स्थित लंदन मिशनरी सोसाइटीज इंस्टीट्यूशन में प्रवेश लिया। वर्ष 1886 में उन्होंने कलकत्ता विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण की और उसके बाद प्रेसीडेंसी कालेज में प्रवेश लिया। उन्होंने रवीन्द्रनाथ ठाकुर की पुस्तकों का अध्ययन किया और कीट्स, शैली तथा ब्राउनिंग के प्रशंसक रहे। वर्ष 1890 में उन्होंने प्रेसीडेंसी कालेज से स्नातक की उपाधि प्राप्त की।
इंग्लिश बार के लिए योग्य घोषित
स्नातक परीक्षा उत्तीर्ण करने के कुछ महीनों के भीतर उनके पिता ने उन्हें इंडियन सिविल सर्विस की परीक्षा में भाग लेने के लिए इंग्लैंड भेज दिया। तथापि, चित्तरंजन दास ने अपना ध्यान विधि अध्ययन पर केन्द्रित किया और मिडिल टैम्पल में प्रवेश ले लिया। वर्ष 1893 में उन्होंने “इंग्लिश बार” के लिए वांछित योग्यता प्राप्त कर ली।
अरविंद घोष को बरी कराए
वर्ष 1894 में चित्तरंजन दास ने भारत लौटकर अपना नाम कलकत्ता उच्च न्यायालय में बैरिस्टर के रूप में पंजीकृत करा लिया। उनके व्यावसायिक जोवन में महत्वपूर्ण मोड़ उस समय आया जब उन्हें 1908 में अलीपुर बम कांड में अरविन्द घोष की ओर से वकोल बनाया गया। उन्होंने मामले को बहुत ही अच्छे ढंग से पेश किया और अन्ततः अरविन्द को बरी कर दिया गया। इस मामले में प्राप्त सफलता ने चित्तरंजन दास को व्यावसायिक और राजनीतिक मंच की अग्रिम पंक्ति में लाकर खड़ा कर दिया।
ढाका षडयंत्र कांड में बचाव पक्ष के वकील
चित्तरंजन दास ढाका षड्यंत्र कांड (1910-11) में भी बचाव पक्ष के वकील थे। वह दीवानी और फौजदारी कानूनों में प्रवीण थे। बहुत ही अल्प अवधि में उन्हें वकालत से अच्छी आमदनी प्राप्त होने लगी।
दिनांक 3 दिसम्बर 1897 को चित्तरंजन दास का विवाह असम में बिजनी रियासत के दीवान वरदानाथ हल्दर की सुपुत्री बसन्ती देवी के साथ हुआ।
16 साल की आयु में लिखनी शुरू की कविता
चित्तरंजन दास बचपन से ही वैष्णव कवियों से अत्यधिक प्रभावित थे। लेखक के रूप में चित्तरंजन दास ने सोलह वर्ष की अल्प आयु से बंगला भाषा में कविता लिखना प्रारम्भ कर दिया था। कुछ महत्वपूर्ण कविताएं 1913 में ‘सागर संगीत’ (दि सांग्स आफ दि सी) के रूप में प्रकाशित हुईं।
दूसरा कविता संग्रह अन्तर्यामी (दि आल परसीवर) 1914 में तथा किशोर-किशोरी (दि यूथ) 1915 में प्रकाशित हुआ। उन्होंने बहुत उच्च कोटि की साहित्यिक पत्रिका नारायण की स्थापना की और इसका पांच वर्ष तक सम्पादन किया। इस पत्रिका में भी उनकी कुछ कविताएं प्रकाशित हुईं।
सक्रिय राजनीति में नहीं लिया भाग
चित्तरंजन दास का न्यू इंडिया और वन्देमातरम् से गहरा संबंध था। इसके माध्यम से स्वतंत्रता संग्राम में उनका भाग लेना एक उल्लेखनीय बात थी। वर्ष 1906 में वह एक प्रतिनिधि के रूप में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए लेकिन 1917 तक, जब उन्हें कलकत्ता में बंगाल प्रान्त कांग्रेस सम्मेलन की अध्यक्षता करने के लिए आमंत्रित किया गया, उन्होंने सक्रिय राजनीति में भाग नहीं लिया था।
मंटिग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों का विरोध किया
वर्ष 1917 में, चित्तरंजन दास ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन के लिए मती एनी बेसेन्ट के अध्यक्ष के रूप में चुनाव हेतु अथक परिश्रम किया। वर्ष 1918 में बम्बई’ में कांग्रेस के विशेष अधिवेशन और दिल्ली में वार्षिक अधिवेशन में उन्होंने मंटिग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों का विरोध किया।
रॉलेट एक्ट का मुखर विरोध
दिनांक 18 मार्च 1919 को रॉलेट एक्ट पारित किया गया, जिससे राज्य के विरुद्ध राजनैतिक आंदोलन और अन्य किसी कार्यवाही को दबाने हेतु भारत सरकार को असाधारण शक्तियां प्राप्त हो गईं। रॉलेट एक्ट का समूचे देश में भारी विरोध हुआ। महात्मा गांधी ने घोषणा की कि देश में 6 अप्रैल 1919 को सत्याग्रह किया जाएगा। तदनुसार उस दिन पूरे देश में हड़ताल रही।
कलकत्ता में 6 अप्रैल 1919 को एक विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए देशबन्धु चित्तरंजन दास ने कहा:
सत्याग्रह आत्मिक बल है। यह प्रेम की शक्ति है। प्रेम से हम स्वयं पर विजय पा सकते हैं। हमें स्वार्थ, घृणा और ईष्यों को त्याग देना चाहिए और आत्म नियंत्रण रखना चाहिए। निःसंदेह यह न केवल महात्मा गांधी का ही संदेश है, अपितु यह युग-युग से भारत का संदेश रहा है; प्रहलाद, मीराबाई, वशिष्ठ का संदेश रहा है। रॉलेट एक्ट स्वतंत्रता आंदोलन के मार्ग में एक बाधा है। जब तक हम इस बाधा को दूर नहीं करेंगे, हमें आजादी नहीं मिल सकती। इसके लिए हमें अपने देश से असीम प्रेम करना होगा, हमें सत्याग्रही बनना होगा तथा पृणा और इंष्यों को त्यागना होगा। भाइयों, उठी, स्वयं को तैयार करो और विश्वास करो कि निर्बल आत्मशक्ति वाले व्यक्तियों को लक्ष्य की प्राप्ति नहीं हो सकती है।
महात्मा गांधी के संकल्प का किया विरोध
वर्ष 1920 में कलकत्ता में आयोजित कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में महात्मा गांधी ने सरकार से असहयोग का अपना पांच सूत्रीय कार्यक्रम प्रस्तुत किया। चित्तरंजन जो विधानमंडल के भीतर से ही अवरोध पैदा करने को नीति में विश्वास रखते थे, ने महात्मा गांधी के संकल्प का विरोध किया। हालांकि कांग्रेस ने इसे स्वीकार कर लिया था।
देशवासियों ने दिया देशबंधु नाम
हालांकि बाद में चित्तरंजन ने अपने आपको असहयोग आंदोलन के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित कर दिया और अपनी अच्छी खासी आमदनी वाली प्रैक्टिस छोड़ दी। इसक पश्चात उन्होंने सम्पन्न व्यक्तियों वाले ऐशो आराम का त्याग कर दिया और एक राजनैतिक तथा आध्यात्मिक सन्यासी का जीवन बिताने लगे।
कुछ वर्षों के बाद, उन्होंने एक मेडिकल स्कूल और महिला अस्पताल हेतु अपनी समस्त सम्पत्ति राष्ट्र को समर्पित कर दी। उनका घर एक राजनीतिक संस्था में परिवर्तित हो गया तथा विचार-विमर्श, संगठन और प्रचार-प्रसार का केन्द्र बन गया। उनके इस त्याग से भारतवर्ष का हृदय विहवल हो उठा और इसलिए देश ने उन्हें प्यार से ‘देशबन्धु’ अर्थात् ‘देश का मित्र’ नाम दिया।
ढाका में राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना
वर्ष 1921 में दास ने ढाका में राष्ट्रीय विश्वविद्यालय की स्थापना की। तथापि, वर्ष 1921 में उनका मुख्य कार्य कांग्रेस स्वयंसेवी सेना को संगठित करना और उसे निर्देश देना था। असहयोग आंदोलन में तेजी लाने के लिए अखिल भारतीय कांग्रेस समिति ने एक करोड़ स्वयंसेवकों की भर्ती और एक करोड़ रुपये एकत्र करने के लिए कहा।
चितरंजन की पत्नी, पुत्र और बहन गिरफ्तार
बंगाल में चित्तरंजन की अपील सुनकर सैकड़ों युवा लड़के-लड़कियां आगे आए। स्वयंसेवी दल में तेजी से वृद्धि हुई और यह व्यापक जन आंदोलन का रूप लेने लगा। इससे भयभीत होकर सरकार ने इस आंदोलन को राजद्रोह घोषित कर दिया तथा सभी सार्वजनिक बैठकों पर प्रतिबंध लगा दिया। कांग्रेस ने कानून का उल्लंघन करने का निर्णय करके इसका प्रतिकार किया।
‘खिलाफत कमेटी’ ने इस निर्णय का समर्थन किया। चित्तरंजन की पत्नी, पुत्र तथा बहन को भी गिरफ्तार कर लिया गया और स्वयं उन्हें 6 महीने कारावास की सजा दी गई। इस दौरान वह 1921 के कांग्रेस अधिवेशन हेतु अध्यक्ष चुन लिए गए थे परन्तु वह कांग्रेस की बैठक की अध्यक्षता नहीं कर सके, क्योंकि उस समय वह एक विचाराधीन कैदी थे। जुलाई 1922 में रिहाई के बाद वह गया में होने वाले कांग्रेस अधिवेशन के लिए अध्यक्ष चुन लिए गए।
वर्ष 1922 में सुभाष चन्द्र बोस ने देशबन्धु के साथ अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के गया अधिवेशन में भाग लिया। इस अधिवेशन में देशबन्धु ने लेजिस्लेटिव काउंसिल में प्रवेश के समर्थन में एक संकल्प प्रस्तुत किया। हालांकि इसे बहुमत का समर्थन नहीं मिल सका।
राजनीतिक दल का किया गठन
इसके फलस्वरूप, 31 दिसम्बर 1922 को टेकोरी पैलेस में हुई बैठक में देशबन्धु ने एक नई राजनैतिक पार्टी के गठन की घोषणा कर दी जिसका नाम ‘कांग्रेस खिलाफत स्वराज पार्टी’ रखा गया। वर्ष 1923 में इसका नाम ‘स्वराज पार्टी’ कर दिया गया।
मोतीलाल नेहरू जैसे प्रमुख कांग्रेसी नेता इस पार्टी में सम्मिलित हुए। धीरे-धीरे देशबन्धु की स्वराज पार्टी को भारी जन समर्थन प्राप्त हुआ। कांग्रेस को सुदृढ़ बनाए रखने तथा इसे विभाजन से बचाने के लिए अंततः एक समझौता हुआ। काउंसिल में प्रवेश संबंधी संकल्प को दिल्ली कांग्रेस के विशेष अधिवेशन में पारित कर दिया गया।
कलकत्ता के प्रथम मेयर चुने गए देशबंधु
भारत में स्थानीय स्वशासन के विकास के लिए बनाए गए कलकत्ता म्युनिसिपल एक्ट, 1923 में सर सुरेन्द्र नाथ बनर्जी का प्रमुख योगदान था। देशबन्धु ने बंगाल प्रोविंशियल कांग्रेस कमेटी के नाम पर निगम के चुनाव लड़ने का निर्णय लिय। उन्हें कलकत्ता का प्रथम मेयर बनाया गया।
निगम के लिए उन्होंने जो कार्यक्रम निर्धारित किया उसमें निःशुल्क प्राथमिक शिक्षा, गरीबों को निःशुल्क चिकित्सा राहत शुद्ध एवं सस्ते भोजन और दुग्ध की आपूर्ति, स्वच्छ जल की बेहतर आपूर्ति, व्यावसायिक और पनी आबादी वाले क्षेत्रों में बेहतर सफाई व्यवस्था, गरीबों के लिए मकान उपनगरीय क्षेत्रों का विकास, सुव्यवस्थित परिवहन सुविधाएं तथा प्रशासन में कम लागत पर अधिक कार्यकुशलता शामिल थे। प्रशासन में सफलता सुनिश्चित करने की दृष्टि से देशबन्धु ने मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में सुभाष चन्द्र बोस को चुना।
‘फारवर्ड’ नाम से समाचार पत्र का प्रकाशन
वर्ष 1923 में उन्होंने ‘फॉरवर्ड पब्लिशिंग’ कम्पनी का प्रवर्तन किया जिसमें उन्होंने पंडित मोतीलाल नेहरू, शरतचन्द्र बोस, तुलसी गोस्वामी और पी.डी. हिम्मतसिंहका को अपने साथ निदेशक के रूप में रखा। दिनांक 23 अक्तूबर 1923 को ‘फॉरवर्ड’ नाम से एक दैनिक समाचारपत्र का प्रकाशन किया गया जिसने भारतीय पत्रकारिता में नये मानदंड स्थापित किये तथा जनमत को अत्यधिक प्रभावित किया।
प्रारम्भ से ही, देशबन्धु ने यह निर्धारित कर लिया था कि यह समाचारपत्र न केवल राजनीति से संबंधित समाचार देगा बल्कि इसके कुछ पृष्ठ कला, साहित्य, विज्ञान, वास्तुकला, चित्रकला, खेलकूद, मंच और सिनेमा से संबंधित समाचारों के लिए भी निर्धारित होंगे। व्यापक कवरेज और गंभीर तथा निष्पक्ष आलोचना के कारण ‘फॉरवर्ड’ जल्दी ही एक लोकप्रिय समाचारपत्र बन गया।
साम्प्रदायिक दंगों से व्यथित
देशबन्धु ने अपने राजनैतिक जीवन के प्रारम्भ से ही महसूस कर लिया था कि भारत की स्वतंत्रता के लिए हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच मैत्री एवं आपसी तालमेल होना आवश्यक है। वह उत्तर प्रदेश, बिहार और पंजाब में समय-समय पर होने वाले साम्प्रदायिक दंगों से व्यथित थे।
हिंदु-मुस्लिम समझौता किया तैयार
वर्ष 1916 के कांग्रेस-लीग समझौते का उद्देश्य दोनों समुदायों के बीच के शेष विवादों को निपटाना था। इसी पृष्ठभूमि को देखते हुए देशबन्धु ने दोनों समुदायों के बीच स्थायी शांति कायम करने तथा संयुक्त मांग और संयुक्त कार्रवाई का आधार उपलब्ध कराने के लिए अपना प्रसिद्ध हिन्दू-मुस्लिम समझौता तैयार किया।
इस समझौते में यह व्यवस्था की गई थी कि बंगाल लेजिस्लेटिव काउंसिल में प्रतिनिधित्व जनसंख्या के आधार पर संयुक्त निर्वाचक मंडलों के माध्यम से होगा। इसमें यह व्यवस्था भी की गई थी कि मुसलमानों को तब तक विशेष अधिमान दिया जाएगा जब तक कि सेवाओं में उनकी कमी पूरी न हो जाये और उनकी संख्या आनुपातिक रूप से उनकी जनसंख्या के अनुकूल न हो जाए।
इस समझौते में बहुत अच्छी बातें थीं, किन्तु यह राजनीतिक विवाद का केन्द्र बन गया। हिंदुओं तथा मुस्लिमों के कुछ वर्ग इसके खिलाफ हो गए। देशबन्धु को दोनों समुदायों के मतभेद दूर करने के लिए कठिन संघर्ष करना पड़ा। उन्होंने स्पष्ट किया कि स्वराज अहिंसा और असहयोग के बिना प्राप्त नहीं किया जा सकता है और ऐसा कोई भी कार्यक्रम हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच दृष्टिकोण और कार्य के संबंध में एकता के आधार पर ही प्रभावी हो सकता है।
मई 1924 में बंगाल प्रान्तीय कांग्रेस का अधिवेशन सिराजगंज में आयोजित हुआ। इसमें भी समझौता चचर्चा का विषय था परन्तु देशबन्धु द्वारा आलोचकों को एक भाषण, जो लगभग चार घंटे तक चला, में दिए गए जवाब के बाद इसे सहर्ष स्वीकार कर लिया गया। देशवन्तु चित्तरंजन दास के जोवन काल के दौरान यह समझौता हमेशा बंगाल कांग्रेस का मान्य कार्यक्रम बना रहा।
बंगाल प्रान्तीय सम्मेलन
बंगाल प्रान्तीय सामेलन का आयोजन 2 मई 1925 को फरीदपुर (अब बगलादेश में) में हुआ, जिसकी अध्यक्षता चितरंजन दास ने की थी। इस सम्मेलन में अन्य लोगों के अलावा गांधीजी भी उपस्थित थे। राष्ट्रमंडल की तुलना में भारत की स्थिति के संबंध में उनके दिमाग में जो स्पष्ट चित्र था उसे चित्रित करते हुए चित्तरंजन दास ने कहा था:
मेरे लिए राष्ट्रमंडल का बड़ा महत्व है। मैं विश्व शांति और विश्व के सर्वोपरि संघ में विश्वास करता हूं। मैं सोचता हूं कि विश्व के राष्ट्रों का राष्ट्रमंडल जोकि विभिन्न जातियों का संघ है और जिसकी प्रत्येक जाति को जीवन शैली, सभ्यता और नैतिक दृष्टिकोण अलग-अलग हैं, का यदि कुशल राजनीतिज्ञों द्वारा नेतृत्व किया जाए तो यह विश्व को ऐसे अपूर्व महासंघ मानव जाति के महासंघ के रूप में संगठित करने की समस्या के समाधान में अपना महत्वपूर्ण योगदान कर सकता है।
इस बात का समर्थन करते हुए कि भारत को सभी राष्ट्रों और लोगों की स्वतंत्रता के लिए प्रयास जारी रखना चाहिए, चित्तरंजन दास ने आगे कहा थाः
मेरे विचार से भारत, राष्ट्रमंडल और विश्व की इसमें भलाई है कि भारत को राष्ट्रमंडल के सहयोग से सभी देशों की जनता की स्वतंत्रता के लिए प्रयास करना चाहिए और इस प्रकार मानवता के उद्देश्य को पूरा करना चाहिए।
दार्जिलिंग में ली अंतिम सांस
फरीदपुर के बंगाल प्रान्तीय सम्मेलन में भाग लेने के बाद जब चित्तरंजन दास 5 मई 1925 को कलकत्ता वापस पहुंचे तो उनका स्वास्थ्य बहुत खराब था। 16 जून 1925 को उन्होंने दार्जिलिंग में सर नृपेन्द्र नाथ सरकार के मकान में अपनी अंतिम सांस ली।
एक शोक सभा में महात्मा गांधी ने देशबन्धु को “पुरुषोत्तम” कहा था और टिप्पणी की थी:
मैं जितना उनके करीब आता गया उनसे उतना ही प्रेम करने लगा। दार्जिलिंग में अपने अल्प प्रवास के दौरान मैंने महसूस किया कि उनके मस्तिष्क में केवल भारत के कल्याण की ही चिन्ता थी। वह सोते-जागते केवल भारत की स्वतंत्रता के ही सपने देखते थे और केवल भारत की स्वतंत्रता के बारे में ही बात करते थे। वह निर्भीक और बहादुर थे। बंगाल के युवकों के लिए उनके हृदय में असीम स्नेह था और यहां तक कि, उनके विरोधी भी यह स्वीकार करते हैं कि बंगाल में उनका स्थान और कोई नहीं ले सकता। उनके मन में हिन्दू और मुसलमान के लिए कोई भेदभाव नहीं था और अंग्रेजों के लिए भी उनके मन में कोई बुराव नहीं था।
उनका नश्वर शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया है परन्तु उनकी आत्मा अमर है। उन्होंने इतना उत्सर्ग और बलिदान किया है कि उनकी आत्मा ही नहीं बल्कि उनका नाम भी अमर हो गया है। उनकी सेवा और बलिदान अनुपम थे। हम कामना करते हैं कि उनकी स्मृति सदैव हमारे साथ रहे और उनका उदाहरण हमें सदैव सत्कृत्यों की प्रेरणा देता रहे। जो भी व्यक्ति उनके दिखाए मार्ग का थोड़ा भी अनुकरण करेगा, वह उनकी स्मृति को शाश्वत बनाने में सहायक होगा। ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे।
चित्तरंजन के महानतम राजनीतिक शिष्य सुभाष चन्द्र बोस ने अपनी पुस्तक “द इंडियन स्ट्रगल” में अपने गुरु के बारे में लिखा थाः
दिनांक 16 जून 1925 को देशबन्धु का निधन भारत के लिए सबसे बड़ी राष्ट्रीय विपदा थी।… उनका उत्थान एक असाधारण घटना थी। एक वैष्णव अनुयायी की अगाध भक्ति के समान बिना कुछ सोचे समझे वह तन मन से राजनीतिक आन्दोलन में कूद पड़े थे और स्वराज हेतु संघर्ष में उन्होंने न केवल अपने को, बल्कि अपना सर्वस्व न्यौछावर कर दिया था। जब उनकी इहलीला समाप्त हो गयी तो जो भी उनके पास बचा था वह राष्ट्र को समर्पित हो गया। सरकार उनसे भयभीत थी और उनकी प्रशंसा भी करती थी। सरकार उनके पौरुष से भयभीत थी परन्तु उनके चरित्र का गुणगान करती थी। उसको पता था कि वह अपनी बात के धनी थे। उसे यह भी ज्ञात था कि वह अत्यंत संघर्षशील थे, परन्तु एक निष्कपट योद्धा थे और एक ऐसे व्यक्ति थ जिनके साथ समझौते के लिए बातचीत की जा सकती थी। उनका दृष्टिकोण स्पष्ट था, वह गहरी और सटीक राजनीतिक समझ रखते थे और महात्मा गांधी के विपरीत भारतीय राजनीति में उन्हें जो भूमिका निभानी थी, उसके प्रति वह पूर्णतः जागरूक थे। उन्हें दूसरों की अपेक्षा इस बात की अधिक जानकारी थी कि शत्रु से राजनीतिक सता छीनने की अनुकूल परिस्थितियां अक्सर नहीं आती हैं तथा तब ये आती हैं तो अधिक समय तक नहीं रहती हैं।