भाषा को लेकर समय समय पर खड़ा होता रहता है यक्ष प्रश्न
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
Delhi: राजधानी दिल्ली स्वाधीनता के बाद धीरे-धीरे सम्भावनाओं की नगरी की हैसियत अख्तियार करती जा रही थी। संविधान बना, मन्त्री और मन्त्रालय बने। उनसे जुड़े सरकारी कार्यालय बने। लोकसभा और राज्यसभा के चुनाव हुए। विभाजन से उत्पन्न राजनीतिक-आर्थिक समस्याएँ धीरे-धीरे सुलझती गईं और ज़िन्दगी अपनी लय बाँधकर चल निकली।
जवाहरलाल नेहरू के सांस्कृतिक रुझान के कारण सरकार ने कलाओं और संस्कृति के प्रोत्साहन पर भी अपेक्षित ध्यान दिया। राज्यसभा में साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों को मनोनीत करने के पीछे यही दृष्टिकोण काम कर रहा था। पर बहुभाषा-भाषी देश होने के कारण संविधान में भाषाओं की सापेक्ष स्थिति के बारे में मन्त्रिमंडल का नज़रिया बहुत साफ़ नहीं था।
सदियों से भारतीय भाषाओं ने गुलामी की ज़िल्लत भोगी थी। भारतीय भाषाओं के प्रति मुग़ल बादशाहों और हुकूमते बरतानिया के रुख में बुनियादी अन्तर था। मुगलों ने शासन कायम किया तो यहीं बसने के इरादे से। अंग्रेज़ों के लिए उनके अधिकृत इलाके उपनिवेशों से अधिक और कुछ न थे। लिहाज़ा भारतीय भाषाओं और कलाओं में दोनों की दिलचस्पी के कारण अलग-अलग थे।
फ़ारसी और उर्दू सरकारी कामकाज की भाषाएँ ज़रूर रहीं पर भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य, संगीत की शास्त्रीय परम्पराओं और चित्रकला की विभिन्न शैलियों के प्रति मुग़लों में कद्रदानी का जो जज्बा था, वह न कम्पनी सरकार और न उसके बाद रानी विक्टोरिया के शासन काल में दिखाई पड़ा। अंग्रेज़ी शासन ने स्थानीय भाषाओं में उतनी ही दिलचस्पी ली जितनी जनसम्पर्क के लिए, या फिर शासितों की संस्कृति और मानसिक बनावट को समझने के लिए ज़रूरी था। आरम्भिक दौर में मिशनरियों का रुझान ईसाई धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए भारतीय भाषाओं की तरफ़ ज़रूर हुआ।
प्राच्य विधा के विद्वानों की रुचि आधुनिक भारतीय भाषाओं में उतनी नहीं थी जितनी संस्कृत, फ़ारसी के क्लासिकी साहित्य में। इसके अलावा इस बोध ने कि आधुनिक ज्ञान-विज्ञान और नई जानकारियों का स्रोत अंग्रेज़ी में रचित साहित्य ही है, अंग्रेज़ी के बरक्स भारतीय भाषाओं की हैसियत ‘वर्नाक्यूलर्स’ के रूप में तय कर दी।
यह महज़ संयोग नहीं है कि जॉर्ज ग्रियर्सन ने अपने इतिहास में भारतीय भाषाओं के लिए ‘लैंग्वेज’ नहीं, ‘वर्नाक्यूलर्स’ संज्ञा का प्रयोग किया है। नतीजा यह हुआ कि भारतीय जनमानस में धीरे-धीरे अपनी भाषाओं के बारे में हीन-ग्रन्थि ने अंकुरित होकर जड़ें जमा लीं।
अंग्रेज़ी शासन के दौरान मध्यवर्ग के बीच एक ऐसा ‘भद्र लोक’ तैयार हुआ जो सरकारी तन्त्र से किसी न किसी रूप में जुड़ा था और अंग्रेज़ी भाषा, पोशाक, रहन-सहन सबको अपनाने में शान समझता था। इस प्रवृत्ति ने अपनी मातृभाषाओं को लेकर जो अवरोध पैदा किया, उसका प्रतिफलन इस भ्रम में हुआ कि ये भाषाएँ अभी राज-काज, ज्ञान-विज्ञान, शिक्षा-संस्कृति के तन्त्र की बागडोर सँभालने में पूरी तरह समर्थ नहीं है। इस भद्र लोक की संतति की शिक्षा या तो विदेशों में अथवा अंग्रेज़ी माध्यम की संस्थाओं में हुई थी।
पहली बार स्वाधीनता आन्दोलन ने इस वर्ग को देसी भाषाओं के महत्त्व से अवगत कराया। उसमें भी दो तरह के स्वाधीनता सेनानी थे-एक ठेठ स्वदेशी काट के-गांधी, पटेल, लाला लाजपतराय जैसे, दूसरे वे, जिन्होंने आन्दोलन के प्रभाव से स्वदेशी बाना धारण किया था। इनमें जवाहरलाल नेहरू का परिवार मुख्य था। संघर्ष के दौरान अंग्रेज़ी और अंग्रेज़ियत का परित्याग करने पर भी नेहरू के भाषणों की बनावट से साफ़ दिखाई पड़ता था कि वे सोच अंग्रेज़ी में और बोल हिन्दी में रहे हैं। इसी दुविधापूर्ण मनःस्थिति के कारण नेहरू और उन जैसी सोचवाले राजनेताओं ने स्वाधीन भारत की भाषा नीति को निर्णायक रूप से प्रभावित किया। यह जानते हुए भी कि भारत में हिन्दी बोलनेवालों की संख्या सर्वाधिक है, हिन्दी को राजभाषा का दर्जा नहीं दिया गया।
भारत ने रूस से पंचवर्षीय योजनाओं का मॉडल तो लिया, पर सोवियत संघ (अविभाजित) की भाषा नीति से कुछ नहीं सीखा। हिन्दी के प्रसिद्ध रूसी विद्वान् वरन्निकोव ने इस विषय पर बातचीत कहा था कि बहुभाषा- भाषी रूस में इस सिलसिले में सरकार की नीति आरम्भ से ही स्पष्ट रही।
वहां मातृभाषा वाले कॉलम में हर व्यक्ति दो भाषाएं भरता था-एक रूसी और दूसरी अपनी क्षेत्रीय भाषा। जब तक सोवियत संघ का विभाजन नहीं हुआ, स्थिति यही बनी रही। राजकाज और सम्पर्क की भाषा रूसी और आपसी बोलचाल और दैनंदिन जीवन-व्यवहार की भाषा क्षेत्रीय।
वहां भाषागत अस्मिताओं का सवाल सोवियत संघ के विघटन के समय उठाया गया। भारत में शासन की ढुलमुल नीति के कारण यह प्रश्न स्वाधीन अखंड भारत में ही पैदा हो गया था। दक्षिण का तत्कालीन हिन्दी विरोधी आन्दोलन इसका प्रमाण है।