दिल्लीवालों की जिंदगी में टेलीविजन ने दी दबे पांव दस्तक
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
जिन्दगी की अपनी लय होती है। शास्त्रीय संगीत की शब्दावली में कहें तो उसे आलाप > विलम्बित > द्रुत > तान-पलटे जोर-झाला में से स्थिति-भेद से किसी एक बिन्दु पर स्थिर करके इधर-उधर आवाज़ाही की जा सकती है। आलाप और विलम्बित तो शहरी जीवन की लय से कब के विदा हो गए। गनीमत समझनी चाहिए अगर ज़िन्दगी की गाड़ी द्रुत लय पर भी टिककर चलती रहे। यह अब की बात है, तब की नहीं, जब मीडिया और सूचना-तकनीक ने ज़िन्दगी पर हमला नहीं बोला था, यानी 1970 के बाद के कुछ वर्षों तक। संचार-क्रान्ति पैर दबाकर आं ज़रूर रही थी बेआवाज़-सी।
दिल्ली आखिर देश की राजधानी थी। फ़िल्म और व्यापार की दुनिया भले ही मुम्बई जैसे शहरों में फलती-फूलती हो, पर संचालन-सूत्र तो केन्द्रीय सरकार के हाथ में ही रहता था। नए आविष्कारों का असर भी सबसे पहले यहीं दर्ज होता था और संवैधानिक और न्यायिक फैसले भी यहीं होते थे। पर शहर की ज़िन्दगी में वैसा बावेला नहीं होता था, जैसा अब हर छोटी-बड़ी घटना को लेकर होता है।
इसकी वजह यही हो सकती है कि अब टी.वी. का हर ख़बरी चैनल 24 घंटे किसी सनसनीखेज़ घटना की, या फिर ऐसी घटना की तलाश में रहता है जिसे वह सनसनी पैदा करके दर्शकों के लिए पेश कर सके। घटना हाथ लगते ही तरह-तरह से दोहरा-दोहराकर अपने-अपने ढंग से चीख-पुकार कर 24 घंटे उसका ऐसा मलीदा बनाया जाता है कि वह संवेदनक्षीण हो जाती है।
बच रहती है निपट ख़बर क्योंकि इन चैनलों का अस्तित्व ख़बर को ख़बर बनाए रखने पर टिका है। बहरहाल, तब ऐसा नहीं होता था। दूरदर्शन के जीवन में प्रवेश से कुछ बदलाव ज़रूर आया था-पर बस इतना ही कि पढ़े-लिखे परिवारों ने इसे पढ़ाई से बच्चों का ध्यान हटाने के प्रभावी माध्यम, अतः खतरे के रूप में देखा था।
पहली आमद गिने-चुने ऊँचे और मध्यवर्गीय परिवारों में 1967-68 में ब्लैक एंड व्हाइट यानी बेरंग बक्से की हुई थी। बहुत जल्दी पाया गया कि खेल-कूद के बहाने बच्चे ‘चित्रहार’ और इतवारी फ़िल्म के चक्कर में उन पड़ोसी परिवारों में जमने लगे जहाँ इसकी पहुँच हो चुकी थी। देखते ही देखते घर- घर बुद्ध बक्सा पहुँच गया।
शहर के सामाजिक जीवन पर कुछ समय असर इतना ही पड़ा कि लोग ये दोनों कार्यक्रम क्रमशः बुधवार और इतवार को नियमित रूप से देखने लगे। वयस्कों की रुचि समाचारों में भी रहती थी, पर चैनलों और समाचारों की मारामार तब नहीं हुई थी।
समाचार-पत्र तब वैसे महत्त्वक्षीण नहीं हुए थे, जैसे अब मालूम होते हैं। संख्या ज़रूर गिनी-चुनी थी। अंग्रेज़ी में हिन्दुस्तान टाइम्स और टाइम्स ऑफ़ इंडिया और इन्हीं के हिन्दी प्रतिरूप ‘हिन्दुस्तान’ और ‘नवभारत टाइम्स’ अधिक लोकप्रिय थे। इनके अलावा बौद्धिकों के बीच स्टेट्समैन की विश्वसनीयता और प्रामाणिकता की दृष्टि से विशेष मान्यता थी।
इनके मालिक थे-बिरला, साहूजैन और टाटा। इनके अलावा जो अखबार निकलते थे, उनका नज़रिया कुछ क़स्बाई क़िस्म का रहता था। उनका पाठक-वर्ग अलग था। दिल्ली के जीवन की लय तब भी कुल मिलाकर विलम्बित ही थी।
जो परिवर्तन हो रहे थे, वे इसी लय के बीच कुछ ऐसे दबे पाँव और धीमी गति से कि अन्दाज़ नहीं लगाया जा सकता था कि जीवन की बनावट और बुनावट बदलने में बहुत देर नहीं है। लोगों की शामें अक्सर मित्रों के बीच मिलने-जुलने, गपशप करने या नाटक-फ़िल्म देखने में गुज़रती थीं-सहज इत्मीनान के भाव से। यह स्थिति आठवें दशक के बाद भी कई वर्ष तक बनी रही।