दिल्ली में यूनानी हिकमत की परंपरा बड़ी पुरानी है। अली गीलानी, अकबर अरजानी, शिफ़ाई खां, जगजीवन, अलवी खां, अजमल खां, शरीफ खां, अहसान उल्ला खां, महमूद खां और सुखानंद मुगल काल के कुछ प्रतिष्ठित हकीम और जर्राह थे। फरिश्ता ने अलाउद्दीन खिलजी के काल में 45 ऐसे मशहूर हकीमों, जर्राहों और नेत्र रोग के माहिरों का जिक्र किया है जो या तो सरकारी दवाखानों में मुलाज़िम थे या किसी-न-किसी तरह दरबार से संबद्ध थे।

मुहम्मद बिन तुगलक अपनी झक और बेवकूफी की हद तक जिद्दी स्वभाव के बावजूद अपने समय का एक बहुत बड़ा विद्वान था। उसके शासन में सिर्फ दिल्ली में ही तकरीबन सत्तर अस्पताल और बड़े दवाखाने यूनानी चिकित्सा के और एक हज़ार से ज़्यादा चिकित्सक और हकीम सरकारी सेवा में थे। उसके दरबार के हकीम जिया मुहम्मद मसूद ने दो खंडों में फारसी में एक पांडुलिपि तैयार की थी जिसमें विभिन्न बीमारियों का विवरण, उनका इलाज, पुंसत्त्व, स्त्रियों के लिए सौंदर्य वर्धन के ढंग, नर-संतान की प्रगति के उपाय, गर्भाधान के तरीके और घोड़ों की बीमारियों और उनके इलाज के तरीके दिए गए थे।

यह पांडुलिपि अब उपलब्ध नहीं है। फिरोजशाह तुगलक खुद चिकित्साशास्त्र का विशेषज्ञ था। उसके बारे में मशहूर है कि उसके जो कर्मचारी और साथी शिकार के अभियानों में घायल हो जाते थे, उनकी मरहम-पट्टी वह खुद कर देता था। वह नेत्र रोगों में विशेष रुचि लेता था और कहा जाता कि उसने काले सांप की खाल को जलाकर और उसमें ए-फिरोजशाही’ कुछ दूसरी दवाएं मिलाकर एक सुरमा तैयार किया था जिसका नाम ‘कुहल-ए- था। यह सुरमा आंखों की अनेक बीमारियों के लिए अक्सीर का काम करता था।

सिकंदर लोधी के शासन काल में मियां भुव्वा उसका सबसे बड़ा मनसबदार था, जिसे हिकमत में असाधारण रुचि थी। उसने चिकित्साशास्त्र पर एक पुस्तक लिखी जिसका नाम ‘मादन- उश्शिफा सिकंदरशाही’ था। मियां भुव्वा का इलाज-मआलिजे में दिलचस्पी का यह आलम था कि वह उम्र भर अध्ययन में डूबा रहा। गहन अध्ययन के बाद वह इस नतीजे पर पहुंचा कि यूनानी चिकित्सा पद्धति हिन्दुस्तानियों के लिए अधिक उपयुक्त नहीं है। क्योंकि हिन्दुस्तान की आबो-हवा बहुत भिन्न है और हिन्दुस्तानी उन दवाओं के नाम से परिचित नहीं हैं जो फारसी या यूनानी में हैं, इसलिए उसने सुलतान से दरख्वास्त की कि उसे आयुर्वेदिक चिकित्सा-पद्धति और औषधियों पर फारसी में एक पुस्तक लिखने की अनुमति दी जाए। यह एक प्रशंसनीय प्रयास था।

मुगलों के काल में यूनानी हिकमत को फिर बढ़ाया मिला। बाबर के साथ ही समरकंद और काबुल के कुछ मशहूर हकीम दिल्ली चले आए थे। दिल्ली में पहले ही से यूनानी चिकित्सकों का जोर था। बाबर के संबंध में भी कहा जाता है कि उसे खुद हिकमत में रुचि थी। अकबर के जमाने में यूनानी हिकमत और चिकित्सा-पद्धति हिन्दुस्तान के अधिकतर भागों में फैल गई। बहुत से हकीम और विद्वान ईरान और मध्य एशिया के दूसरे देशों से अकबर के दरबार में आ गए। अबुलफजल ने ऐसे 29 महशूर हकीमों का जिक्र किया है जिन्हें अकबर के दरबार में तनख्वाह मिलती थी। उनके नाम हैं-

हकीम-उल-मुल्क, हकीम मिसरी, हकीम मुल्ला मीर, हकीम अबुल फ़तह गीलानी, हकीम हसन गीलानी, हकीम आरिस्तू, हकीम फ़तेह उल्लाह शीराजी, हकीम मसीह-उल-मुल्क, हकीम जलालुद्दीन मुज़फ्फर, हकीम लुत्फुल्लाह, हकीम सैफुल मुल्क लांग, हकीम हम्माम, हकीम ऐनुल मुल्क, हकीम शिफ़ाई, हकीम नेमतुल्लाह, हकीम दावाई, हकीम तालिब अली, हकीम अब्दुर्रहीम, हकीम रुहुल्लाह, हकीम फ़ख़रुद्दीन अली, हकीम इस्तिहाक़, शेख हसन पानीपती, शेख बीना, महादेव भीमनाथ नारायण और शिवाजी।

मशूहर यूनानी चिकित्सकों के साथ बहुत-से वैद्य भी थे जो चिकित्सा के अभ्यास में लगे हुए थे और बड़े मशहूर थे। जैसे भैरव बिरजू और चंद्रसेन। उस जमाने में सैनिक अभियानों पर हकीम और वैद्य भी जाते थे। इसके अलावा शहजादों और शहजादियों के अपने व्यक्तिगत हकीम थे।

शाहजहां ने जनता के लिए जहां तक चिकित्सा सहायता का संबंध है, पूरे जोश-खरोश और उदारता से यह महान कार्य किया। उसके साम्राज्य में दूर-दूर तक जगह-जगह अस्पताल और दवाखाने कायम किए गए। दिल्ली में जामा मस्जिद के उत्तरी और दक्षिणी कोनों में दो बड़े अस्पताल बनाए गए जिनमें प्रतिष्ठित हकीम नौकर थे। उन अस्पतालों में रोगियों को बिना किसी भेदभाव के दवाएं मुफ़्त दी जाती थीं। शाहजहां के दरबार का सबसे प्रसिद्ध हकीम मसीहुज्जमां हकीम नूरुद्दीन मुहम्मद अब्दुल्ला था। जिसकी फारसी की रचना ‘तिब्ब-ए-दारा शुकोही’ एक श्रेष्ठ कृति थी। शुरू-शुरू में इस किताब को गलती से दारा शुकोह की रचना समझा गया।

उस युग के चिकित्साशास्त्र की एक और प्रसिद्ध पुस्तक ‘गंज-ए-बादआवर्द’ थी। इसके लेखक हकीम अमानुल्लाह खां थे। यह पुस्तक चिकित्साशास्त्र पर एक अहम दस्तावेज़ समझी जाती है। इसमें चिकित्साशास्त्र के पठन-पाठन, यूनानी और आयुर्वेदिक चिकित्सा-पद्धति का विवरण और मशहूर यूनानी हकीमों और वैद्यों के अनुभवों का सार, उनके आजमाए हुए नुस्खे शामिल हैं। लेखक ने इस पुस्तक की रचना में कठोर परिश्रम किया। कहा जाता है कि 105 अरबी, फ़ारसी और संस्कृत के प्रामाणिक और प्राचीन ग्रंथों के अध्ययन के बाद उसने यह किताब लिखी थी। इसमें इन्सानों और जानवरों की कुछ ऐसी बीमारियों का भी उल्लेख है जिनका इलाज शरीर में से फालतू रक्त निकालकर किया जाता था।

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