पहले नहीं छपता था शादियों का निमंत्रण पत्र
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
दिल्ली में पहले रहन सहन बहुत ही साधारण था, लेकिन समाज का हर तबका मिल जुलकर रहता था। हर बिरादरी के अपने-अपने मोहल्लों के घरों के साथ दो व्यक्ति जुड़े रहते-एक नाई और दूसरा ब्राह्मण। पंडित जी का आगमन तो शादी-ब्याह, जन्म-मरण पर रस्मों की अदायगी के निमित्त होता, पर घर के नाई की स्थिति बड़ी दिलचस्प थी। वह घर का भेदिया, खबरी, केश-कर्तक और पंडित जी की तरह हर रस्म से सम्बद्ध- ‘ऑल इन वन’ लगभग संस्थायत किसी-न-किसी बहाने अपनी उपस्थिति दर्ज किए रहता।
शादियों के निमन्त्रण-पत्र तब नहीं छपते थे। शहर के बाहर चिट्ठी-पत्री से और शहर के भीतर ‘नाई’ नामक संचार माध्यम से खबर घर-घर पहुंचाई जाती।
लड़के की बारात का निमन्त्रण देने वह डलिया में सुपारियां लेकर निकलता। आमन्त्रण पूरे घर को, पर आमन्त्रित व्यक्ति परिवार से अपने व्यवहार के हिसाब से गिनती की सुपारियां उठाकर अपने घर से शरीक होनेवालों की संख्या का संकेत कर देता। बारातियों की संख्या तय करने का यह उस जमाने का अपना तरीका था। स्त्रियां बारात में नहीं जाती थीं। उनकी भूमिका बहू के घर आने पर आरम्भ होती थी।
मौत की खबर भी निकट सम्बन्धियों को छोड़कर घर-घर नहीं पहुंचाई जाती थी। उस अवसर पर भी नाई की भूमिका केन्द्रीय रहती थी। पहली खबर उसे ही मिलती और फिर वह कन्धे पर अंगोछा डालकर निकलता। हर चौरस्ते के मुहाने पर, या मकानों की सघनता जहां ज़्यादा हो, वहां खड़ा होकर वह बुलन्द आवाज में मरनेवाले के बाप-दादा के हवाले से घोषणा आरम्भ करता।
मरनेवाले का जिक्र सिर्फ नाम से नहीं, ‘अमुक’ का बेटा-बेटी, बहू जैसे रिश्ते से करते हुए अन्त में आवाज़ खींचकर आलापी ढंग से खबर देता-काऽऽल कर गए हैं SSSS। शास्त्रीय राग की तरह इस घोषणा की लय-ताल-सुर सब निश्चित थे। सुर उठाते ही घरों में सन्नाटा छा जाता। सारे कान उसी दिशा में एकाग्र हो जाते। कोई बुजुर्ग बड़बड़ाता-अरे…कोई गया। और मालिक या मालकिन किसी नौकर को मुकाम की तरफ दौड़ा देते-तफसील जानने के लिए।
आसपास के घरों की खिड़कियों से तत्काल चेहरे झांकने लगते। जानेवाले के बारे में वस्तुस्थिति यानी उम्र, हैसियत, परिवार, मृत्यु के कारण के हिसाब से टीका-टिप्पणी के साथ-साथ मुर्दनी में शामिल होने की तैयारी शुरू हो जाती। खुशी हो या गम, हर घटना के साथ ऐसी आनुष्ठानिकता जुड़ी रहती जिसका निर्वाह बड़े धैर्य और भागीदारी के भाव से किया जाता था। कहना न होगा, मौत के बाद की रस्में भी बड़ी तफ़सील से सम्पन्न की जातीं-उठावनी, तेरहवीं और चालीस दिन तक शोक मनाना।