Old Delhi History: दिल्ली में रहते हैं भारत के सभी प्रांत, इलाकों के लोग

Old Delhi History:

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली

Old Delhi History: दिल्ली की बोली बहुत ही लजीज है। किसी स्वादिष्ट व्यंजन की भांति। जबान का अन्तर पेशों के हिसाब से भी साफ दिखाई पड़ता था। कोर्ट- कचहरी की, दुकानदारी की, सरकारी दफ्तरों की, शिक्षा-संस्थानों की, शब्द-सम्पदा, वाक्य-संरचना के अन्तर से खड़ी बोली के न जाने कितने रूप प्रचलित थे। पर यह अन्तर ‘कुरु कुरु स्वाहा’ के पात्रों में दिखाई पड़नेवाला अन्तर नहीं था, जहां बम्बइया हिन्दी पर मराठी, गुजराती, सिन्धी जैसी तमाम भाषाओं की छाप से भाषा के रंग ही अलग हो जाते हैं। यहां एक ही खड़ी बोली तरह-तरह के रूपों में नज़र आती थी।

करखनदारी

दिल्ली की खड़ी बोली का एक दिलचस्प रूप ‘करखनदारी’ था। इस रूप पर कई शोध-प्रबन्ध लिखे जा चुके हैं। वाक्य के आगे-पीछे ‘अबे-तबे’ या मां-बहन से जुड़ी गालियों के बन्द कुछ ऐसे लगे रहते थे जैसे शहर के मनिहार महिलाओं को चूड़ियां पहनाते समय आगे-पीछे दो अतिरिक्त चूड़ियां लगा देते थे।

ये ‘बन्द’ बाकी चूड़ियों से मेल भले ही नहीं खाएं पर उनके बिना जैसे चूड़ियां फबती नहीं थीं। यह करखनदारी भाषा प्रायः तांगे- रेहड़ेवालों की जबान पर और जामा मस्जिद के आसपास के इलाकों में इफरात से, बेधड़क प्रयोग में लाई जाती थी। लगातार दोहराव से भाषा कैसे निरर्थक हो जाती है, इसका बेहतरीन नमूना थी यह जबान। गालियों से अलंकृत इस भाषा पर न कोई रोक-टोक थी, न ही चौंकाने जैसी कोई बात ।

व्यापारिक कारणों से हिन्दू-मुसलमान जनता के बीच खासी आपसदारी थी। अधिकांश व्यापारिक ठिकानों के मालिक हिन्दू, पर शिल्पी और कारीगर ज़्यादातर मुसलमान । काम जेवरात बनाने का हो, कपड़ों पर कशीदाकारी का, या हाथी दाँत और बर्तनों पर कारीगरी का अधिकांश हुनर मुसलमानों के हाथों में थे। इसलिए परस्पर निर्भरता भी मेलजोल का महत्त्वपूर्ण कारण थी। पर रिहाइशी मोहल्लों का बँटवारा एकदम साफ़ था।

पहली बार प्रयोग

करखनदारी जुबान का अगर सबसे पहले प्रयोग की बात करें तो इसका सामाजिक-भाषाई विश्लेषण वरिष्ठ उर्दू विद्वान गोपी चंद नारंग ने 1961 में किया था। उन्होंने अंदाजा लगाया कि चांदनी चौक, फैज बाजार, आसफ अली रोड और लाहौरी गेट से घिरे इस इलाके में करीब 50,000 लोग यह बोली बोलते हैं।

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