आत्मकथा—“तुम्हारी औक़ात क्या है पीयूष मिश्रा”

भला कौन दर्द सहता जाता है…दिल पर पत्थर रखके कौन जीता है….जवाब में ‘हैमलेट’ कहा जा सकता है।

काला कोट पहने हैमलेट मंडी हाउस गोलचक्कर पर बैठा रहता है। मथुरा रोड, इंडिया गेट को पैरों से नापता है। उसकी जिंदगी इस कश्मकश में गुजरती है कि वो दिल्ली नहीं छोड़ेगा ? क्या कमी है दिल्ली में ? मंडी हाउस, मथुरा रोड, आईटीओ चौक, बंगाली मार्केट, एनएसडी और भोगल उसकी जिंदगी में कुछ इस तरह जुड़े हैं कि इनके बिना उसकी जिंदगी अधूरी हैं। इनसे जुड़े प्रसंग ही उसे हैमलेट बनाते हैं। यह लाजमी भी है क्यों कि…..यही सब तो उसके राज्य है। हैमलेट बाहर से चाहे जैसा भी हो लेकिन अंदर से कई बार डरा, सहमा और परेशान दिखता है। आंखों से आंसूं भी नहीं निकलते। पाठकों को विचलित करने वाली कई घटनाओं में भी वो आंखों को केवल पोंछकर निकल जाता है….आत्मकथा पढते हुए अक्सर लगता है कि काश हैमलेट अपनी कोट उतारकर रख देता। संताप बनकर रो लेता……

राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के दिनों में वहां के सहपाठी, सीनियरों और जूनियरों का रोचक वर्णन, रॉबर्ट डी नीरों से परिचय, बहावलपुर हाउस, अलका चाय वाली, बंगाली मार्केट का नत्थू स्वीट्स, बिरजू महाराज के कथक केंद्र की लड़कियां, प्रसिद्ध निर्देशकों- इब्राहिम अल्काजी, बी वी कांरत, राम गोपाल बजाज, देवेंद्र राज अंकुर, कीर्ति जैन और मोहन महर्षि का काम करने का तरीका सब कुछ हैमलेट ने बड़े दिलचस्प, बेबाकी और ईमानदारी से अपनी आत्मकथा में लिखा है। आत्मकथा में हम एक ऐसे बच्चे से रूबरू होते हैं जो परिवार के बीच खुद के बेगाने होने की छटपटाहट से भरा हुआ है। मां-बाप हैं लेकिन उसे गोद लिया है तानाशाह प्रवृत्ति की जिद्दा (बुआ) ने जिनकी बात-बात पर गुर्राने की आदत से घर में स्थायी स्यापा छाया रहता है। घर में मां है जो रसोई से बाहर शायद ही कभी दिखती हैं, रोज की नौकरी में खट पूरे परिवार का बोझ उठाये पिता प्रभाष शर्मा हैं जो बेटे की कई बार बेरहम पिटाई करने के बाद उससे पिता की बजाय ‘सर’ का संबोधन पा जाते हैं। बच्चा संताप यौन उत्पीडन का भी शिकार होता है। मुंबई में संघर्ष के दिनों की कहानियां दिल को द्रवित कर देती हैं। फुटपाथ पर जिंदा लाश के साथ सोने की घटना झकझोंर कर रख देने वाली है। और भी कई बातें हैं लेकिन…………………

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