श्रीगणपतिस्तोत्रम् का महत्व
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
श्रीगणपतिस्तोत्रम् हिंदू धर्म के सबसे प्रभावशाली और श्रद्धेय स्तोत्रों में से एक है। यह स्तोत्र भगवान गणेश की महिमा का वर्णन करता है और भक्तों के समस्त विघ्नों का नाश करता है। इस स्तोत्र के पाठ से सुख, शांति, समृद्धि और सिद्धियों की प्राप्ति होती है।
श्रीगणपतिस्तोत्रम् का प्रभाव
- विघ्नों का नाश – इस स्तोत्र के पाठ से जीवन के समस्त विघ्न समाप्त होते हैं।
- सौभाग्य की प्राप्ति – यह स्तोत्र सौभाग्य और समृद्धि का कारक है।
- सिद्धि व विद्या की प्राप्ति – विद्यार्थी एवं साधक इसे पढ़कर बुद्धि, ज्ञान और सिद्धि प्राप्त कर सकते हैं।
- मन की शांति – यह स्तोत्र मानसिक शांति और आत्मबल प्रदान करता है।
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श्रीगणपतिस्तोत्रम् पाठ करने की विधि
- प्रातः स्नान के बाद स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
- एक शुद्ध स्थान पर बैठकर भगवान गणेश की प्रतिमा के समक्ष घी का दीपक जलाएं।
- श्रीगणपतिस्तोत्रम् का पाठ श्रद्धा और भक्ति भाव से करें।
- पाठ के उपरांत मोदक या दूर्वा अर्पण करें।
श्रीगणपतिस्तोत्रम् के श्लोक और उनका अर्थ
श्लोक:
जेतुं यस्त्रिपुरं हरेण हरिणा व्याजाद्बलिं बध्नता
स्रष्टुं वारिभवोद्भवेन भुवनं शेषेण धर्तुं धराम्।
पार्वत्या महिषासुरप्रमथने सिद्धाधिपैः सिद्धये
ध्यातः पञ्चशरेण विश्वजितये पायात्स नागाननः ॥ 1 ॥
अर्थ:
त्रिपुरासुरको जीतनेके लिये शिवने, बलिको छलसे बाँधते समय विष्णुने, जगत्को रचनेके लिये ब्रह्माने, पृथ्वी धारण करनेके लिये शेषनागने, महिषासुरको मारनेके समय पार्वतीने, सिद्धि पानेके लिये सिद्धोंके अधिपतियों (सनकादि ऋषियों) ने और सब संसारको जीतनेके लिये कामदेवने जिन गणेशजीका ध्यान किया है, वे हमलोगोंका पालन करें ॥ 1॥
2
श्लोक:
विघ्नध्वान्तनिवारणैकतरणिर्विघ्नाटवीहव्यवाड्
विघ्नव्यालकुलाभिमानगरुडो विघ्नेभपञ्चाननः ।
विघ्नोत्तुङ्ग गिरिप्रभेदनपविर्विघ्नाम्बुधेर्वाडवो
विघ्नाघौघघनप्रचण्डपवनो विघ्नेश्वरः पातु नः ॥ 2 ॥
अर्थ:
विघ्नरूप अन्धकारका नाश करनेवाले एकमात्र सूर्य, विघ्नरूप वनको जलानेवाले अग्नि, विघ्नरूप सर्पकुलका दर्प नष्ट करनेके लिये गरुड़, विघ्नरूप हाथीको मारनेवाले सिंह, विघ्नरूप ऊँचे पहाड़को तोड़नेवाले वज्र, विघ्नरूप महासागरके वडवानल, विघ्नरूपी मेघ-समूहको उड़ा देनेवाले प्रचण्ड वायुसदृश गणेशजी हमलोगोंका पालन करें ॥ 2 ॥
3
खर्वं स्थूलतनुं गजेन्द्रवदनं लम्बोदरं सुन्दरं
प्रस्यन्दन्मदगन्धलुब्धमधुपव्यालोलगण्डस्थलम्।
दन्ताघातविदारितारिरुधिरैः सिन्दूरशोभाकरं
वन्दे शैलसुतासुतं गणपतिं सिद्धिप्रदं कामदम् ॥ 3॥
जो नाटे और मोटे शरीरवाले हैं, जिनका गजराजके समान मुँह और लम्बा उदर है, जो सुन्दर हैं तथा बहते हुए मदकी सुगन्धके लोभी भौरोंके चाटनेसे जिनका गण्डस्थल चपल हो रहा है, दाँतोंकी चोटसे विदीर्ण हुए शत्रुओंके रक्तसे जो सिन्दूरकी-सी शोभा धारण करते हैं, कामनाओंके दाता और सिद्धि देनेवाले उन पार्वतीके पुत्र गणेशजीकी मैं वन्दना करता हूं ॥ 3॥
4
गजाननाय महसे प्रत्यूहतिमिरच्छिदे।
अपारकरुणापूरतरङ्गितदृशे नम:।। 4।।
विघ्नरूप अन्धकारका नाश करनेवाले, अथाह करुणारूप जलराशिसे तरंगित नेत्रोंवाले गणेश नामक ज्योतिपुंजको नमस्कार है ॥४॥
5
अगजाननपद्मार्कं गजाननमहर्निशम् ।
अनेकदन्तं भक्तानामेकदन्तमुपास्महे ॥ 5 ॥
जो पार्वतीके मुखरूप कमलको प्रकाशित करनेमें सूर्यरूप हैं, जो भक्तोंको अनेक प्रकारके फल देते हैं, उन एक दाँतवाले गणेशजीकी मैं सदैव उपासना करता हूँ ॥5॥
6
श्वेताङ्गं श्वेतवस्त्रं सितकुसुमगणैः पूजितं श्वेतगन्धैः
क्षीराब्धौ रत्नदीपैः सुरनरतिलकं रत्नसिंहासनस्थम्।
दोर्भिः पाशाङ्कुशाब्जाभयवरमनसं चन्द्रमौलिं त्रिनेत्रं
ध्यायेच्छान्त्यर्थमीशं गणपतिममलं श्रीसमेतं प्रसन्नम् ॥ 6॥
जिनका शरीर श्वेत है, वस्त्र श्वेत हैं, श्वेत फूल, चन्दन और रत्नदीपोंसे क्षीरसमुद्रके तटपर जिनकी पूजा हुई है; देवता और मनुष्य जिनको अपना प्रधान पूज्य समझते हैं, जो रत्नके सिंहासनपर बैठे हैं, जिनके हाथोंमें पाश (एक प्रकारकी डोरी), अकुंश और कमलके फूल हैं, जो अभयदान और वरदान देनेवाले हैं, जिनके मस्तकपर चन्द्रमा रहते हैं और जिनके तीन नेत्र हैं; निर्मल लक्ष्मीके साथ विराजमान प्रसन्नप्रभु गणेशजीका शान्तिके लिये ध्यान करे ॥ 6॥
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7
आवाहये तं गणराजदेवं रक्तोत्पलाभासमशेषवन्द्यम्।
विघ्नान्तकं विघ्नहरं गणेशं भजामि रौद्रं सहितं च सिद्धया ॥ 7 ॥
जो देवताओंके गणके राजा हैं, लाल कमलके समान जिनके देहकी आभा है, जो सबके वन्दनीय हैं, विघ्नके काल हैं, विघ्नोंको हरनेवाले हैं, शिवजीके पुत्र हैं; उन गणेशजीका मैं सिद्धिके साथ आवाहन और भजन करता हूँ ॥७॥
8
यं ब्रह्म वेदान्तविदो वदन्ति परं प्रधानं पुरुषं तथान्ये।
विश्वोद्गतेः कारणमीश्वरं वा तस्मै नमो विघ्नविनाशनाय ॥ 8 ॥
जिनको वेदान्ती लोग ब्रह्म कहते हैं और दूसरे लोग परम प्रधान पुरुष अथवा संसारकी सृष्टिके कारण या ईश्वर कहते हैं; उन विघ्नविनाशक गणेशजीको नमस्कार है ॥ 8 ॥
9
विघ्नेश वीर्याणि विचित्रकाणि वन्दीजनैर्मागधकैः स्मृतानि ।
श्रुत्वा समुत्तिष्ठ गजानन त्वं ब्राह्मे जगन्मङ्गलकं कुरुष्व ॥ ९ ॥
हे विघ्नेश ! हे गजानन! आप मागध और वन्दीजनोंके मुखसे गाये जाते हुए अपने विचित्र पराक्रमोंको सुनकर ब्राह्ममुहूर्तमें उठें और जगत्का कल्याण करें ॥ 9 ॥
10
गणेश हेरम्ब गजाननेति महोदर स्वानुभवप्रकाशिन् । वरिष्ठ सिद्धिप्रिय बुद्धिनाथ वदन्त एवं त्यजत प्रभीतीः ॥ 10 ॥
‘हे गणेश! हे हेरम्ब! हे गजानन ! हे लम्बोदर ! हे आत्मानुभवसे प्रकाशित होनेवाले! हे श्रेष्ठ ! हे सिद्धिके प्रियतम! हे बुद्धिनाथ!’ ऐसा कहते हुए (हे भक्तो!) अपना भय छोड़ दो ॥ 10 ॥
11
अनेकविघ्नान्तक वक्रतुण्ड स्वसंज्ञवासिंश्च चतुर्भुजेति ।
कवीश देवान्तकनाशकारिन् वदन्त एवं त्यजत प्रभीतीः ॥ 11॥
‘हे अनेक विघ्नोंका नाश करनेवाले ! हे वक्रतुण्ड ! गणेश आदि अपने विभिन्न नामोंमें निवास करनेवाले ! हे चतुर्भुज ! हे कवियोंके नाथ! हे दैत्योंका नाश करनेवाले!’ ऐसा कहते हुए (हे भक्तो!) अपने भयको भगा दो ॥ 11॥
12
अनन्तचिद्रूपमयं गणेशं ह्यभेदभेदादिविहीनमाद्यम्।
हृदि प्रकाशस्य धरं स्वधीस्थं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ १२॥
जो गणेश अनन्त हैं, चेतनरूप हैं, अभेद और भेद आदिसे रहित और सृष्टिके आदिकारण हैं, अपने हृदयमें जो सदा प्रकाश धारण करते हैं तथा अपनी ही बुद्धिमें स्थित रहते हैं; उन एकदन्त गणेशजीकी शरणमें हम जाते हैं ॥ 12 ॥
13
विश्वादिभूतं हृदि योगिनां वै प्रत्यक्षरूपेण विभान्तमेकम्।
सदा निरालम्बसमाधिगम्यं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ 13॥
जो संसारके आदिकारण हैं, योगियोंके हृदयमें अद्वितीय रूपसे साक्षात् प्रकाशित होते हैं और निरालम्ब समाधिके द्वारा ही जाननेयोग्य हैं, उन एकदन्त गणेशकी शरणमें हम जाते हैं ॥ 13 ॥
14
यदीयवीर्येण समर्थभूता माया तया संरचितं च विश्वम्।
नागात्मकं ह्यात्मतया प्रतीतं तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ 14॥
जिनके बलसे माया समर्थ हुई है और उसके द्वारा यह संसार रचा गया है, उन नागस्वरूप तथा आत्मारूपसे प्रतीत होनेवाले एकदन्त गणेशजीकी शरणमें हम जाते हैं ॥ 14 ॥
15
सर्वान्तरे संस्थितमेकगूढं यदाज्ञया सर्वमिदं विभाति।
अनन्तरूपं हृदि बोधकं वै तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ 15 ॥
जो सब लोगोंके अन्तःकरणमें अकेले गूढ़भावसे स्थित रहते हैं, जिनकी आज्ञासे यह जगत् प्रकाशित होता है, जो अनन्तरूप हैं और हृदयमें ज्ञान देनेवाले हैं; उन एकदन्त गणेशकी शरणमें हम जाते हैं ॥ 15 ॥
16
यं योगिनो योगबलेन साध्यं कुर्वन्ति तं कः स्तवनेन नौति।
अतः प्रणामेन सुसिद्धिदोऽस्तु तमेकदन्तं शरणं व्रजामः ॥ 16॥
जिनको योगीजन योगबलसे साध्य करते (जान पाते) हैं, स्तुतिसे उनका वर्णन कौन कर सकता है? इसलिये हम उनको केवल प्रणाम करते हैं कि वे हमें सिद्धि दें; उन भगवान् एकदन्तकी शरणमें हम जाते हैं ॥ 16 ॥
17
देवेन्द्रमौलिमन्दारमकरन्दकणारुणाः
विघ्नान् हरन्तु हेरम्बचरणाम्बुजरेणवः ॥ 17 ॥
जो इन्द्रके मुकुटमें गुँथे हुए मन्दारपुष्पोंके मकरन्दकणोंसे लाल हो
रही है, वह गणेशजीके चरणकमलोंकी रज विघ्नोंका हरण करे ॥ 17 ॥
18
एकदन्तं महाकायं लम्बोदरगजाननम्।
विघ्ननाशकरं देवं हेरम्बं प्रणमाम्यहम् ॥ 18 ॥
एक दाँतवाले, बड़े शरीरवाले, स्थूल उदरवाले, हाथीके समान मुखवाले और विघ्नोंका नाश करनेवाले गणेशदेवको मैं प्रणाम करता हूँ ॥ 18 ॥
19
यदक्षरं पदं भ्रष्टं मात्राहीनं च यद्भवेत्।
तत्सर्वं क्षम्यतां देव प्रसीद परमेश्वर ॥ 19 ॥
हे देव! जो अक्षर, पद अथवा मात्रा छूट गयी हो, उसके लिये क्षमा करो और हे परमेश्वर! प्रसन्न होओ ॥ 19 ॥
॥ इति श्रीगणपतिस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥
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