ब्रितानिया हुकूमत द्वारा भेंट की गई बग्गी को जहांगीर ने राजकुमारी को किया भेंट, यह थी खासियत

बैल सिर्फ़ देहात में ही यातायात के लिए सबसे अधिक काम में आने वाला जानवर नहीं था बल्कि शहरों में भी उसे अकसर सामान ढोने और आने-जाने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। बैल को घोड़े के तौर पर भी इस्तेमाल करने का रिवाज था यानी आदमी उसकी पीठ पर सवार होकर चलता था। प्रसिद्ध इतिहासकार ओविंग्टन ने लिखा है- “यहाँ के लोग बैल पर घोड़े की तरह सवारी करते हैं। काठी की बजाए बैल की पीठ पर एक नर्म गद्दी रख लेते हैं और अपने हाथ में नकेल की वे रस्सियाँ थामे रखते हैं जो बैल के नथुनों में पड़ी रहती हैं।

अगर बैलों को बीच-पच्चीस कोस तक ले जाना होता तो उसके पैरों में घोड़ों की तरह नाल भी लगा देते थे।” बैलगाड़ी में दस-पन्द्रह आदमी आराम से बैठ जाते थे। बैल को गाड़ी में जोतने से पहले उसकी गर्दन के गिर्द एक मोटी तह वाला कपड़ा बाँध देते थे और उसके जरा ऊपर चमड़े की एक पट्टी डाल देते थे।

दिल्ली में मेलों और त्यौहारों के मौके पर लोग बैलगाड़ियों में भर-भरकर आते-जाते थे। कई बैलगाड़ियों में दो बल्कि तीन-तीन बैल जुते होते थे और ये बैलगाड़ियाँ एक दिन में आसानी से बीस मील का सफ़र तय कर लेती थीं। बैलों के अलावा दिल्ली और उसके आस-पास के इलाक़ों में लोग घोड़े, छोटे पहाड़ी घोड़े, खच्चर और गधे की पीठ पर बैठकर भी यात्रा करते थे। रथ का रिवाज जो एक खुशनुमा बैलगाड़ी होती थी, इस फर्क के साथ कि उसमें घोड़े भी जोड़े जाते थे, दिल्ली में नहीं था। मगर कई मुग़ल बादशाहों को रथों और बग्घियों का शौक था। अकबर दो घोड़ों के रथ में जाना पसंद करता था जिसमें एक मख़मली गलेकाउच पर वह आलथी-पालथी मारकर बैठ जाता था।

ईस्ट इंडिया कंपनी ने जहांगीर को जो उपहार भेजे थे उनमें एक अंग्रेजी बग्गी भी थी जिसने तमाम दरबार में एक सनसनी-सी फैला दी थी और जिसे स्थानीय कारीगरों ने एक नमूने के तौर पर इस्तेमाल किया था। जहाँगीर ने उस बग्धी को मलिका नूरजहाँ को उपहारस्वरूप पेश किया था। उसकी गद्दियों के अंग्रेज़ी कपड़े को उतारकर उसमें सोने और मखमल का काम किया गया और सारी बग्घी को पूर्वी शैली से सजाया गया।

हिन्दुस्तान में बादशाहों, राजाओं और अमीरों के लिए अंग्रेजी ढंग की बभी का इस्तेमाल उसके बाद ही शुरू हुआ। दिल्ली में कई नवाबों और रईसों के पास अंग्रेजी दौर में इस किस्म की बग्घियां थीं और ऐसी बग्घियों को अमीरों और शान-शौकत की निशानी समझा जाता था। इस तरह की बग्घियों को दो या चार घोड़े खींचते थे और पीछे पायदान पर एक चोबदार खड़ा रहता था।

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