इंडियन एक्सप्रेस-टाइम्स ऑफ इंडिया के कार्यालय के बाहर सैकड़ों की लगती थी भीड़
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
देश में राजनीतिक दृष्टि से बहुत हलचल थी, जिसकी धमक सबसे ज़्यादा दिल्ली में महसूस होती थी। जयप्रकाश नारायण के ‘सम्पूर्ण क्रान्ति’ का नारा देने के बाद से स्थितियाँ वैसी ही नहीं रह गई थीं। स्वतन्त्रता के बाद इतना लम्बा समय बीत जाने पर भी इससे पहले राजनीति में कांग्रेस के विकल्प की बात जैसे सोचने की ज़रूरत ही नहीं महसूस होती थी। चीन और पाकिस्तान से युद्धों के बाद भी बांग्ला देश के सन्दर्भ में सरकार ने जिस सूझ-बूझ और साहस से स्थिति पर काबू किया था, वह जनता का विश्वास अर्जित करने के लिए काफ़ी था। राजनीतिक सत्ता के निरंकुश रूप का साक्षात् जनता ने पहली बार आपात्काल में ही किया था।
विडम्बना यह थी कि जिन ज़्यादतियों से जनता त्रस्त थी, उन पर पर्दा डालकर राजनीतिक पिट्ठुओं ने इन्दिरा गांधी को सतही अमन व्यवस्था का बखान करके इतना आश्वस्त कर दिया कि उन्होंने अपने शासनकाल की दूसरी बड़ी प्रशासनिक भूल की।
18 जनवरी, 1977 को उन्होंने बड़े नाटकीय और आकस्मिक ढंग से ब्राडकास्ट करके सूचना दी कि उन्होंने राष्ट्रपति से लोकसभा भंग करके चुनाव घोषित करने की सिफारिश कर दी है। राजनीति में कुछ बदलाव के आसार पहले से दिखाई देने लगे थे।
6 जनवरी को लोकसभा में जनसंघ के सांसद कँवरलाल गुप्ता को और 12 जनवरी को राज्यसभा सदस्य चन्द्रशेखर और लोकसभा सदस्य मोहन धारिया को रिहा कर दिया गया था। अपनी सम्भावित जीत के बारे में इन्दिरा गांधी कितनी आश्वस्त थीं, इसका प्रमाण 20 जनवरी को सामने आया जब केन्द्रीय सरकार ने आपात्कालीन प्रतिवन्धों से भारी राहत देते हुए स्वतन्त्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए वैध राजनीतिक क्रियाकलाप के लिए छूट दे दी। सबसे बड़ी बात यह थी कि प्रेस भी सेंसरशिप से मुक्त हो गया।
इस पूरे घटनाचक्र का शहर की मानसिकता पर यह प्रभाव पड़ा कि पूरी आबादी राजनीतिक गतिविधियों को लेकर बेहद सजग-सचेत और चौकन्नी हो गई। सबके आँख-कान खबरों पर लगे रहने लगे। मित्र-मंडली में चर्चा का विषय या राजनीति हो गई थी या फिर आपात्काल के दौरान रचनाकारों की भूमिका और व्यवहार।
कुल मिलाकर वातावरण में तनावपूर्ण सहजता व्याप गई थी। सारे अनुशासन और व्यवस्था के बावजूद ज़्यादतियों और राजनीति में अवांछित गुंडा तत्त्व के प्रवेश के कारण भीतरी आक्रोश पनप रहा था। इसी कारण जनता पार्टी के नाम पर विरोधियों के बीच गठबन्धन सम्भव हुआ। विरोधी नेता क्रमशः जेल से रिहा हुए। चुनाव हुआ और उस दशक की सबसे सनसनीखेज़ घटना घटित हुई।
20 मार्च को जब इन्दिरा गांधी रायबरेली क्षेत्र से लोकदल के नेता राजनारायण से चुनाव हारीं तो इस ख़बर पर उनके समर्थकों और विरोधियों दोनों को विश्वास नहीं हुआ। अपनी पुस्तक दिल्ली शहर दर शहर में निर्मला जैन लिखती हैं कि शाम का समय था। मित्र-मंडली मेरे माल रोड स्थित घर में जमी थी। सब अपने-अपने सम्पर्कों से समाचार की पुष्टि कर रहे थे। किसी ने खबर दी कि कांग्रेस के प्रतिनिधि वोटों की दुबारा गिनती पर इसरार कर रहे हैं। तभी एक दूसरे स्रोत से खबर मिली कि राजनारायण बड़े इत्मीनान से बैठे चने फांक रहे हैं और टिप्पणी करते जा रहे हैं कि चाहे जितनी बार वोटों की गिनती करा ली जाए, नतीजा बदलनेवाला नहीं है।
अपनी आदत से मजबूर हम निशाचरी वृत्ति के लोगों का कान से सुनी-सुनाई ख़बरों से सन्तोष नहीं हुआ। रात के साढ़े ग्यारह बजे गाड़ी उठाकर हमारी टोली नगर-भ्रमण के लिए निकल पड़ी। उस समय शहर में ट्रैफिक जाम कोई बड़ा मसला नहीं था। गाड़ियों की संख्या में बेतहाशा बढ़ोतरी नहीं हुई थी।
गाड़ी बहादुरशाह ज़फर मार्ग पर पहुँच तो गई पर वहाँ टाइम्स और इंडियन एक्सप्रेस के दफ्तरों के बाहर लोगों का सैलाब उमड़ रहा था। बड़े अक्षरों में चुनाव परिणाम चमचमा रहा था। राजनीतिक माहौल में जिस तरह की अश्लील और फूहड़ ढंग की प्रदर्शनप्रियता का सिलसिला बाद में बढ़ता गया है, उसका नामोनिशान नहीं था।
एक कारण शायद यह भी था कि उस सच्चाई को सामने पाकर भी जनता को जैसे आँखों पर भरोसा नहीं हो रहा था। भीड़ में प्रतिक्रिया मिली-जुली थी। विरोधी आश्चर्यमिश्रित उल्लास से उत्साहित थे, पर वाचाल नहीं। और समर्थक हैरत-भरे अवसाद से अवसन्न थे।
दबी ज़बान से वोट-गणना के दूसरे दौर का हवाला देते हुए, नाउम्मीदी में भी झूठा दिलासा लेते-देते हुए। आम आदमी आपात्कालीन अनुशासन से प्रसन्न पर राजनीतिक अराजकता से हैरान-परेशान, असमंजस की स्थिति में था। चुनाव-प्रक्रिया आरम्भ होने से पहले आपास्थिति में जो ढील और रियायतें दे दी गई थीं, उनसे भीतरी आक्रोश और आतंक बहुत कम हो गया था और खामियों के बरक्स खूबियाँ भी दिखाई पड़ने लगी थीं।
पर एक बात पर सबमें सहमति थी। राजनीतिक और प्रशासनिक ढाँचे में जिन अवांछित तत्त्वों का प्रवेश और वर्चस्व हो गया था, शहर की जनता उससे मुक्त होने की सम्भावना से राहत महसूस कर रही थी। गोकि सच्चाई यह है कि उस दौर में राजनीति की दुनिया में जो अवांछनीयता प्रवेश कर गई, उसने व्यक्तियों से परे प्रवृत्ति के रूप में जो मॉडल बनाया, वह आज तक कायम है।
गठजोड़ पहली बार कांग्रेस के खिलाफ चार पार्टियों के बीच हुआ, जनता दल के रूप में। कांग्रेस में विभाजन तो पहले ही हो चुका था। पर इसके बाद सभी पार्टियों में तरह-तरह के विनियोजन-संयोजन होने लगे, जिनमें विचारधारात्मक मतभेद नहीं, सत्ता के लिए दलबन्दी और छीना-झपटी प्रमुख थी।
बहरहाल, इस सबके बीच देश की जनता के लिए, सत्ता छोड़ने से पहले इन्दिरा गांधी ने एक यादगार भाषण दिया। मायूसी और पश्चात्ताप की छाया के बावजूद उनके चेहरे पर जो शालीनता, स्वर में जो दृढ़ता, और कथ्य में जो गरिमा थी, वह उसके बाद विरल हो गई।
24 मार्च को 81 वर्ष की आयु में मोरारजी देसाई ने प्रधानमन्त्री का पद सँभाला। कांग्रेस विरोधी लहर के नतीजे सामने आने लगे। जून में दिल्ली समेत सात राज्यों में जनता दल भारी बहुमत से विजयी हुआ। बाकी राज्यों में भी कांग्रेस की कोई हैसियत नहीं रही।