यह करोलबाग जाते हुए बाएं हाथ पहाड़ी पर पड़ता है। इसमें बूअली खो भट्टी रहते थे, जिन्हें लोग भूली भटियारी कहने लगे थे इमारत एक बंध के किनारे बनी हुई है। यह 518 फुट लंबी, 17 फुट चौड़ी और 22 फुट ऊंची है। इसके बनने का काल 1354 ई. माना जाता है। इसमें संगखारा की कई कोठरियां बनी हुई हैं।
फीरोज शाह की मृत्यु के पश्चात उसके बेटे और पोतों में गद्दी के लिए बड़ी खींचातानी रही। गयासुद्दीन तुगलक सानी, अबूबकर नासिरुद्दीन मोहम्मद शाह सबके सब बड़े कमजोर निकले। किसी में भी राज्य को चलाने की योग्यता न थी और न कोई अधिक समय टिक सका। आए दिन की आपसी लड़ाइयों का परिणाम यह हुआ कि. हिंदुस्तान के पुराने दुश्मन तैमूर ने, जो मुद्दतों से इस देश को विजय करने की चिंता में लगा हुआ था, 1398 ई. में दिल्ली पर हमला कर दिया।
ये मुगल पहले तो लूटमार करके चले जाया करते थे, मगर इस बार तैमूर एक बड़ी बाकायदा फौज लेकर आया। चूंकि यह लंगड़ाकर चलता था इसलिए इसका नाम तैमूर लंग पड़ा। इस वक्त इसकी आयु साठ वर्ष की थी। यह अपनी बेशुमार फौज लेकर पहले अफगानिस्तान से पंजाब में दाखिल हुआ और फिर लूट-खसोट मचाता दिल्ली के करीब पानीपत तक पहुंचा।
इसने पानीपत से जरा नीचे हटकर संभवत: बागपत के करीब यमुना को पार करके लोनी के किले पर कब्जा कर लिया, जो फीरोजाबाद के सामने की तरफ पड़ता था और नदी के किनारे अपना कैंप डाल दिया। फिर चंद सवारों को लेकर वजीराबाद के पास से दरिया पार किया और कुरके शिकार तक का चक्कर लगाकर देखभाल करके वापस लौट गया। फिर, जहां अब मैटकाफ हाउस है, उसने उस जगह कहीं अपना पड़ाव डाल दिया।
इस वक्त अमीर के पास एक लाख हिंदू कैदी थे, जिन्हें वह रास्ते में पकड़कर लाया था। कैदियों को उम्मीद थी कि शायद लड़ाई में अमीर की हार हो और वे छूट जाएं, मगर तैमूर जब लड़ाई की तैयारी में लगा तो उसने इस ख्याल से कि कहीं कैदी दुश्मन से न मिल जाएं, इन सबको कत्ल करवा डाला।
पहले पंद्रह वर्ष से ऊपर के कत्ल किए गए, बाद में बाकी बचे हुए भी। इस कत्ल की खबर से दिल्ली वाले थर्रा उठे। बादशाह फसीलों के अंदर दुबक गया। तैमूर का लश्कर यमुना के इस पार पड़ा हुआ था। उसने कैंप के चारों ओर खंदक खुदवाकर मोर्चाबंदी करवाई और सामने भैंसों की एक लंबी कतार बंधवाकर खड़ी करवा दी। इधर बादशाह भी बारह हजार सवार और चालीस हजार पैदल और आगे-आगे हाथियों की कतार को लेकर निकला।
लड़ाई में बादशाह की पराजय हुई। तातारियों ने भगोड़े लश्कर का पुरानी दिल्ली (पृथ्वीराज की) के दरवाजों तक पीछा किया, जो उस वक्त रात को बिल्कुल खाली पड़ी रहती थी। मोहम्मद तुगलक हारकर गुजरात की ओर भाग गया। अमीर तैमूर ने अपनी बादशाहत की घोषणा कर दी और यहां के बाशिंदों से एक बहुत बड़ी रकम तावान की शक्ल में मांगी। इनकार करने पर कत्लेआम शुरू हो गया, जो पांच दिन तक जारी रहा। इस कदर इंसान मारे गए कि गलियों में चलने का रास्ता न रहा। घरों को न सिर्फ लूटा जाता था, बल्कि जला भी दिया जाता था। गर्ज कि शहर में कुछ भी बाकी न छोड़ा। सब कुछ तबाह कर दिया।
17 दिसंबर बुध के दिन तैमूर ईदगाह में गया, जो मैदान के सामने थी। वहां तीनों शहरों (दिल्ली, फीरोजाबाद और तुगलकाबाद) के उमरा और भद्र पुरुष जमा किए गए। सबने अधीनता स्वीकार की। तब कहीं पीछा छूटा। शहर के दरवाजों पर तैमूरी झंडे लहराने लगे। दो दिन बाद फीरोजाबाद की मस्जिद में तैमूर के नाम का खुतबा पढ़ा गया। कुछ तैमूरी बेगमात कसे हजार सुतून देखने गई थीं। वहां लोगों से कुछ कहासुनी हो गई और तीन दिन तक फिर कत्लेआम जारी रहा।
तब तैमूर शहर में दाखिल हुआ और फीरोज शाह के अजायबखाने के सारे अच्छे-अच्छे जानवर ले लिए, जिनमें 12 गेंडे भी थे। 1398 ई. के आखिरी दिन अमीर तैमूर फीरोजाबाद गया और कोटले की जामा मस्जिद को देखा जो उसे बहुत पसंद आई। यहां उसे दो सफेद तोते दिए गए, जिनकी उम्र, कहते हैं 74 वर्ष की थी। ये तोते तुगलक शाह के जमाने से हर बादशाह को नजर किए जाते थे तैमूर केवल 15 दिन दिल्ली में ठहरा।
ये पंद्रह दिन प्रलय के थे। उसने इस कदर तबाही मचाई कि उसका कोई अनुमान नहीं हो सकता। यहां से वह अथाह धन और सामान तथा गुलाम कैदी लेकर गया। जहां से भी गुजरा, कत्ल तथा लूट मचाता चला गया। जाते वक्त खिजर खां को हुक्मरा नियत कर गया और पंजाब, काबुल होता हुआ समरकंद वापस लौट गया। वह पांच महीने हिंदुस्तान में ठहरा।
तैमूर के जाने के पश्चात भी दो महीने तक यहां गदर मचा रहा। आखिर नसरत शाह वापस लौटा और लूटे-खसूटे शहर पर कब्जा किया। इकबाल खां जब एक लड़ाई में मारा गया तो दौलत खां लोदी के कहने पर महमूद गद्दी पर बैठा, लेकिन 1407 ई. में एक बागी और खिजर खो ने सुलतान महमूद को फीरोजाबाद में कैद कर लिया और वह बड़ी कठिनाई से छूटा। सुलतान महमूद इस प्रकार नाममात्र का बीस वर्ष तक बादशाह रहा और जब वह कैथल की तरफ शिकार को गया हुआ था तो वहीं बीमार पड़ा और वापसी पर 1412 ई. में मृत्यु को प्राप्त हुआ। इसके साथ ही तुगलक खानदान की समाप्ति हो गई।