शहरवासी एकत्र होकर क्यों पहुंचे लाल किले, जफर से क्या कहा
1857 की क्रांति: 16 सितंबर को दोपहर से शहर के लोग किले के सामने जमा होने लगे। उनके साथ बहुत से जिहादी भी थे जिनके लीडर मौलवी सरफाज अली थे और ‘बागी फौज के कई प्रमुख अफसर’ भी थे। वह सब किले के अंदर गए और बहादुर शाह जफर र की मिन्नत करने लगे कि वह लड़ाई में उनका नेतृत्व करें।
सईद मुबारक शाह कहते हैं कि “उन्होंने बादशाह को यकीन दिलाया कि दिल्ली के सारे शहरी, पूरी फौज और आसपास के सब लोग उनके साथ होंगे और उनके लिए लड़ेंगे और मरेंगे, और अंग्रेजों को निकाल बाहर करेंगे। जैसे-जैसे और जिहादी और शहरी “कुछ डंडे लिए, कुछ तलवारें उठाए और कुछ पुरानी बंदूकें संभाले”, किले के बाहर जमा होते गए, तो ऐसा लगा कि अब पांसा पलटने का वक्त आ गया है।
किले के अंदर हालात और भी ज्यादा गंभीर होते जा रहे थे। 14 सितंबर को मिर्जा मुगल ने एक फौरी पैगाम जफर को भेजकर उनसे मिन्नत की कि उन्हें कुछ और पैसा दें ताकि वह सिपाहियों को तंख्वाह दे सकें जिससे वह ठीक से खा-पीकर लड़ सकें।
जफर ने जवाब दिया कि “घोड़ों का सारा साजो-सामान, हमारा चांदी का हौदा और कुर्सी मिर्जा मुगल को भिजवा दी जाए ताकि वह उसको बेचकर सिपाहियों को पैसा दे सकें। हमारे पास अब कुछ नहीं बचा है। “हर वक्त किले में कहीं न कहीं गोले गिर रहे थे।
नेविल चैंबरलेन ने लाहौर से 17 सितंबर की शाम को रिपोर्ट किया कि “बादशाह का निवास खूब गर्मागर्म जगह होगी क्योंकि हम किले के अंदर चारों तरफ गोले फेंक रहे हैं।” हालात को और भी बदतर बनाने के लिए शहर में खाने का सामान आना बिल्कुल बंद हो गया था और लोग जिनमें सलातीन और शहजादे भी शामिल थे, सब भूखे मर रहे थे।