दो सौ साल बाद आयी आखिरी रात, जब किसी बादशाह ने लाल किले में गुजारी रात
1857 की क्रांति: 16 सितंबर की वह रात दो सौ साल बाद आखरी रात थी, जो किसी मुगल बादशाह ने शाहजहानाबाद के लाल किले में गुजारी थी।
जफर की सबसे चहेती बेटी कुलसूम जमानी बेगम की कायम की हुई खानदानी रिवायत थी। जिसके मुताबिक जफर अपने तस्बीहखाने में चले गए और वहां हालात के बारे में सोचने और दुआ करने में मशगूल हो गए। बाहर लड़ाई की आवाजें लाल किले के करीब आती गईं। रात को ग्यारह बजे एक ख्वाजासरा को कुलसूम जमानी बेगम को बुलाने भेजा गया।
उनका कहना हैः
“हर तरफ गोलियां चल रही थीं। बादशाह सलामत ने मुझसे कहा, ‘मैंने तुम्हें अल्लाह को सौंपा, तुम अपने शौहर के साथ महल छोड़ दो। मैं तुमसे जुदा होना नहीं चाहता, लेकिन अब तुम्हारी सलामती के लिए जरूरी है कि तुम मुझ से दूर रहो।’
फिर उन्होंने ऊंची आवाज से हमारी सलामती की दुआ मांगी, हम पर बरकत भेजी और मुझे कुछ जेवरात और कीमती सामान दिया और मेरे पति मिर्जा जियाउद्दीन से कहा कि वह हमको वहां से ले जाएं। हमारा काफिला रात गए किले से बाहर निकला।
हम कोराली गांव तक पहुंचे, जहां हमने जौ की रोटी और दही का सादा सा खाना खाया। लेकिन अगले दिन मेरठ जाते वक्त (जहां दिल्ली से बहुत से अंग्रेज़ शरणार्थी चार महीने पहले गए थे) गूजरों के एक गिरोह ने हम पर हमला किया और हमें लूटकर लगभग नंगा करके छोड़ा।