दिल्ली के स्कूल, कॉलेजों से लेकर कालोनियों तक में जगी अलख

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।

Delhi during the freedom movement: दिल्ली 1931 में औपचारिक रूप से भारत में सल्तनते बर्तानिया की राजधानी घोषित हो गई। दिल्ली का मतलब नई दिल्ली। राजधानी की उस अवधारणा में पुरानी दिल्ली, खासकर गली-कूचों में फ़सील के भीतर बसी दिल्ली का कोई वजूद नहीं था। यहां तक कि नई दिल्ली की तामीर से पहले के कश्मीरी गेट के बाहर के इलाके यानी सिविल लाइंस का महत्त्व भी कुछ फीका-सा पड़ गया था।

लुडलो कासिल, जो किसी ज़माने में दिल्ली का विंडसर था, जहां कभी गवर्नर जनरल का निवास था, और पुराना सचिवालय जो 1912-1928 तक सेंट्रल लेजिस्लेटिव एसेम्बली की इमारत थी। जब सत्ता पीठ नए संसद भवन में चला गया तो ये इलाक़े सत्ता के स्थानान्तरित होने के साथ सरकारी हलकों में राजनीतिक दृष्टि से महत्त्वहीन हो गए। नतीजा यह हुआ कि पुराने सचिवालय की इमारत में दिल्ली विश्वविद्यालय की आरम्भिक कक्षाएं लगने लगीं।

पुरानी दिल्ली की आबादी नई दिल्ली की शान-शौकत, साफ़-सुथरेपन, भव्य इमारतों, चौड़ी छायादार वृक्षों से घिरी सड़कों और भीड़ मुक्त परिवेश से लगभग सम्मोहित थी। मुग़लों के बाद वास्तुकला का ऐसा अभिभूत करनेवाला मंजर अंग्रेज़ों ने ही पेश किया था।

जब लॉर्ड हार्डिंग ने ल्यूटन के प्रस्तावों पर वित्तीय कटौती की कलम चलाई तो ल्यूटन ने जो टिप्पणी की, उसकी सार्थकता अब समझ में आती है। ल्यूटन ने कहा था कि वायसराय अगले तीस साल के बारे में सोच रहे हैं और मैं अगले तीन सौ साल के बारे में। ल्यूटन की यह टिप्पणी भविष्यवाणी साबित हुई। ब्रिटिश साम्राज्य का डेरा तो तीस साल पूरे होते न होते उठ गया, पर नई दिल्ली का वह इलाक़ा आज भी ल्यूटन्स ज़ोन के नाम से जाना जाता है और आगे भी जाना जाएगा।

इतिहास में साम्राज्यशाही और उपनिवेशवादी शोषण का अन्त इतनी जल्दी होनेवाला है, इसका अनुमान न लॉर्ड हार्डिंग को था, न ल्यूटन को। ज़ाहिर है, जिस मनोयोग और कौशल से राष्ट्रपति भवन, अगल-बगल की सरकारी इमारतों और संसद भवन का निर्माण किया गया था, उसके पीछे गोरे साहबों को ऐशोआराम मुहैया करने की वृत्ति काम कर रही थी। अनुमान लगाना कठिन है कि अगर ल्यूटन को ज़रा भी गुमान होता कि तीन दशक के भीतर उस महलनुमा भवन का उपयोग अंग्रेज़ वायसराय की जगह किन्हीं सी. राजगोपालाचारी या राजेन्द्र बाबू की रिहाइश के लिए किया जानेवाला है तो सूरतेहाल क्या होती ! दरअसल एक बार 1857 के विद्रोह का बर्बरता से दमन कर लेने के बाद,

अंग्रेज़ शासकों का यह यक़ीन और बढ़ गया था कि उनकी नियति में विश्व पर राज करना लिखा है। 1858 में महारानी विक्टोरिया ने जो घोषणा-पत्र जारी किया था, उससे बात पूरी तरह भले ही न बनी हो, पर भारतीय मानसिकता में दुविधा ज़रूर पैदा हो गई थी। इसका प्रमाण है 1857 से 1900 के भी बाद तक रचा जानेवाला साहित्य। हिन्दी में तो रीतिकालीन प्रवृत्ति ही निःशेष नहीं हुई थी। पद्माकर तो 1925 तक जीवित रहे, पर जिन भारतेन्दु में आधुनिक चेतना की शुरुआत देखी जाती है, उनका जन्म भी 1858 में हुआ और उन्होंने साहित्य रचना युवावस्था में, 1857 के कई वर्ष बाद शुरू की।

विद्रोह की सशक्त आवाज लोक-गीतों में ज़रूर सुनाई पड़ी-स्थानीय नेताओं के विरद गान के रूप में, पर विद्रोह के दौरान लिखित परम्परा में विरोध के नाम पर घोर असमंजस या चुप्पी व्याप्त है।

उस समय के हालातों पर शुरू में उर्दू में ज़रूर विरोध का स्वर सुनाई पड़ा। अंग्रेज़ों के खैरख़्वाह सर सैयद अहमद तक ने ‘रिसाल-ए-अस्वाह-ए-बगवात-ए-हिन्द’ और ‘तारीख-ए-तरकशी-ए-बिजनौर’ लिखा, पर बाद में वे भी अंग्रेज़ी शासन की न्यायप्रियता के धीर विश्वासी हो गए और अपने समुदाय की बेहतरी के प्रयास में जुट गए।

खुद मिर्ज़ा ग़ालिब अपने ‘खतूते ग़ालिब’ और ‘दस्ताम्बो’ में एक नहीं, दो ग़ालिब दिखाई पड़ते हैं। ज़हीर देहलवी ने ज़रूर ‘दास्ताने गदर’ की रचना की और ‘फुगान-ए-देहली’ शीर्षक से लगभग चालीस शायरों की रचनाओं का एक संग्रह 1861 में छपा। इसके अलावा भी दिल्ली की बर्बादी और लूट को विषय बनाकर अखबारों में छपे लेखों और कविताओं की संख्या काफ़ी है पर धीरे-धीरे आलोचना और टीस का स्वर मद्धिम पड़ता गया।

अंग्रेज़ों की बदली हुई नीति ने बौद्धिकों की मानसिकता में कम-से-कम असमंजस तो पैदा कर ही दिया। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि वह मुगलिया सल्तनत का पतनशील दौर था। सामन्ती संस्कृति का यह हाल था कि बादशाह के दरबार के भीतर रुतबा ज़ौक जैसों का था, और ग़ालिब और मोमिन रिकॉग्निशन की आस में बाहर हाज़िरी बजाते थे।

जिस सामन्तशाही में ग़ालिब ने संघर्ष और ज़िल्लत की लम्बी ज़िन्दगी गुज़ारी थी, उसके बर्बर दमन पर सहानुभूति एक हद तक ही हो सकती थी। यह बात अलग है कि अपनी पेंशन के लिए भी उन्हें कलकत्ते तक दौड़ लगानी पड़ती थी। उस ज़िल्लत के बावजूद उन्होंने उस अंग्रेज़ी तहज़ीब के दोनों चेहरे देखे थे। एक वह जिसने पूरे वहशीपन से 1857 में देहली के कत्लेआम में इकट्ठे इतने लोगों को फाँसी पर लटकाया था जिनकी गिनती नहीं की जा सकी थी और दूसरा वह जो 1858 के बाद लोगों को न्याय और बराबरी के व्यवहार का आश्वासन दे रहा था, जिसके साथ नई अदालतें, नए क़ानून, लॉ एंड ऑर्डर स्थापित करने के वायदे और पश्चिम की ‘साइंटिफिक’ और ‘रेशनल’ सभ्यता का पसारा जुड़ा था। कुछ ऐसी ही असमंजस भरी मानसिकता ने उनसे कहलवाया होगा : ‘काबा मेरे पीछे है तो कलीसा मेरे आगे।’

क़हर अवध पर भी बरपा कम नहीं हुआ था। हिन्दी साहित्य का मुख्य क्षेत्र वही प्रदेश था और साथ ही निकटवर्ती इलाका पश्चिमी उत्तर प्रदेश। एक ओर आतंक और दूसरी ओर लाभ-लोभ की मिली-जुली भावना के कारण देशभक्ति का जज़्बा वहाँ भी खुलकर प्रकट न हो सका। जो आया, वह व्यंग वक्रता, रूपक- प्रतीक के माध्यम से, भंगेड़ी की मुद्रा अख्तियार करके, या फिर पत्र-पत्रिकाओं में छपे लेखों में लुका-छिपी की शैली में।

यह बात अलग है कि ऊपरी नेमतों के छलावे और आधुनिकता के मुखौटे के भीतर शोषण और लूट की जो प्रक्रिया चल रही थी, उससे बेखबरी विद्रोह की घटना के बाद नहीं हुई। इसी एहसास ने आगे चलकर स्वाधीनता-आन्दोलन का रूप ग्रहण किया।

हिन्दू-मुस्लिम समुदायों ने विद्रोह के दौरान जैसे कन्धे से कन्धा मिलाकर अंग्रेज़ों के विरुद्ध मोर्चा लिया था, उसमें दरार 1858 के बाद पैदा हुई थी, लेकिन बीसवीं शताब्दी में महात्मा गांधी के नेतृत्व में स्वाधीनता आन्दोलन ने जो देश और लोकव्यापी रूप ग्रहण किया, उसका पहला महत्त्वपूर्ण कार्यक्रम इन समुदायों के बीच एकता स्थापित करना था और दूसरा समाज से अमानवीय अछूत-प्रथा का उन्मूलन करना।

दरअसल स्वाधीनता-आन्दोलन का आरम्भिक दौर जितना राजनीतिक था उतना ही सांस्कृतिक भी। भारतीय राष्ट्रवाद का लक्ष्य था जाति, धर्म, समुदाय के भेदभाव से मुक्त एक ऐसे अखिल भारतीय समाज की पुनर्रचना, जो व्यापक स्तर पर सामाजिक बुराइयों का उन्मूलन करे और ‘स्वदेशी’ और ‘स्वराज’ की दिशा में समवेत् रूप से बढ़ सके।

भारत के बारे में अंग्रेज़ी राज की नीयत और संकल्प के मूल में निहित आत्मविश्वास का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि वे एक हाथ से अखिल भारतीय स्तर पर स्वाधीनता आन्दोलन से सम्बद्ध घटनाओं और क्रियाकलापों का कड़ाई से दमन करते जाते थे और दूसरे हाथ से राजधानी के रूप में नई दिल्ली का पूरे जोश-खरोश से निर्माण और साज-श्रृंगार करने में जुटे थे। दिल्ली के प्रति उनके इस रवैये ने दिल्ली की जनता को गहराई तक प्रभावित किया था।

यह भी आकस्मिक नहीं है कि कांग्रेस के सब महत्त्वपूर्ण अधिवेशन दिल्ली के बाहर आयोजित हुए। वहीं निर्णायक प्रस्ताव पास हुए। अफ्रीका प्रवास में गांधीजी ने अहिंसा और सत्याग्रह का जो बीज मन्त्र पल्लवित किया था, उसका प्रयोग उन्होंने जिस रूप में अखिल भारतीय स्तर पर किया, उस तरह दिल्ली में नहीं।

ऐसा नहीं था कि छिटपुट घटनाएँ यहाँ हुई ही न हों। गांधीजी ने 1924 का उपवास वर्तमान हंसराज कॉलेज के पास दिलकुशा कोठी में ही किया था। 1921 में मोहम्मद अली, शौकत अली वाली मन्त्रणा भी जामा मस्जिद के इलाक़े में स्थित जगत सिनेमा में ही घटित हुई थी।

स्वामी स्वरूपानन्द और करपात्री जी महाराज की गतिविधियों का क्षेत्र भी दिल्ली ही थी। दिल्ली में ही ऋषभचरण जैन ने 1857 पर ‘गदर’ शीर्षक से पहला उपन्यास 1930 में लिखा था, जो प्रकाशित होते ही ज़ब्त कर लिया गया। लिखित शब्द पर चौकसी का यह आलम तो नहीं था कि ‘पयामे आज़ादी’ का होना भर सिर कलम कराने के लिए काफ़ी समझा जाता हो, पर शासन की नाक के नीचे दिल्ली में मुखर और साहसिक अभिव्यक्ति की गुंजाइश कम ही रहती थी।

यह भी भूलना नहीं चाहिए कि पुरानी दिल्ली की आबादी के घटक थे- मध्यवर्गीय व्यापारी लोग, इनसे जुड़े शिल्पी, कारीगर, वकील और उनके मुनीम गुमाश्तों के अलावा कोर्ट-कचहरी से सम्बद्ध पेशकार-अहलकार, डॉक्टर और उनके कम्पाउंडर, अध्यापक, कलाकार (जिनमें प्रधानता संगीतकारों की थी)।

कुल मिलाकर इस मध्यवर्गीय समाज का हित शासन तन्त्र से जुड़ा था। सरकारी दफ़्तरों का बाबू वर्ग और निचले तबके के कार्मिक तो सीधे शासकों की निगरानी तले ही थे। छोटी संख्या उन छोटे-मोटे उद्योगपतियों और अपेक्षाकृत बड़े व्यापारियों की थी जो अपनी बहबूदी के लिए सरकार का मुँह जोहने को विवश थे। उनकी नज़र रायबहादुरी, रायसाहबी और ‘सर’ के खिताबों पर टिकी थी।

दिल्ली विश्वविद्यालय के पहले कुलपति रायबहादुर रामकिशोर शहर के नामी- गिरामी वकील थे और सर श्रीराम और सर शंकरलाल का सम्बन्ध उस उद्योग घराने से था जिसको दिल्ली की अनेक प्रसिद्ध शैक्षिक संस्थाओं को खड़ा करने का श्रेय प्राप्त हुआ। कलावन्तों को प्रश्रय देने में भी इन घरानों में उत्साह की कमी नहीं थी। धीरे-धीरे कलकत्ता के धनाढ्य मारवाड़ी सेठों ने भी भविष्य की योजनाएँ बनाकर दिल्ली की तरफ़ रुख कर लिया था। बिरला और डालमिया परिवार इनमें मुख्य थे। दिल्ली के अपने पुराने बाशिन्दों में सेठ छुन्नामल और जगत नारायण जैसों का अलग दबदबा था।

शैक्षिक-सांस्कृतिक क्षेत्र में दिल्ली आगे बढ़ रही थी। समाज-सुधार के कार्यक्रमों के बारे में आर्य समाज काफी सक्रिय था। दीवान हॉल में नियमित हवन-प्रवचन के अलावा आए दिन विधवा-विवाह, अन्तर्जातीय विवाह और शुद्धि के कार्यक्रम निष्पन्न किए जाते थे। हिन्दू महासभा की गतिविधियाँ बिरला मन्दिरवाली सड़क पर एक विशाल भवन से चलती थीं। रामकृष्ण मिशन की भी एक शाखा सक्रिय हो गई थी।

शिक्षा की दृष्टि से भी 1931-47 के बीच का समय दिल्ली के इतिहास का महत्त्वपूर्ण दौर है। एक तरफ़ शासकों ने मिशनरी उत्साह से इस दिशा में क़दम उठाया तो दूसरी ओर स्वत्व-बोध की प्रेरणा से मदरसा गाजीउद्दीन खाँ, महावीर जैन हाई स्कूल, इन्द्रप्रस्थ हाई स्कूल, हिन्दू कॉलेज जैसी शिक्षा-संस्थाओं की शुरुआत हुई। शासकों की प्रेरणा से प्रेजेंटेशन कॉन्वेंट, क्वीन मेरी हाई स्कूल, सेंट टॉमस और लेडी इरविन जैसे स्कूल खुले और सेंट स्टीफेन कॉलेज शहर की तंग गली की हवेली से निकलकर कश्मीरी गेट में आ गया। दयानन्द एंग्लो वैदिक और एंग्लो अरेबिक संस्थाएँ तो पहले ही वजूद में थीं।

शिक्षा के इन तमाम प्रयासों के बीच एक बात ध्यान देने की थी-भारतीय भाषाओं के प्रति हीन भावना। दिल्ली की स्थिति और विकट थी। आधुनिक दिखने के लिए अंग्रेज़ी पढ़ना ज़रूरी था और कोर्ट-कचहरी और पुराने तालीम याफ्ता लोगों की अहले ज़बान उर्दू थी, वह भी फ़ारसी मिश्रित। अलबत्ता दुकानदारों के (शहर के) बही-खातों की व्यापारी भाषा शायद देवनागरी का ही कोई अलग रूप थी जो मुंडी कहलाती थी। उसके लिखने-पढ़नेवाले पेशेवर मुनीम होते थे।

कुल मिलाकर माहौल में अंग्रेज़ी का दबदबा था। उसी से प्रेरित होकर घर के दो बच्चों का दाखिला प्रेजेंटेशन कॉन्वेंट में कराया गया। स्कूल घर के पास और अंग्रेज़ी दाँ। पर बहुत जल्दी बच्चों में काले-गोरे के भेदभाव से प्रेरित एक घटना को लेकर पिताश्री का स्कूल के प्रिंसिपल से झगड़ा हुआ और खाँटी हिन्दुस्तानी में खरी-खोटी सुनाकर वे हमें स्कूल छुड़ाकर घर ले आए।

इन्द्रप्रस्थ स्कूल में हिन्दी यानी वर्नाकुलर को छोड़कर माध्यम अंग्रेज़ी था। विद्यार्थियों से उम्मीद की जाती थी कि वे आपस की बातचीत भी अंग्रेज़ी में ही करें। शायद कक्षा सात की एक घटना आज भी याद है। लंच के खाली वक़्त में हम स्कूल की तंग गैलरी और सीढ़ियों पर धमाचौकड़ी मादरे ज़बान के सहारे ही मचाते थे।

एक ऐसे ही मौके पर पीठ पर धौल जमाकर जिन्होंने सख़्त आवाज़ में डाँटते हुए जवाब तलबी की : “यू ईडियट। स्पीकिंग इन हिन्दी?” वे साढ़े चार फ़ीट कद की श्यामवर्णा, चिर कुमारी मिस रतन थीं। अपने कुशल अध्यापन, अनुशासनप्रियता और तीखे मिज़ाज के लिए ख्यात मिस रतन दक्षिण की रहनेवाली थीं। सामने के दो दाँत स्थायी मुद्रा में बाहर ही रहते थे।

कैमेस्ट्री की उन अध्यापिका ने साइंस से मेरा डेरा इसलिए उठवा दिया क्योंकि उनका निश्चित मत था कि साइंस जैसे गम्भीर विषय में, नियमित रूप से नृत्य करनेवाली लड़की की कोई गति नहीं हो सकती। देश की खबरें शहर में रेडियो और अखबार-दो ही माध्यमों से पहुँचती थीं।

यदि खबरों के ये दोनों माध्यम स्वतन्त्र होते, या फिर दूरदर्शन खबरें सुनाता नहीं, दिखाता तो निश्चित रूप से नक्शा कुछ और होता। उन स्थितियों में, दिल्ली के अपेक्षाकृत शान्त, स्थिर परिदृश्य में लहरें तो उठती थीं, तूफ़ान नहीं आते थे। खबरों का एक दृश्य माध्यम भी था। सिनेमाघरों में फ़िल्म शुरू होने से पहले, समसामयिक सामाजिक राजनीतिक घटनाओं पर खबरों की फ़िल्म डिवीजन द्वारा तैयार की गई एक रील दिखाई जाती थी।

गांधीजी और स्वाधीनता आन्दोलन की सरगर्मियों के साथ द्वितीय महायुद्ध से सम्बन्धित घटनाओं के दृश्य-बिम्ब इन्हीं रीलों के द्वारा मन पर अंकित हुए थे। अब यह काम अपने ढंग से दूरदर्शन कर रहा है।

दिल्ली के जीवन में उद्वेलन बड़ी घटनाओं की सूचना से पैदा होता था; या फिर तब जब गांधीजी बैठकों और मन्त्रणाओं के लिए दिल्ली आते थे। हिन्दी के लेखक वियोगी हरि उस समय प्रायः उनके साथ रहते थे।

वे शुरू के दिनों में किंग्सवे कैम्प के पास हरिजन बस्ती में ठहरते थे, बाद में नई दिल्ली में बिरला हाउस में ठहरने लगे थे। उनकी तापस जीवन-शैली और लोगों की भाषा में उनसे संवाद, दोनों का अद्भुत प्रभाव पड़ता था सामान्य जन पर।

‘स्वराज’ और ‘स्वदेशी’ के लिए चलाए गए उनके आन्दोलन से दिल्ली की जनता अछूती नहीं थी। जिस चरखे का प्रचार उन्होंने ग्रामीण मुक्ति, लघु उद्योग-धन्धों के प्रोत्साहन और आत्मनिर्भरता के प्रतीक के रूप में किया था, वह दिल्ली के बहुसंख्यक मध्यवर्गीय परिवारों में पहुँच गया था। लोग दैनन्दिन जीवन में धार्मिक अनुष्ठान की-सी भावना से नियमित रूप से सूत कातते थे, और पूनियाँ गांधी आश्रम पहुँचाया करते थे। गांधी आश्रम का उस समय एकमात्र ठिया चाँदनी चौक में वहीं था, जहाँ अब भी है। शहर के हिस्सों में अलग-अलग शाखाएँ कई वर्ष बाद खोली गईं।

जब भी देश के किसी भाग में कोई घटना घटती तो उसकी प्रतिक्रिया दिल्ली में ज़रूर होती पर सामाजिक जीवन बहुत अस्त-व्यस्त होता दिखाई नहीं पड़ता था। उदाहरण के लिए गोल-मेज़ कॉन्फ्रेंस की असफलता के बाद गांधीजी के लौटने पर सिविल नाफ़रमानी का आन्दोलन जब तेज़ हुआ, तो उसमें हर समुदाय, धर्म और आयु के लोग शामिल हुए। एक लाख बीस हज़ार गिरफ्तारियाँ हुई, जिनमें दिल्लीवासी शामिल नहीं थे।

स्वाधीनता आन्दोलन से सम्बद्ध घटनाओं से प्रेरित होकर, कभी कुछ सभाएँ, इन्कलाबी नारे लगाते हुए कुछ जुलूस, बाज़ार-हाट में चर्चाएँ, अंग्रेज़ों के पक्ष-विपक्ष में बहस-मुबाहिसे, गांधीजी के स्वदेशी आन्दोलन से प्रेरित होकर खादी पहनने का संकल्प और चरखे की कताई-जैसी बातों से वातावरण में सरगर्मी ज़रूर पैदा होती रहती थी पर खुलकर प्रभावी रूप में धरना, प्रदर्शन, विदेशी वस्तुओं का बायकाट, सत्याग्रह या गिरफ्तारियाँ देने का उपक्रम दिल्ली में उस रूप में नहीं दिखाई पड़ता था, जैसा देश के दूसरे भागों में घटित होता था।

दिल्ली की जनता जिन कुछ प्रसंगों को लेकर विशेष रूप से उद्वेलित हुई थी, उनमें से एक था इस संघर्ष के परिदृश्य पर सुभाषचन्द्र बोस का उदय और दूसरा दूसरे महायुद्ध की घोषणा। सुभाष ने विशेष रूप से युवा वर्ग का ध्यान आकर्षित किया था किसी हद तक मॉडल के रूप में। कांग्रेस के चुनाव में उनकी जीत, नीतियों से मतभेद, रहस्यमय ढंग से उनका प्रकट और लुप्त होते रहना-ये प्रसंग, युवा पीढ़ी को रोमांचित करने के लिए काफ़ी थे। कुछ लोग खुलकर और बहुत से दबी जुबान से उनका पक्ष-समर्थन करने लगे थे। क्रान्तिकारियों के साथ ब्रिटिश सरकार ने जो सलूक किया था, उसकी स्मृति इतनी पुरानी नहीं हुई थी कि सुभाषचन्द्र बोस की कार्य-प्रणाली और आज़ाद हिन्द फौज़ का खुला समर्थन करने की हिम्मत जनता जुटा पाती।

पर इस पूरे प्रसंग पर रहस्य का जो पर्दा पड़ा था, उसके पीछे छिपी सच्चाई जानने के लिए लोग घंटों अपने रेडियो सेट पर उस स्टेशन को पकड़ने की मशक्कत करते रहते थे जिसके बारे में मशहूर था कि बोस उससे अंग्रेज़ विरोधी ब्राडकास्ट करते हैं।

दूसरे महायुद्ध में बिना भारतीय नेताओं से परामर्श किए, सरकार ने भारत को युद्ध का हिस्सा घोषित कर दिया। भारत ने फासिस्ट ताक़तों की निन्दा करते हुए, अपने को युद्ध से असम्बद्ध रखने की पेशकश ज़रूर की, पर युद्ध के बारे में साम्राज्यशाही नीयत साफ़ होते ही प्रान्तीय कांग्रेसी सरकार ने इस्तीफ़ा तो दिया ही, 1940 में सत्याग्रह आन्दोलन चालू कर दिया। छह महीने के भीतर 25,000 लोग जेलों में भर दिए गए।

उस माहौल में दिल्लीवासियों की युद्ध विषयक दहशत देखने लायक थी। आए दिन बमबारी की आशंका की अफवाहें फैलतीं। ब्लैक आउट करके बमबारी की स्थिति में करणीय की रिहर्सल कराई जाती। अफ़वाह गरम थी कि जापानी सेनाएँ उत्तर-पूर्व में कोहिमा तक पहुँच गई हैं और कभी भी राजधानी पर बम गिराकर भारत पर कब्ज़ा कर सकती हैं। उस स्थिति में जान-माल के बचाव का क्या होगा? जिनके पास खोने को कुछ नहीं था, वे भागकर जान बचाने की फिक्र कर रहे थे। जिनके पास सम्पत्ति थी, उन्हें जान के साथ माल बचाने की फिक्र सता रही थी।

बच्चों को पहली बार पता लगा कि हवेली के नीचे की मंज़िल के कोनेवाले कमरे के नीचे एक तहखाना भी है। तब नक़दी-गहने बैंक के लॉकर में रखने का चलन नहीं था। शहरों में तिजोरियाँ और ग्रामीण क्षेत्रों में धरती में कोई गड्ढा लॉकर का काम करते थे। सो गठरियाँ बाँधकर यह तय पाया गया कि भागने की स्थिति में जो ले जाते नहीं बनेगा, वह उस तहखाने के हवाले कर, वापसी पर पाने की आस लिए प्रयाण करना पड़ेगा। जान और माल के बीच चुनाव करना हो तो ‘जान है तो जहान है’ के हवाले से जान की फिक्र करना स्वाभाविक था।

यही नहीं, एक काम और किया गया। बमबारी होने पर बिजली-पानी की सप्लाई चालू रहने का प्रश्न नहीं था। अँधेरा झेला जा सकता था, पर प्यास का क्या होगा? सो बड़े से आँगन के एक कोने में आनन-फानन में कुआँ खुदवाया गया। उस समय जल-स्तर की कोई समस्या नहीं थी, सो बहुत गहरे जाने की ज़रूरत नहीं पड़ी। परिवार के वयस्क सदस्य अफ़वाहों के साये में तरह-तरह की आशंकाओं से जूझ रहे थे, और बच्चा पार्टी भय से ज़्यादा उत्सुकता और अनहोनी की सम्भावना से रोमांचित थी।

खतरा जल्दी ही टल गया, और जल्दी ही युद्ध-समाप्ति की घोषणा भी हो गई। युद्ध की समाप्ति के साथ दो ऐसी घटनाएँ जुड़ी थीं, जिन्होंने दिल्ली को दो तरह से आन्दोलित किया-एक, अणु-बम के प्रयोग से होनेवाले नरसंहार ने और दूसरे, सुभाषचन्द्र बोस के लापता होने और आज़ाद हिन्द फौज के अफसरों की गिरफ्तारी ने।

जनरल शाहनवाज़ खाँ, कर्नल प्रेम सहगल और कर्नल गुरबख्श सिंह का दर्जा जनता की नज़र में, परी कथाओं के बहादुर राजकुमारों से कम न था। सरकार के लिए वे युद्धबन्दी थे जिन पर ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ़ षड्यन्त्र करने का आरोप लगाया गया था। उन्हें विशेष कैदियों की हैसियत से लालकिले में रखा गया था।

हो सकता है, सरकार को उन्हें दूसरे कैदियों के साथ रखने में आन्दोलन का खतरा महसूस हुआ हो! आखिर महत्त्वपूर्ण बात तो यह भी थी कि एक हिन्दू, एक मुसलमान और एक सिख यदि एक साथ आज़ाद हिन्द फौज की टुकड़ियों की अगुआई कर रहे थे, तो इससे तत्कालीन भारतीय मानस की बनावट का पता चलता था।

यह तथ्य भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं था कि उन पर नवम्बर, 1945 में मुक़दमे की जो शुरुआत हुई, उसमें आरोपियों के पक्ष से पैरवी करने के लिए जवाहरलाल नेहरू, भूलाभाई देसाई, तेज बहादुर सप्रू, के.एन. काटजू और आसफ अली ने वकालत के चोगे पहन लिए। इस वकील ब्रिगेड और व्यापक जनमत के दबाव के बावजूद उन्हें उम्रकैद की सज़ा सुना दी गई।

लालकिले को शासन ने उस समय लगभग छावनी बना रखा था। फिर भी दिल्ली की जनता इस उम्मीद में उमड़ी पड़ रही थी कि उन रणबांकुरों की एक झलक ही देखने को मिल जाए। मुक़दमा खुली अदालत में चलाने का खतरा सरकार ने मोल नहीं लिया, और फैसले पर असन्तोष तो प्रकट हुआ पर उल्लेखनीय बावेला नहीं खड़ा हुआ। शायद इसलिए भी कि कम-से-कम फाँसी की सज़ा से बचाव तो हो गया था।

अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर दूसरे विश्वयुद्ध के बाद स्थितियों में बहुत बदलाव आ गया था। ब्रिटिश साम्राज्य की हैसियत पहलेवाली नहीं रह गई थी। 1942 में मित्र देशों ने ‘यूनाइटेड नेशनल डिक्लेरेशन’ जारी किया था, जिसमें सभी पराधीन देशों की जनता को अपने भविष्य का रास्ता तय करने की स्वतन्त्रता देने की माँग की गई थी। उसे चर्चिल ने यह तर्क देकर खारिज कर दिया कि वह चार्टरकेवल जर्मनी के अधीन देशों पर लागू होता है, भारत पर नहीं। और देशों के दबाव के कारण क्रिप्स मिशन बातचीत के लिए भारत आया ज़रूर पर कोई नतीजा नहीं निकला। नतीजतन गांधीजी ने ‘भारत छोड़ो’ का नारा दे दिया। प्रस्ताव पारित होने के अगले दिन ही कांग्रेस पर प्रतिबन्ध लगाकर सारे नेता गिरफ्तार कर लिए गए। यह ऐसी घटना थी जिसका अखिल भारतीय स्तर पर विरोध करने के लिए जनता ने जो आन्दोलन किया, उसमें हिंसा का रास्ता भी अपनाया जाने लगा।

दिल्ली के गली-बाज़ारों में भी ‘इन्कलाब ज़िन्दाबाद’, ‘टोडी बच्चा हाय! हाय!’ और ‘हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई, आपस में सब भाई भाई’ के नारे लगाते हुए टोलियाँ घूमने लगीं। इनमें भाग लेनेवाली अक्सर नौजवान पीढ़ी थी। इक़बाल का प्रसिद्ध तराना ‘सारे जहाँ से अच्छा, हिन्दोस्ताँ हमारा’ इन जुलूसों का प्रिय नगमा था।

सर स्टैफ़र्ड क्रिप्स ने न युद्धोपरान्त आज़ादी देने के लिए हामी भरी थी, न युद्ध के दौरान राष्ट्रीय सरकार बनाने की। इसलिए आन्दोलन का यह सिलसिला शुरू होने के बाद 1947 तक पूरी तरह नहीं टूटा। विशेषकर 1945-46 के दौरान हर छोटी-बड़ी बात को लेकर छोटा-मोटा विरोध, प्रदर्शन रोज़मर्रा की घटना हो गई। 1946 की बात है।

इन्द्रप्रस्थ कॉलेज उस समय लड़कियों का दिल्ली में एकमात्र कॉलेज था। विद्यार्थियों की कुल संख्या 250 से कुछ अधिक थी। गिनी- चुनी अध्यापिकाएँ, और ‘सीता परमानन्द’ नाम की बड़ी शालीन, अनुशासनप्रिय प्रिंसिपल। किसी मसले पर लड़कियाँ हड़ताल करके जुलूस निकालने पर उतारू।

प्रिंसिपल ने सबको गेट के सामने इकट्ठा कर अनुशासन और पढ़ाई के महत्त्व पर भाषण दिया। प्रतिक्रिया में यूनियन की प्रेसिडेंट विद्यार्थी नेता का ओजस्वी भाषण हुआ, जिसमें तर्क कम देशभक्तिजन्य आवेग अधिक था। साथियों के साहस को ललकारा गया था।

प्रिंसिपल ने लोहे का ऊँचा प्रवेश द्वार बन्द करा दिया पर लड़कियों की अच्छी-खासी संख्या बग़ल की दीवार कूदकर जुलूस में नारे लगाती फ्लैगस्टाफ़ रोड से विश्वविद्यालय की दिशा में प्रदर्शन के लिए बढ़ गई। मामला अनुशासन भंग करने का था। दोनों पक्षों में से कोई झुकने के लिए तैयार नहीं था।

प्रिंसिपल ने इसे अपने सम्मान का प्रश्न बनाकर अन्ततः इस्तीफ़ा दे दिया। यह बात अलग थी कि जिनके कारण यह स्थिति पैदा हुई थी, वे ही प्रिंसिपल की विदाई पर ज़ार-ज़ार रो रही थीं। मुझे यह घटना उस पीढ़ी की चारित्रिक बनावट और मानवीय सम्बन्धों को समझने की दृष्टि से बहुत महत्त्वपूर्ण लगती है।

युद्ध की समाप्ति के समानान्तर भारत में दो राष्ट्रों का प्रस्ताव सामने आ गया। इसका बीज यद्यपि 1940 में मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में पड़ चुका था, पर पूरा समर्थन मुस्लिम नेताओं से भी नहीं मिल रहा था।

मौलाना आज़ाद जैसे व्यक्तियों और पश्चिमोत्तर प्रान्त के ‘खुदाई खिदमतगार’ जैसे संगठनों ने इस प्रस्ताव का डटकर विरोध किया और ब्रिटिश सरकार ने लीगियों को प्रोत्साहित किया। विश्वयुद्ध की समाप्ति और फ़ासिज़्म के पतन के साथ उपनिवेशों की जनता में स्वतन्त्रता की माँग आरोह के चरम को छू रही थी।

एशिया और अफ्रीका के देशों में इस अभियान में भारतीय जनता के संघर्ष की स्थिति अपने अहिंसात्मक सत्याग्रही स्वरूप के कारण अद्वितीय और आदर्श थी। 1943 के बंगाल के भयंकर अकाल में लाखों की संख्या में लोगों की मौत ने सरकार की छवि और बिगाड़ दी थी। यूँ भी, विश्वव्यापी आर्थिक मन्दी के उस दौर से खाने-कपड़े पर राशन-नीति की जो शुरुआत हुई, वह लम्बे समय तक चली। राशन कार्ड में हर चीज़ के दो खाने।

तौल नाप प्रति व्यक्ति के हिसाब से तय। एक खाना मोटे अनाज, प्रायः आयातित गेहूँ और बिनौले जैसे चावल का, और कपड़े के मद में मिल की बनी मोटी खादी या एक ऐसे कपड़े का जिसे लट्ठा कहा जाता था। दूसरे खाने में कुछ छानबीन कर खाने लायक थोड़ा-सा देसी गेहूँ, कुछ बेहतर चावल और कपड़े में पापलिन और मलमल-वायल। मात्रा एकदम तय। बहुत दिन तक आयातित लाल अमेरिकी गेहूँ (शायद स्वतन्त्रता के बाद भी) मोटे अनाज के नाम पर चलता रहा। परिवारों में, गरीब-अमीर जनता के बीच मोटे-पतले की अदला-बदली आम बात थी। अक्सर यह सम्बन्ध मालिक-नौकर के बीच बनता था।

ब्लैक मार्केट में तब भी मनचाही खरीद-फरोख्त सम्भव थी। परिवारों की देशभक्त पीढ़ी में इस हरकत को लेकर अक्सर टकराव की स्थितियाँ पैदा होती थीं। आज अनाज और तन ढकने लायक कपड़े के लिए घंटों राशन की दुकानों पर लाइनों में लगे रहने के उस दृश्य की कल्पना भी नहीं की जा सकती ।

दिल्ली में हलचल तब मची जब स्वतन्त्रता देने के नाम पर लॉर्ड और लेडी माउंटबेटन राजधानी पधारे। व्यवहार में बड़े शालीन, शिष्टाचारी दम्पति। कूटनीति अपनी जगह। नेहरू परिवार की उनसे खूब छनी। गांधीजी बार-बार बातचीत के लिए और नेताओं के साथ शिरकत करते रहे, पर नतीजा वही ढाक के तीन पात। धर्मनिरपेक्षता के जिस सिद्धान्त के लिए गांधीजी ने पूरा जीवन साधना करके स्वाधीनता आन्दोलन खड़ा किया था, उसी को पैरों तले रौंदते हुए, देश को विभाजित स्वतन्त्रता हासिल हुई।

15 अगस्त, 1947 का वह दिन दिल्ली के इतिहास में जितना सत्ता के हस्तान्तरण के लिए याद किया जाएगा, उतना ही इस बात के लिए कि इस पूरे प्रकरण का सूत्रधार सारी उत्सवधर्मिता को पीठ दिखाकर दूर कलकत्ते में उसी साम्प्रदायिकता की समस्या से जूझ रहा था जिसे उसने जीवन का लक्ष्य बनाया था। लाखों की संख्या में दिल्लीवासी दौड़े जा रहे थे संसद भवन की दिशा में जहाँ लेने-देनेवाले सब उत्साहित थे।

जिन्हें गांधीजी की अनुपस्थिति की सुध भी रही होगी, उन्होंने उस पर बेसुधी की चादर डालकर अवसर का तकाजा पूरा किया। इस सवाल को उस क्षण किसी दिल्लीवासी ने उठाया या नहीं, और अगर नहीं तो क्यों नहीं? कहा नहीं जा सकता कि इतिहास के पास इसका तसल्लीबख़्श जवाब है या नहीं।

Spread the love

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here