पशुओं के दाना-पानी पर गृहस्वामी रखता था पूरी चौकसी

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।

सीमावर्ती राज्यों-उत्तर प्रदेश और हरियाणा में जा बसे लोग लम्बे समय तक हर छोटी-बड़ी ज़रूरत के लिए दिल्ली का रुख करते रहे। ताज्जुब इस बात का है कि मूलतः ग्रामीण और क़स्बाई संस्कृतिवाले इन क्षेत्रों में फल, सब्ज़ी और रसद की आपूर्ति भी दिल्ली के थोक बाज़ारों से होती है। नतीजा यह कि वहाँ तक पहुँचते-पहुँचते या तो समान मूल्य-वृद्धि का शिकार हो जाता है या गुणात्मक गिरावट का। सार्वजनिक यातायात के साधन भी लम्बे समय तक सुलभ नहीं रहे।

हरियाणा में तो अब भी स्कूटर-टैक्सी की निःशुल्क आमद नहीं होती। उधर पेट्रोल के दाम धीरे-धीरे बढ़ते जा रहे थे। जब तक इन इलाक़ों की आबादी कम रही यातायात कोई बड़ा मसला नहीं था। धीरे-धीरे दिल्ली के रिहाइशी इलाक़ों में औद्योगिक कारखानों के प्रतिबन्धित हो जाने पर उनके मालिकों ने नोएडा और गुड़गाँव की तरफ रुख किया। दिल्ली की घनी बस्तियों का वायुमंडल तो कुछ हद तक प्रदूषण-मुक्त हुआ, पर नोएडा और गुड़गाँव से दिल्ली के रास्तों में यातायात की भारी समस्या पैदा हो गई।

दिल्ली शहर की समस्या का पूरा हल अभी भी नहीं निकला है। बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दशकों तक शहर की बड़ी हवेलियों की तलवतीं मंज़िलों में रईसों की बग्घी और ताँगे रखने के लिए तबेले होते थे। उसी में एक कोठरीनुमा कोना साईस की रिहाइश के लिए सुरक्षित कर दिया जाता था। ताज़े दूध, घी की व्यवस्था के लिए अक्सर एक अदद गाय या भैंस भी वहीं बगल में एक वाजिब आकार के पशुगृह में बँधती थी। पशुओं के दाना-पानी पर गृहस्वामी की पूरी चौकसी रहती थी।

संयुक्त परिवार के सदस्यों की अच्छी-खासी संख्या के रहते यह व्यवस्था बहुत अनुकूल पड़ती थी। शहर की हवेलियों के निवासी इन पशुओं की गोचारण व्यवस्था प्रायः पेशेवर घोसियों के सुपुर्द कर दी जाती थी। वे सवेरे घर-घर से पशुओं को इकट्ठा कर चरने के लिए शहर के बाहर ले जाते और शाम को लौटाकर खूँटे से बाँध देते थे। धीरे-धीरे परिवार टूटे, वित्तीय और व्यावहारिक कठिनाइयों के कारण पशुपालन असम्भव हो गया।

हवेलियों के तबेले गैराजों में तब्दील हो गए। उनमें मोटरगाड़ियाँ आ गईं और साईसों की जगह ड्राइवरों ने ले ली। पशु-चारण की ज़िम्मेदारी जिन पर थी, उन्होंने जहाँ जगह मिली, दो-चार गाय-भैंसें बाँधकर खुद दूध का व्यापार शुरू कर दिया। इस तरह शहर में छोटी-बड़ी उन तमाम डेरियों की नींव पड़ी जिनके पशु बाद में छिलकों से लेकर प्लास्टिक की थैलियों तक खाद्य की तलाश में गली-बाज़ारों में भटकने लगे। आगे चलकर नगर-निगम ने पकड़- धकड़ और क़ानूनी रोकथाम से इस समस्या पर काबू पाने की कोशिश की, पर शत-प्रतिशत कामयाबी आज तक नहीं मिली है।

क्योंकि अब भी काफ़ी संख्या में ऐसी जनता मौजूद है जो मदर डेरी के वैज्ञानिक तकनीकी उत्पाद से ज़्यादा दूध के इस प्राकृतिक-जैविक स्रोत पर भरोसा करती है। भले ही इन पशुओं को मिलनेवाले खाद्य का गुणात्मक स्तर कितना ही गिर गया हो।

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