वीरता और साहस की प्रतिमूर्ति थे बाबू वीर सिंह कुंवर सिंह

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।

1857 में वीर कुंवर सिंह की भूमिका

बाबू वीर कुंवर सिंह (1777-1858) विदेशी शासन के खिलाफ भारत के लोगों द्वारा छेड़े गए प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857-58) के वीर नायकों में से एक थे। 1857 के विद्रोह के दौरान इस देदीप्यमान योद्धा ने ईस्ट इंडिया कंपनी के सैनिकों का डटकर मुकाबला किया। कुंवर सिंह जगदीशपुर, निकट आरा, जो वर्तमान में जिला भोजपुर, बिहार का एक भाग है, के शाही राजपूत घराने के जमींदार थे। उनके पिता, राजा साहिबजादा सिंह के निधन के पश्चात् उन्हें 1826 में गद्दी पर बिठाया गया।

उनके राज्य में शाहबाद जिले के दो परगना और अनेक तालुके सम्मिलित थे। भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कुंवर सिंह ने ब्रिटिश सेना के खिलाफ सशस्त्र बलों के एक दल का सक्रिय रूप से नेतृत्व किया। वृद्धावस्था के बावजूद, कुंवर सिंह का नाम ब्रिटिश सैन्य अधिकारियों में भय उत्पन्न कर देता था।

उन्होंने कई स्थानों पर ब्रिटिश सेना को कड़ी चुनौती दी, कई स्थानों पर मुश्किलें पैदा कर दीं और कई युद्धों में विजय हासिल की। कुंवर सिंह की सहानुभूति उन सैनिकों के साथ थी, जिन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया और समय-समय पर उनके द्वारा पेश की गई भयंकर चुनौती के चलते ऐसा लगता था कि यदि ब्रिटिश बलों ने तुरंत कार्यवाही नहीं की तो पूरा पश्चिमी बिहार विद्रोह की आग में जल उठेगा और ब्रिटिश नियंत्रण से बाहर हो जाएगा।

ब्रिटिश कैप्टन को मैदान से खदेड़ा

वह बिहार के अंतिम शेर थे जिन्होंने कैप्टन डूनबर और कैप्टन ली ग्रैंड के बलों को आरा से खदेड़ दिया और आजमगढ़ में ब्रिटिश बलों पर सहसा आक्रमण कर दिया।

kunwar singh led the revolt of 1857 in

1857 की भारतीय क्रांति, 10 मई, 1857 को मेरठ शहर में, ईस्ट इंडिया कंपनी की फौज में सैनिक विद्रोह से शुरू हुई और जल्द ही भारत के अनेक भागों में आग की भांति फैल गई। बिहार समेत कई स्थानों पर भीषण युद्ध हुआ। यह क्रांति कंपनी की शक्ति के लिए गंभीर खतरे के रूप में उभरी और ब्रिटिश बलों तथा रजवाड़ों के नेतृत्व वाले बलों, विद्रोही भारतीय सैनिकों आदि के बीच कई स्थानों पर युद्ध लड़े गए। इस प्रकार यह उपनिवेशवादी शासन के खिलाफ प्रथम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम बन गया।

दानापुर की दुर्ग सेना में क्रांति की ज्वाला धधकी

25 जुलाई, 1857 को दानापुर की दुर्ग सेना में क्रांति भड़की। क्रांति में शामिल भारतीय सैनिक आरा शहर, जहां बहुत अधिक संख्या में ब्रिटिश विद्यमान थे, की ओर बढ़े। वहां पर कुंवर सिंह और उनके सैनिक उनके साथ हो लिए।

वीर कुंवर सिंह ने उन सैनिकों, जिन्होंने दानापुर में 25 जुलाई, 1858 को क्रांति का बिगुल बजाया था, की कमान संभाल ली। दो दिनों के पश्चात्, उनके बलों ने जिला मुख्यालय आरा पर नियंत्रण कर लिया। आरा में एक ब्रिटिश अभियन्ता मि. बॉयल ने अपने घर में ऐसे आक्रमणों से बचने के लिए पहले ही तैयारी कर ली थी। जैसे ही क्रांतिकारी आरा पहुंचे, सभी यूरोपीय नागरिकों ने  बॉयल के घर पर शरण ली। उस किलेबंदी को जल्द ही तोड़ दिया गया और कुंवर सिंह के नेतृत्व में बलों ने उस पर आक्रमण कर दिया।

ब्रिटिश सेना की करारी हार

29 जुलाई को, आरा में बंधक ब्रिटिश व्यक्तियों को छुड़ाने के लिए लगभग 415 सैनिकों का सैन्यदल दानापुर से भेजा गया, परंतु यह दल, जिसका नेतृत्व कैप्टन डूनबर कर रहे थे, जैसे ही सोन नदी को पार कर आरा पहुंचा, उसे कुंवर सिंह के नेतृत्व में लड़ाकुओं ने अधिकृत घर तक पहुंचने से पहले ही उस सैन्यदल पर घात लगाकर हमला कर दिया।

कैप्टन डूनबर के नेतृत्व वाले सैन्यदल की करारी हार हुई और उन्हें वापिस खदेड़ दिया गया। 415 व्यक्तियों में से केवल 50 जिन्दा बचे और सोन नदी को पार कर वापिस जा सके। कुंवर सिंह, जो गोरिल्ला युद्ध के लिए जाने जाते थे, कारगर रूप से अपने सैनिकों को छोटी-छोटी टुकड़ियों में तैनात किया।

जुलाई के अंत तक, मेजर विंसेन्ट अय्यर ने आरा की ओर कूच किया। 2 अगस्त को आरा से 16 मील (26 किलोमीटर) पहले, विद्रोहियों ने मेजर और उसके सैनिकों पर घात लगाकर हमला कर दिया। दोनों पक्षों के बीच घमासान युद्ध लड़ा गया, परंतु कुंवर सिंह बहुत समय तक रक्षा नहीं कर पाए और अपने पैतृक गांव चले गए।

लखनऊ पहुंचे कुंवर सिंह

कानपुर के युद्ध में भाग लेने के पश्चात् कुंवर सिंह दिसम्बर, 1857 में लखनऊ पहुंचे, जहां पर अवध के राजा ने उन्हें शाही पोशाक से सम्मानित किया और आजमगढ़ जिले के अंतर्गत आने वाले क्षेत्र की जागीर प्रदान की। मार्च, 1858 में उन्होंने आजमगढ़ को अधिकृत कर लिया।

आजमगढ़ में कुंवर सिंह के युद्ध कौशल से ब्रिटिश सेना भयभीत रहती थी। उनको उपस्थिति ब्रिटिश सैनिकों को अमता पर काफी भारी पड़ रही थी। 22 मार्च, 1858 को कुंवर सिंह और उनके आदमियों ने अतरोलिया, आजमगढ़ से 23 मील दूर एक बहुत बड़ा आकस्मिक हमला किया और कर्नल मिलमैन के नेतृत्व वाले ब्रिटिश बलों को आजमगढ़ तक वापिस खदेड़ दिया। कुंवर सिंह द्वारा उस क्षेत्र के घेराव से, ब्रिटिश अधिकारियों के पूरे क्षेत्र की पराजय का भय और अधिक बढ़ गया। कुंवर सिंह के आगे बढ़ने के लिए स्थिति संभावनाओं से पूर्ण थी और गवर्नर जनरल लार्ड कैनिंग को स्थिति से निपटने के लिए अत्यावश्यक उपाय करने पड़े क्योंकि वह कुंवर सिंह के साहस और शौर्य से परिचित थे।

गोरिल्ला युद्ध में निपुण कुंवर सिंह

गोरिल्ला रणनीति, निपुण नेतृत्व और अभिप्रेरण से कुंवर सिंह ब्रिटिश बलों की भारी अवमानना कर सकते थे और नुकसान पहुंचा सकते थे। कुंवर सिंह की पकड़ विद्रोही सैनिकों पर काफी मजबूत थी और वह युद्ध में उनका नेतृत्व कुशलतापूर्वक कर सकते थे। ब्रिटिश सेना के नये-नये दस्ते आते रहे, परंतु कुंवर सिंह ने उन्हें बार-बार क्रांतिकारियों के नियंत्रण में लड़ाई में लगाए रखा।

अपना हाथ काटकर गंगा नदी को भेंट किया

कुंवर सिंह और उनके आदमियों ने गंगा नदी को पार किया और जगदीशपुर की ओर कूच किया। जगदीशपुर में पहला कार्य उन्होंने 35वीं पैदल सेना के कैप्टन ली ग्रैंड के नेतृत्व वाले सैन्यदल को अधिक से अधिक नुकसान पहुंचाते हुए, 23 अप्रैल, 1858 को पूरी तरह से पराजित किया। कैप्टन ली ग्रैंड के नेतृत्व वाले ब्रिटिश बल आरा में विद्रोहियों की वापसी की खबर सुन उनसे लड़ने आए थे और कुंवर सिंह के युद्धक बलों ने उन्हें बुरी तरह से कुचल दिया।

23 अप्रैल को, उन्होंने अपने महल में पुनः प्रवेश किया। ऐसा कहा जाता है कि गोली लगने पर कुंवर सिंह ने अपना एक हाथ स्वयं तलवार से काट कर गंगा नदी को भेंट कर दिया। वीर कुंवर सिंह का निधन 26 अप्रैल, 1858 को हुआ।

निर्भय योद्धा के रूप में उनकी बीर गाथा पीढ़ियों तक लोगों को प्रेरित करती रहेगी। कर्नल जी.बी. मालेसन ने अपनी पुस्तक, “द इंडियन म्यूटिनी ऑफ 1857″, जो मूल रूप से 1891 में प्रकाशित हुई थी, में लिखा है कि “इस महान योद्धा ने…….अंग्रेजों द्वारा किए गए उनके अपमान, जैसा कि वह समझते थे, का प्रतिशोध तो लिया हो, उनके छक्के भी छुड़ा दिने।”………..कुंवर सिंह की मृत्यु ली ग्रैंड को हराने के तीन दिन पश्चात् हुई। कुंवर सिंह की मृत्यु के पश्चात भी सरकारी सैन्यबलों और उन बलां, जिनका उन्होंने कभी नेतृत्व किया था के बीच गोरिल्ला युद्ध जारी रहा। ब्रिटिश उस क्षेत्र में लंबे समय तक स्वतंत्रता सेनानियों पर निर्णायक जीत हासिल नहीं कर पाए।

शाहबाद जिले के जमींदार, बाबू वीर कुंवर सिंह ने सच्चे भोजपुरी लोक नायक, जो मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए अंग्रेजों से लड़े, के रूप में अविस्मरणीय ख्याति अर्जित की। कुंवर सिंह उदार स्वभाव के व्यक्ति थे। उन्होंने कई व्यक्तियों को अनेक अनुदानें दीं और तीर्थ स्थानों के रखरखाव के लिए भी अनुदान दिये, जिसमें पटना शहर का मुस्लिम तीर्थ स्थल भी शामिल है।

कुंवर सिंह की स्मृति में डॉक टिकट जारी

कुंवर सिंह की स्मृति और स्वतंत्रता आंदोलन में उनके योगदान के सम्मान में, भारत सरकार द्वारा 23 अप्रैल, 1966 को एक स्मारक डाक टिकट जारी किया गया था। जब भी भारत देश के बहादुर स्वतंत्रता सेनानियों का स्मरण करेगा और उन्हें सम्मानित करेगा तो बाबू वीर कुंवर सिंह की गणना प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख बहादुर नायकों में की जाएगी।

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