क्या ‘वन नेशन, वन इलेक्शन’ योजना भारत के चुनावी तंत्र को स्थिर बना सकती है?
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
भारत में One Nation One Election (एक देश, एक चुनाव) की अवधारणा एक महत्वपूर्ण विचार है, जो देश की चुनावी प्रक्रिया को सुधारने और उसे सरल बनाने की दिशा में एक कदम हो सकता है। इस योजना का उद्देश्य देश में एक साथ आम चुनावों को आयोजित करना है, जिससे चुनावी खर्च और समय की बचत हो सके। लेकिन इस प्रस्ताव के समर्थन और विरोध दोनों ही पक्षों में गहरी बहस जारी है।
भारत का लोकतांत्रिक ढांचा अपनी जीवंत चुनावी प्रक्रिया के आधार पर फल-फूल रहा है और नागरिकों को हर स्तर पर शासन को सक्रिय रूप से आकार देने में सक्षम बनाता है। स्वतंत्रता के बाद से अब तकलोकसभा और राज्य विधानसभाओं के 400 से अधिक चुनावों ने निष्पक्षता और पारदर्शिता के प्रति भारत के चुनाव आयोग की प्रतिबद्धता को प्रदर्शित किया है। हालाँकि, अलग-अलग और बार-बार होने वाले चुनावों की प्रकृति ने एक अधिक कुशल प्रणाली की आवश्यकता पर चर्चाओं को जन्म दिया है। इससे “एक राष्ट्र, एक चुनाव” की अवधारणा में रुचि फिर से जग गई है।
“एक राष्ट्र, एक चुनाव” के इस विचार को एक साथ चुनाव के रूप में भी जाना जाता है, जो लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों को एक ही साथ कराने का प्रस्ताव प्रस्तुत करता है। इससे मतदाता अपने निर्वाचन क्षेत्रों में एक ही दिन सरकार के दोनों स्तरों के लिए अपने मत डाल सकेंगे, हालाँकि देश भर में मतदान कई चरणों में कराया सकता है। इन चुनावी समय-सीमाओं को एक साथ जोड़ने के दृष्टिकोण का उद्देश्य चुनावों के लिए किए जाने वाले प्रबंध से जुड़ी चुनौतियों का समाधान करना, इसमें लगने वाले खर्च को घटाना और लगातार चुनावों के कारण कामकाज में होने वाले व्यवधानों को कम करना है।
भारत में एक साथ चुनाव कराने के संबंध में उच्च स्तरीय समिति की रिपोर्ट को 2024 में जारी किया गया था। रिपोर्ट ने एक साथ चुनाव के दृष्टिकोण को लागू करने के लिए एक व्यापक रूपरेखा प्रदान की। इसकी सिफारिशों को 18 सितंबर 2024 को केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा स्वीकार किया गया, जो चुनाव सुधार की दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। इस प्रक्रिया के समर्थकों का तर्क है कि इस तरह की प्रणाली प्रशासनिक दक्षता को बढ़ा सकती है, चुनाव संबंधी खर्चों को कम कर सकती है और नीति संबंधी निरंतरता को बढ़ावा दे सकती है। भारत में शासन को सुव्यवस्थित करने और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को उसके अनुकूल बनाने करने की आकांक्षाओं को देखते हुए “एक राष्ट्र, एक चुनाव” की अवधारणा एक महत्वपूर्ण सुधार के रूप में उभरी है जिसके लिए गहन विचार-विमर्श और आम सहमति की आवश्यकता है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि
एक साथ चुनाव कराने की अवधारणा भारत में नयी नहीं है। संविधान को अंगीकार किए जाने के बाद, 1951 से 1967 तक लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ आयोजित किए गए थे। लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के पहले आम चुनाव 1951-52 में एक साथ आयोजित किए गए थे। यह परंपरा इसके बाद 1957, 1962 और 1967 के तीन आम चुनावों के लिए भी जारी रही।
हालाँकि, कुछ राज्य विधानसभाओं के समय से पहले भंग होने के कारण 1968 और 1969 में एक साथ चुनाव कराने में बाधा आई थी। चौथी लोकसभा भी 1970 में समय से पहले भंग कर दी गई थी, फिर 1971 में नए चुनाव हुए। पहली, दूसरी और तीसरी लोकसभा ने पांच वर्षों का अपना कार्यकाल पूरा किया। जबकि, आपातकाल की घोषणा के कारण पांचवीं लोकसभा का कार्यकाल अनुच्छेद 352 के तहत 1977 तक बढ़ा दिया गया था। इसके बाद कुछ ही, केवल आठवीं, दसवीं, चौदहवीं और पंद्रहवीं लोकसभाएं अपना पांच वर्षों का पूर्ण कार्यकाल पूरा कर सकीं। जबकि छठी, सातवीं, नौवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं और तेरहवीं सहित अन्य लोकसभाओं को समय से पहले भंग कर दिया गया।
पिछले कुछ वर्षों में राज्य विधानसभाओं को भी इसी तरह की बाधाओं का सामना करना पड़ा है। विधानसभाओं को समय से पहले भंग किया जाना और कार्यकाल विस्तार बार-बार आने वाली चुनौतियां बन गए हैं। इन घटनाक्रमों ने एक साथ चुनाव के चक्र को अत्यंत बाधित किया, जिसके कारण देश भर में चुनावी कार्यक्रमों में बदलाव का मौजूदा स्वरूप सामने आया है।
एक साथ चुनाव कराने के संबंध में उच्च स्तरीय समिति
भारत सरकार ने 2 सितंबर 2023 को पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक साथ चुनाव कराने पर उच्च स्तरीय समिति का गठन किया था। इसका प्राथमिक उद्देश्य यह पता लगाना था कि लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के लिए एक साथ चुनाव कराना कितना उचित होगा। समिति ने इस मुद्दे पर व्यापक स्तर पर सार्वजनिक और राजनीतिक प्रतिक्रियाएं मांगीं और इस प्रस्तावित चुनावी सुधार से जुड़े संभावित लाभों और इसकी चुनौतियों का विश्लेषण करने के लिए विशेषज्ञों से परामर्श किया। यह रिपोर्ट समिति के निष्कर्षों, संवैधानिक संशोधनों के लिए इसकी सिफारिशों और शासन, संसाधनों तथा जन-मानस पर एक साथ चुनाव के अपेक्षित प्रभाव का विस्तृत अवलोकन प्रस्तुत करती है।
मुख्य निष्कर्ष:
- जनता की प्रतिक्रिया: समिति को 21,500 से अधिक प्रतिक्रियाएँ प्राप्त हुईं, जिनमें से 80% एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में थीं। प्रतिक्रियाएँ देश के सभी कोनों से आईं, जिनमें लक्षद्वीप, अंडमान और निकोबार, नागालैंड, दादरा और नगर हवेली शामिल हैं। सबसे अधिक प्रतिक्रियाएँ तमिलनाडु, महाराष्ट्र, कर्नाटक, केरल, पश्चिम बंगाल, गुजरात और उत्तर प्रदेश से प्राप्त हुईं।
- राजनीतिक दलों की प्रतिक्रियाएँ: 47 राजनीतिक दलों ने इस विषय पर अपने विचार प्रस्तुत किए। इनमें से 32 दलों ने संसाधनों के सर्वोत्तम उपयोग और सामाजिक सद्भाव जैसे लाभों का हवाला देते हुए एक साथ चुनाव कराने का समर्थन किया। 15 दलों ने संभावित लोकतंत्र विरोधी प्रभावों और क्षेत्रीय दलों के हाशिए पर जाने से जुड़ी चिंताएं व्यक्त कीं।
- विशेषज्ञ परामर्श: समिति ने भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीशों, पूर्व चुनाव आयुक्तों और विधि विशेषज्ञों से परामर्श किया। इनमें से अधिकाधिक लोगों ने एक साथ चुनाव कराने की अवधारणा का समर्थन कियाऔर बार-बार चुनाव कराने से संसाधनों की बर्बादी तथा सामाजिक-आर्थिक बाधाओं पर ज़ोर दिया।
- आर्थिक प्रभाव: सीआईआई, फिक्की और एसोचैम जैसे व्यापारिक संगठनों ने प्रस्ताव का समर्थन किया। उन्होंने बार-बार चुनाव से जुड़ी समस्याओं और खर्च में कमी लाकर आर्थिक स्थिरता पर इसके सकारात्मक प्रभाव को उजागर किया।
- कानूनी और संवैधानिक विश्लेषण: समिति ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 82ए और 324ए में संशोधन का प्रस्ताव रखा है, ताकि लोकसभा, राज्य विधानसभाओं और स्थानीय निकायों के लिए एक साथ चुनाव कराए जा सकें।
- कार्यान्वयन के लिए चरणबद्ध दृष्टिकोण: समिति ने एक साथ चुनाव की व्यवस्था दो चरणों में लागू करने की सिफारिश की है:
o चरण 1: लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराना।
o चरण 2: लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनावों के 100 दिनों के भीतर नगर पालिकाओं और पंचायतों के चुनाव एक साथ कराना।
- मतदाता सूची और इलेक्ट्रॉनिक मतदाता फोटो पहचान पत्र (ईपीआईसी) एक साथ बनाने की प्रक्रिया: समिति ने राज्य चुनाव आयोगों द्वारा मतदाता सूची तैयार करने में उनकी अक्षमताओं को उजागर किया और सरकार के सभी तीन स्तरों के लिए एकल मतदाता सूची और एकल ईपीआईसी बनाने की सिफारिश की। इससे दोहराव और त्रुटियों में कमी आएगी, मतदाता अधिकारों की रक्षा होगी।
- बार-बार चुनाव के बारे में जन-भावना: जनता की प्रतिक्रियाओं से बार-बार चुनाव के नकारात्मक प्रभावों, जैसे मतदाताओं में थकावट और शासन में व्यवधान, के बारे में उनकी महत्वपूर्ण चिंताओं का संकेत मिला। एक साथ चुनाव होने से इनमें कमी आने की उम्मीद है।
एक साथ चुनाव कराने का औचित्य
पूर्व राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक साथ चुनाव कराने संबंधी उच्च स्तरीय समिति द्वारा जारी रिपोर्ट के निष्कर्षों पर आधारित निम्नांकित बिंदु द्रष्टव्य हैं:
- शासन में निरंतरता को बढ़ावा: देश के विभिन्न भागों में चल रहे चुनावों के कारण, राजनीतिक दल, उनके नेता, विधायक तथा राज्य और केंद्र सरकारें अक्सर शासन को प्राथमिकता देने के बजाय आगामी चुनावों की तैयारी पर अपना ध्यान केंद्रित करते हैं। एक साथ चुनाव कराने से सरकार का ध्यान विकासात्मक गतिविधियों और जन कल्याण को बढ़ावा देने के उद्देश्य से नीतियों के कार्यान्वयन पर केंद्रित होगा।
- नीतिगत निर्णय लेने में देर नहीं होगी: चुनावों के दौरान आदर्श आचार संहिता के कार्यान्वयन से नियमित प्रशासनिक गतिविधियाँ और विकास संबंधी पहल बाधित होती हैं। यह व्यवधान न केवल महत्वपूर्ण कल्याणकारी योजनाओं की प्रगति में बाधा डालता है, बल्कि शासन संबंधी अनिश्चितता को भी जन्म देता है। एक साथ चुनाव कराने से आचार संहिता के लंबे समय तक लागू होने की संभावना कम होगी, जिससे नीतिगत निर्णय लेने में देर नहीं होगी और शासन में निरंतरता संभव होगी।
- संसाधनों को कहीं और इस्तेमाल नहीं किया जा सकेगा: चुनाव ड्यूटी के लिए बड़ी संख्या में कर्मियों की तैनाती, जैसे कि मतदान अधिकारी और सरकारी अधिकारियों को उनकी मूल जिम्मेदारियों से हटाकर चुनाव कार्यों में लगाना संसाधनों के उपयोग के दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है। एक साथ चुनाव आयोजित होने से, बार-बार तैनाती की आवश्यकता कम हो जाएगी, जिससे सरकारी अधिकारी और सरकारी संस्थाएं चुनाव-संबंधी कार्यों के बजाय अपनी प्राथमिक भूमिकाओं पर अधिक ध्यान केंद्रित कर सकेंगे।
- क्षेत्रीय दलों की प्रासंगिकता बनी रहेगी: एक साथ चुनाव कराने से क्षेत्रीय दलों की भूमिका कम नहीं होती। वास्तव में, यह चुनावों के दौरान उनकी अधिक स्थानीयकृत और केंद्रित भूमिका को प्रोत्साहित करता है। इससे क्षेत्रीय दल अपनी अहम चिंताओं और आकांक्षाओं को उजागर कर पाते हैं। यह व्यवस्था एक ऐसा राजनीतिक माहौल बनाती है जिसमें स्थानीय मुद्दे राष्ट्रीय चुनाव अभियानों से प्रभावित नहीं होते, इस प्रकार क्षेत्रीय मुद्दों को उठाने वालों की प्रासंगिकता बनी रहती है।
- राजनीतिक अवसरों में वृद्धि: एक साथ चुनाव कराने से राजनीतिक दलों में अवसरों और जिम्मेदारियों का न्यायोचित तरीके से आवंटन होता है। वर्तमान में, किसी पार्टी के भीतर कुछ नेताओं का चुनावी परिदृश्य पर हावी होना, कई स्तरों पर चुनाव लड़ना और प्रमुख पदों पर एकाधिकार असामान्य नहीं है। एक साथ चुनाव के परिदृश्य में, विभिन्न दलों का प्रतिनिधित्व करने वाले राजनीतिक कार्यकर्ताओं के बीच विविधता और समावेशिता की अधिक गुंजाइश होती है, जिससे नेताओं की एक विस्तृत श्रृंखला उभर कर सामने आती है जो लोकतांत्रिक प्रक्रिया में अहम योगदान देती है।
- शासन पर ध्यान: देश भर में चल रहे चुनावों का चल रहा चक्र सुशासन से ध्यान भटकाता है। राजनीतिक दल अपनी जीत सुनिश्चित करने के लिए चुनाव-संबंधी गतिविधियों पर अधिक ध्यान केंद्रित करते हैं, जिससे विकास और आवश्यक शासन के लिए कम समय बचता है। एक साथ चुनाव पार्टियों को मतदाताओं की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए अपने प्रयासों को समर्पित करने की अनुमति देते हैं, जिससे संघर्ष और आक्रामक प्रचार की घटनाओं में कमी आती है।
- वित्तीय बोझ में कमी: एक साथ चुनाव कराने से कई चुनाव चक्रों से जुड़े वित्तीय खर्च में काफी कमी आ सकती है। यह मॉडल प्रत्येक व्यक्तिगत चुनाव के लिए मानव-शक्ति, उपकरणों और सुरक्षा संबंधी संसाधनों की तैनाती से संबंधित व्यय को घटाता है। इससे होने वाले आर्थिक लाभों में संसाधनों का अधिक कुशल आवंटन और बेहतर राजकोषीय प्रबंधन शामिल हैं, जो आर्थिक विकास और निवेशकों के विश्वास के लिए अनुकूल वातावरण को बढ़ावा देता है।
पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक साथ चुनाव कराने के संबंध में गठित उच्च स्तरीय समिति ने भारत की चुनावी प्रक्रिया में एक क्रांतिकारी बदलाव की नींव रखी है। लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव चक्रों को एक साथ रखकर, समिति की सिफारिशें लगातार चुनावों से जुड़ी शासन में व्यवधान और संसाधनों की बर्बादी जैसी दीर्घकालिक चुनौतियों को दूर करने का आश्वासन देती हैं। संवैधानिक संशोधनों के साथ-साथ एक साथ चुनाव लागू करने के लिए प्रस्तावित चरणबद्ध दृष्टिकोण भारत में अधिक कुशल और स्थिर चुनावी माहौल का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। व्यापक सार्वजनिक और राजनीतिक समर्थन के साथ, एक साथ चुनाव की अवधारणा भारत की लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं को सुव्यवस्थित करने और शासन की दक्षता को बढ़ाने के लिए तैयार है।