Delhi history: दिल्ली की बोली-बानी, मेले-ठेले और रीति-रिवाज

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली

Delhi history: आज की दिल्ली के भौगोलिक विस्तार के बावजूद उस ठहरी हुई दुनिया, ‘दिल्लीवालों’ की दिल्ली का तसव्वुर अब भी उस पीढ़ी के ज़हन में मौजूद है जो आज़ादी से पहले शहर के गली-कूचों में आबाद थी।

चांदनी चौक में पैर रखते ही वह यादों में कुलबुलाकर उठ खड़ी होती है। सन् चालीस के आसपास की बात है। दिल्ली तब लगभग कैद थी। सिमटी हुई, कुछ बन्द मुट्ठी की तरह जिसका कसाव ढीला तो पड़ने लगा था पर खुलना तो दूर, वह ठीक-ठीक पसर भी नहीं पाई थी।

असली दिल्ली तो वही समझी जाती थी जो कश्मीरी गेट, अजमेरी गेट, लाहौरी गेट, मोरी गेट और दिल्ली गेट को जोड़नेवाली फ़सीलों में बन्द थी, जिसके खंडहर आज भी कभी उसकी पुख्ता मौजूदगी के गवाह हैं। शहरपनाह के बाहर जो था उसके बारे में बेगानेपन का भाव रहता था, शहरवालों के मन में। बचपन में इन दरवाज़ों के नाम हमारे लिए बस नाम थे। कुछ बड़े हुए तो किसी ने बता दिया कि दरवाज़ों के नाम उन शहरों के नाम पर रख दिए गए थे, जिनकी तरफ़ जाने का रास्ता इन दरवाज़ों से होकर जाता था। इस व्याख्या से अजमेरी गेट, कश्मीरी गेट और लाहौरी गेट के नामकरण का खुलासा तो किसी हद तक हुआ पर मोरी गेट और तुर्कमान गेट की गुत्थी तसल्लीबख्श ढंग से नहीं सुलझी।

पर सबसे कठिन मसला था दिल्ली गेट का। उस समय दिल्ली उत्तर-दक्षिण-पूर्व- पश्चिम चारों तरफ़ वैसे नहीं फैली थी जैसे बाद में बेतरतीब ढंग से फैलती चली गई। तब तो बस दिल्ली थी और नई दिल्ली।

एक सम्भावना यह थी कि दिल्ली दरवाज़े का नाम उस समय नई दिल्ली की तरफ़, यानी अंग्रेज़ों के द्वारा बनाई गई नई दिल्ली का रास्ता दिखाने की वजह से पड़ा। पर बात जँचती नहीं थी। बाद में कुछ जानकारों ने समझ में इजाफा करते हुए बताया कि यह दरवाज़ा उस दिल्ली की तरफ़ ले जाता है जो असली दिल्ली थी।

वर्तमान महरौली के आसपास बसी हुई, जहां अब महरौली गांव है। जहां वह ऐतिहासिक लौह स्तम्भ है जिसके बारे में तरह-तरह की अटकलें लगाई जाती हैं। जहाँ योगमाया का प्राचीन मन्दिर है, जिससे ‘फूलवालों की सैर’ के ऐतिहासिक मेले की शुरुआत-कथा जुड़ी है।

असली-नकली, नई-पुरानी का अन्तिम रूप से फैसला करना तो जिनके ज़िम्मे रहा है, वे तरह-तरह से अपनी ज़िम्मेदारी को अंजाम देते रहे हैं और रहेंगे। पर इतना तय है कि पुराने दिल्लीवासियों के लिए दिल्ली का अर्थ था चांदनी चौक के चारों तरफ़ कटरों, गली-कूचों, बाज़ारों और सड़कों की शक्ल में शिरा जाल की तरह फैली दिल्ली।

जब ‘दिल्ली’ का जिक्र करते हुए उसकी निजी पहचान, सभ्यता और संस्कृति की बात की जाती है तो मुराद इन्हीं इलाक़ों में बसी ज़िन्दगी से होती है। वैसे दूर इलाक़ों में मुगल बादशाहों, हाकिमों के मकबरे, औलिया पीरों की दरगाहें, बेगमों के रिहाइशी महल एक अलग कहानी कहते हैं। वे पुरातात्त्विक दिलचस्पी के विषय हैं। हर इमारत का अपना वास्तु शिल्प और इतिहास है जिसके पीछे अजीबोगरीब क़िस्से-कहानियाँ हैं। कुछ दास्तानें मशहूर इमारतों के साये में अक्सर गुमनामी या उपेक्षा की भेंट चढ़ती रही हैं। कुतुब मीनार के गिर्दे में स्थित ‘जमाली कमाली’ की कब्र और उसी के पीछे की मस्जिद ऐसी ही अनेक इमारतों में से एक है।

यह दिल्ली, जिसके बार-बार बसने-उजड़ने का हवाला ‘जिक्र-ए-मीर’ में मिलता है। जिसके उजड़ने की दास्तान को ‘शहर-ए-आशोब’ नाम देकर ‘मीर’ और ‘सौदा’ ने कलमबन्द किया, वही दिल्ली नहीं है जिसके बारे में सामान्य ढंग से कह दिया जाता है कि दिल्ली एक विशिष्ट सभ्यता और संस्कृति का भी नाम है जो सैकड़ों ही नहीं, बल्कि हजारों वर्षों से हमारी बहुमूल्य निधि रही है। मुगलों की दिल्ली, मुगलिया सल्तनत के पतन काल की दिल्ली और 1857 के बाद के वर्षों में गिर पड़कर ठहराव लेती बीसवीं सदी के आरम्भिक वर्षों की दिल्ली के अलग-अलग चेहरे रहे होंगे, इसमें शक की गुंजाइश बहुत कम है।

फिलवक्त जिस दिल्ली की सभ्यता, संस्कृति, रहन-सहन, बोली-बानी, मेले- ठेले, रीति-रिवाज, यानी कुल मिलाकर एक जीवन शैली की पहचान और पुनरुद्धार की कोशिश दिखाई पड़ती है वह लगभग वही दिल्ली है जिसकी हस्ती बकौल मियाँ ग़ालिब, “मुनहसर कई हंगामों पर थी। किला, चांदनी चौक, हर रोज़ा बाज़ार मस्जिद-ए-जामा का, हर हफ़्ते सैर यमुना के पुल की, हर साल मेला फूलवालों का ये पाँचों बातें अब नहीं फिर कहो, दिल्ली कहाँ?” ग़ालिब और उनके आगे-पीछे की शायरी में दिल्ली को लेकर एक सीमा तक हौसलापस्ती, विलाप और खीज दिखाई पड़ती है, जिसे ग़ालिब ने अपने खतूत में झल्लाकर कुछ ऐसे व्यक्त किया था।

न सुखनवरी रही, न सुखनदानी, किस बिरते इत्ता पानी?

हाय दिल्ली बाय दिल्ली। भाड़ में जाय दिल्ली।

Spread the love

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here