कुछ श्वेत श्याम रेखाएं, जिनसे दो बीघा जमीन के पोस्टर पर उभरता किसान का स्याह दर्द। जो आसमान की तरफ आशा भरी नजरों से देख रहा है..शायद इस बार बारिश की उम्मीद है। या फिर हाथों में खंजर, पिस्तौल लिए अमिताभ का एंग्री यंग्र मैन का अवतार। जो कागज पर लाल, काले और नारंगी रंगों के मेल से कुछ इस कदर उभरता है कि जैसे क्रोध उनके चेहरे से झलकता है। या फिर मुगले आजम की सलीम-अनारकली का वो पोस्टर जो जवां दिलों की धड़कन बन जाता है। कूंचों से कैनवास पर उतरे ये रंग गुरूवार की आधी रात दिल्ली की गलियों में खंभों, दीवारों पर चस्पा कर दिए जाते थे। जिनका बच्चों से लेकर बड़े तक बेसब्री से इंतजार करते थे। कभी रिक्शे के पीछे चिपके इन पोस्टरों संग ढोल-नगाड़े बजा अभिनय करते कलाकारों को देखने हुजूम उमड़ पड़ता था। बदलते वक्त के साथ हाथ से बने इन पोस्टर का दौर भले ही खत्म हो गया हो लेकिन पुरानी दिल्ली के जेहन में इनकी यादें आज भी ताजा है। इस अंक में हम दिल्ली में फिल्मी पोस्टर के इतिहास से आपको रूबरू कराएंगे।  
यूं शुरू हुआ चलन
इकबाल रिजवी अपनी किताब पोस्टर बोलते हैं, में लिखते हैं कि हाथ से बनने वाले पोस्टर विधा की शुरूआत 1850 के आसपास यूरोप में जन्मी। अब तक की खोज के मुताबिक फ्रांस के रहने वाले एक चेक नागरिक आलफांसो मूका को पहला पोस्टर बनाने का श्रेय जाता है। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि पोस्टर के जनक 1836 में जन्में ज्यूलियस चेरेट थे। भारत में पोस्टर की शुरूआत अंग्रेजी हुकूमत के दौरान इश्तेहार लगाने से हुई थी। इन इश्तेहारों में कोई चित्र नहीं होता था। क्यों कि तब देश में लीथोग्राफी की उपलब्धता सस्ती नहीं थी। भारत में फिल्मों के प्रचार के लिए पोस्टर का पहली बार प्रयोग के प्रमाण सन 1920 में मिलते हैं। पेशे से पेंटर और बाद में फिल्मकार बने बाबू राव पेंटर ने फिल्म के प्रचार में दृश्य की अहमियत को सबसे पहले पहचाना था। 1920 में अपनी पहली मूक फिल्म वत्सलाहरण बनायी तो उनके दिमाग में पोस्टर बनाने का आइडिया आया। उन्होंने कागज पर हाथ से पोस्टर तैयार किया। इस तरह बाबू राव पेंटर भारत में सिनेमा के पोस्टर के जनक माने जाते हैं। 1924 में बाबू राव की ही एक मूक फिल्म कल्याण खजिन वह सबसे प्राचीन फिल्म है जिसका पोस्टर उपलब्ध है। 1930 के दशक में भारत में छपाई का काम पहले से कहीं ज्यादा असरदार बन गया। पोस्टर की छपाई के सबसे बड़े केंद्र मुंबई और कोलकाता थे। 
 
इस तरह होता था चयन 
इकबाल रिजवी कहते हैं कि पोस्टर बनाना एक कला है। पहले पोस्टर डिजाइन करने से पहले निर्देशक पोस्टर बनाने वाले कलाकार से बात करता था। फिल्म की शूटिंग हो जाने के बाद फिल्म के प्रमुख पात्रों का एक खास फोटो सेशन होता था। जिसमें पोस्टर आर्टिस्ट के मुताबिक फोटोग्राफ लिए जाते थे। इन्हीं तस्वीरों के लिए आर्टिस्ट पोस्टर की डिजाइन तैयार करते थे। पोस्टर हाथ से ही डिजाइन भी किए जाते थे। बकौल किताब चौथे दशक में पत्रिकाओं में विज्ञापन  देने के लिए पोस्टर कलाकारों से अलग से पोस्टर बनवाए जाते थे। जिनमें रेखाचित्रों और फोटोग्राफ का प्रयोग प्रमुखता से होता था। ये फिल्म के मुख्य पोस्टर की अपेक्षा काफी सस्ते थे। साठ के दशक में कैमरों ने धीरे-धीरे पोस्टर की जगह लेनी शुरू कर दी। 
 एक ही फिल्म के कई पोस्टर 
एक ही फिल्म के एक से अधिक पोस्टर बनाने का चलन मुगल-ए-आजम से माना जाता है। बाद के दौर में तो निर्माता निर्देशक एक फिल्म की डेढ़ लाख तक पोस्टर छपवाने लगे। फिल्म के प्रिंट के साथ देश के अन्य हिस्सों में भेजते थे। यहीं नहीं फिल्म प्रदर्शित होने के बाद कामयाब होने के बाद फिर से पोस्टर छपते थे। जिनमें सुपरहिट, म्यूजिकल हिट, सिल्वर जुबली, डायमंड जुबली जैसे शब्दों का इस्तेमाल होता था। यदि किसी फिल्म के गाने लोग पसंद करते थे तो गाने की लाइनें भी पोस्टर पर लिखी जाती थी।  
सफलता तय करती चेहरा 
फिल्मी दुनिया का सबसे बड़ा सच है सफलता। सितारों की सफलता और असफलता के साथ पोस्टर पर उनका चेहरा सिकुड़ता और फैलता है। फिल्म गहरी चाल और परवाना जब रिलीज हुई तो अमिताभ बच्चन को कोई नहीं जानता था। लेकिन उनके सुपरस्टार बनने के बाद जब ये फिल्में दोबारा रिलीज हुई तो पूरे पोस्टर पर अमिताभ का ही चेहरा था। इसी तरह जंजीर की रिलीज के समय लोकप्रियता के मामले में जया भादुड़ी, अमिताभ से कहीं आगे थी। लिहाजा, शुरूआती पोस्टर में जया को प्रमुखता से दिखाया गया। 
 ऐसे बनाए जाते थे पोस्टर 
शुरूआती दिनों में पोस्टर का काम बहुत मेहनत भरा था। पहले कैनवास या ऑयल शीट पर हाथ से पोस्टर बनाए जाते थे। बाद में इसका डिजाइन तैयार कर पोस्टर छपते थे। इतना ही नहीं शूटिंग खत्म होने के बाद स्टूडियो में अलग सेट लगाकर फोटो खिंचवाया जाता था। स्केच करने की जिम्मेदारी किसी एक कलाकार की होती थी जबकि बैकग्राउंड कोई और कलाकार बनाता था। आकृतियों में रंग कोई और जबकि शीर्षक कोई और कलाकार बनाता था। बाद में वरिष्ठ कलाकार फाइनल टच देकर तस्वीर को अंजाम तक पहुुंचाता था। आमतौर पर पोस्टर के 80 फीसद पर चित्र और 20 फीसद पर फिल्म एवं कलाकारों के नाम होते थे। फिल्म के नाम थ्रीडी शैली में लिखे जाते थे ताकि वो दूर से पढ़े जा सकें। पोस्टर पर फिल्मों के नाम नई से नई शैली में लिखने के लिए कलाकारों के बीच प्रतिस्पद्र्धा होती थी। हिंदी-उर्दू और अंग्रेजी में नाम लिखे जाते थे।  
कहानी के अनुसार रंगों का चयन 
फिल्म की कहानी के हिसाब से पोस्टर में रंगों का चयन होता था। यदि कहानी दर्द भरी होती थी तो सीपिया या स्लेटी रंगों को प्रमुखता दी जाती थी। हास्य पर आधारित फिल्मों के पोस्टर के लिए चेहरे पर लाल एवं अन्य रंगों के मिश्रण से रेखाएं खींची जाती थी। यदि फिल्म की कहानी रोमांटिक है तो गुलाबी, लाल, नारंगी रंग का अधिक से अधिक प्रयोग होता था। इकबाल कहते हैं कि अमिताभ बच्चन के साथ पोस्टरों का कलेवर भी बदला। पहले हीरो का सिर्फ गुस्सा दिखता था लेकिन अमिताभ के हाथ में पिस्तौल, चाकू दिखाया जाने लगा। इसका मतलब होता था कि हीरो अन्याय के खिलाफ जंग लड़ता है। बाद में शत्रुघ्न सिन्हा, धर्मेंद्र, विनोद खन्ना समेत अन्य को भी एंग्री यंग मैन की तरह पोस्टरों में दिखाया गया।  
दिल्ली में अनूठा पोस्टर प्रचार 
इतिहासकार कहते हैं कि पुरानी दिल्ली के जामा मस्जिद, कश्मीरी गेट इलाके में पोस्टर बनाने वाले कलाकार थे। ये कलाकार हाथों से पोस्टर बनाते थे। एवं फिर इनका प्रचार होता था। तरीका इतना लाजवाब होता था कि लोग खुद ब खुद फिल्म देखने पहुंच जाते थे। बिजली के खंभों, दीवारों पर पोस्टर लगाए जाते थे। लाउड स्पीकर से प्रचार होता था। एक आदमी माइक पर चिल्लाकर प्रचार करता था। एक लड़का हीरो और दूसरा हीरोइन, विलेन बनकर फिल्म के कुछ संवाद बोलकर प्रचार करते थे। वहीं एक अन्य समूह सुबह कालोनियों में जाकर ढोल पीटकर पोस्टर लगाते हुए प्रचार करता था। विलेन के लिए ऐसे आदमी का चयन होता था जिसके लंबे बाल होते थे। खतरनाक आंखे होती थी। एक्टिंग इनकी भी जबरदस्त होती थी। मैं बचपन में इन्हें देखकर डर जाया करता था।  
दिल्ली में नगर निगम ने लगाया प्रतिबंध  
पोस्टर पर सेंसरशिप एक तरह से 80 के दशक से शुरू हुई थी। दिलीप कुमार और नर्गिस की फिल्म बाबुल के पोस्टर पर अश्लीलता के आरोप लगे। इसे लेकर दिल्ली में खूब बवाल भी हुआ था। उस समय पोस्टर बनाने वाले कलाकार निसार भारती पोस्टर बोलते हैं मैं बताते हैं कि बाबुल के पोस्टर जैसे ही दिल्ली की चिपकाए गए, खूब हंगामा हुआ। इसकी आलोचना शुरू हो गई। एक उर्दू अखबार ने लिखा कि इस तरह के पोस्टर से युवा पीढ़ी बिगड़ेगी। दरअसल, इस पोस्टर में दिलीप कुमार और नर्गिस का चेहरा एक दूसरे के बेहद करीब दिखाया गया था। मामले ने तुुल पकड़ा तो दिल्ली नगर निगम ने एक कानून बना दिया। जिसके तहत बिना नगर निगम की अनुमति के दिल्ली में फिल्मी पोस्टर चिपकाने पर पाबंदी लगा दी गई। इसके बाद कलाकार पोस्टर बनाने के बाद पहले नगर निगम से पास कराते थे।  
पुराने फिल्मी पोस्टरों के कद्रदान 
हौजखास विलेज में आल आर्ट पुराने फिल्मी पोस्टरों का ठौर है। मालिक दीपक जैन बताते हैं कि शुरू से ही उन्हें ये पोस्टर अपनी तरफ खींचते थे। कहते हैं कि फिल्म इंडस्ट्री मुंबई में थी, लेकिन डिस्ट्रीब्यूूटर तो यहां भी थे। पहले पोस्टर का आर्ट वर्क बनाया जाता था। मसलन, कहानी के अनुसार पोस्टर बनाए जाते थे। फिर ये पोस्टर बनने के बाद मुंबई से ही रील के साथ पोस्टर, बैनर भेजे जाते थे। दीपक बताते हैं कि आजकल पोस्टर को देखने वाली आंखे नहीं है। अब तो डिजीटल ही पसंद किए जाते हैं। जहां तक प्रचार का बात है तो मुझे अपना बचपन याद है जब रिक्शे पर पोस्टर लगा प्रचार होता था और हम बड़ी उत्सुकता से देखते और पढ़ते थे। बकौल दीपक, गुजरते वक्त के साथ पुराने फिल्मी पोस्टरों का शौक आज भी लोगों को है। पुराने फिल्मों के पोस्टर आज भी लोग खरीदते हैं। कई ऐसे युवा आते हैं जो अपने मां-बाप या फिर किसी बुजुर्ग को बतौर गिफ्ट देने के लिए पुराने फिल्मों के पोस्टर खरीदते हैं। यही नहीं अब तो कई थीम बेस्ड रेस्टोरेंट भी पुराने पोस्टर की डिमांड करते हैं। दीपक की मानें तो आल आर्ट में 40 के दशक की फिल्मों के पोस्टर भी मिलते हैं। राजेश खन्ना और धर्मेन्द्र की फिल्मों के पोस्टर सबसे ज्यादा लोग खरीदते हैं। 
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