चांदनी चौक के सभी गली-मुहल्ले एक जैसे दिखते थे
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
आज से पचास साल पहले पुरानी दिल्ली (Old Delhi) के हर मोहल्ले की बनावट एक जैसी होती थी। कूंचे/ गली के नुक्कड़ पर गर्मियों में टाट बुरादे में लपेटी सिल्ली से काट-काटकर बर्फ के टुकड़े बेचता बर्फ़वाला।
वहीं किसी मकान की गली में खुलती दुकाननुमा कोठरियों में से माचिस, चूरन और बच्चों की खट्टी-मीठी गोलियों से लेकर रोज़मर्रा काम में आनेवाली न जाने कितनी चीजें बेचते बिसाती।
इन दुकानों की सबसे बड़ी खूबी थी परिवारों की सहज पहुँच के भीतर इनकी स्थिति। घर के नौकर या किसी बच्चे को ज़रूरत पड़ने पर सौदा लाने के लिए दौड़ा दिया जाता। रुपए में उस समय 100 पैसे नहीं 16 आने, हर आने के 4 पैसे यानी कुल 64 पैसे होते थे। पैसे में भी दो धेले या तीन पाइयाँ। हर सिक्के का मोल था। एक या दो पैसे की बर्फ घरों में सूरज चढ़ते ही मंगाकर बुरादे में दबा दी जाती या टाट के टुकड़े में लपेटकर रख दी जाती। कम-से-कम आधे दिन की ज़रूरत पूरी करने के लिए उतना काफ़ी था।
सारी दोपहर गलियां खोमचेवालों की आवाज़ों से गूंजती रहती। याद नहीं, कभी बच्चों को एक या दो पैसे से ज़्यादा कुछ दिया जाता हो। खोमचे, आवाजें, बच्चे, घर सब तय थे। आवाज़ सुनते ही बच्चे हवेलियों के बाहरी चबूतरे पर पहुँच जाते और एक पैसे में फ़ी धेले के हिसाब से दो चीज़ों की प्राप्ति कर हवा हो लेते।
न परिवार नियोजन कोई समस्या थी, न प्रदूषण। बिजली-पानी 24 घंटे इफरात से। हर जोड़े के पांच-छह बच्चे होना आम बात थी। संयुक्त परिवारों की सदस्य संख्या का इससे सहज अनुमान लगाया जा सकता है। खाते-पीते परिवारों में बीस-पच्चीस सदस्यों का खाना पकना आम बात थी। खाना बनाता महाराज, तैयारी करतीं घर की बहुएं।
खानेवालों के क्रम में सबसे पहले मर्द, उसके बाद औरतें, बीच में जहां-तहां बच्चे। खाने की जगह भी तय। रसोईघर में चटाई या पटरों के सामने लगी चौकी पर थाली में महाराज खाना परोसकर, ‘आते जाओ, खाते जाओ, चलते जाओ’ की लय बांधकर सबको निबटा देता।
खाने की कुर्सी- मेज़वाले अलग कमरे तो बस अंग्रेज़ अफ़सरों और काले नौकरशाहों की शहर के बाहरवाली कोठियों में होते थे। शहर के घरों में तो कभी-कभार कोई मेहमान आता तो जिसका मेहमान होता, खाना उसी के कमरे में चौकी लगाकर पहुँचा दिया जाता था। खाने-पीने का तौर-तरीक़ा पाक्-कला, व्यंजन जातियों के हिसाब से-बनिए, जैन, खत्री, कायस्थ, मुसलमान। शाकाहारी परिवार, मांसाहारियों के यहाँ खाने-पीने से यथासम्भव परहेज करते थे। दिलचस्प बात यह थी कि बोली- बानी, शब्द-सम्पदा, उच्चारण सबमें जातिगत और वंशगत संस्कारों के कारण ऐसा अन्तर था कि मुंह खोलते ही अन्दाज़ा लगाया जा सकता था कि वक़्ता का कुल-गोत्र क्या है। औरतों और मर्दों की जबान का फ़र्क अलग। चाहें तो इसे घरेलू और बाज़ारू जबान का फर्क कहा जा सकता है।