swami shailendra saraswati ji
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स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती के अनुसार — शांति कोई खोजने की चीज़ नहीं, बल्कि जागरूकता से स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होने वाली स्थिति

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।

जानिए जीवन में अशांति के 10 कारण: हर युग में मनुष्य ने एक ही प्रश्न पूछा है — “मैं शांति कैसे पाऊं?” पर स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती कहते हैं कि यह प्रश्न ही दिशा भटकाने वाला है। क्योंकि शांति खोजने की चीज़ नहीं, बल्कि समझने की प्रक्रिया है। अगर कोई व्यक्ति अपने भीतर की अशांति को सही ढंग से पहचान ले, तो शांति अपने आप उतर आती है। डॉक्टर पहले बीमारी की जड़ खोजता है, फिर इलाज करता है; ठीक वैसे ही, हमें भी पहले यह देखना होगा कि हमारी बेचैनी की जड़ें कहां हैं।

1. ईश्वर पर दोष डालना

मनुष्य की सबसे पुरानी आदत है — जो भी गलत हो, उसका दोष किसी “ऊपर वाले” पर डाल दो। “ईश्वर की मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता” — इस वाक्य ने इंसान से उसकी जिम्मेदारी ही छीन ली। जब हम हर पीड़ा का कारण ईश्वर की योजना मान लेते हैं, तो भीतर से असहाय हो जाते हैं। स्वामी कहते हैं — “जब तक तुम आकाश की ओर हाथ जोड़कर किसी से कृपा मांगते रहोगे, तुम अपनी ताकत भूलते रहोगे।” प्रार्थना बुरी नहीं, पर यह तभी सार्थक है जब वह हमें सक्रिय करे, न कि निष्क्रिय बनाए। शांति तभी आती है जब हम यह स्वीकार करते हैं कि जीवन की दिशा हमारे हाथों में है।

2. ग्रह-नक्षत्रों का डर

“मेरी कुंडली में शनि अशुभ है, इसलिए जीवन कठिन है।” यह सोच इंसान को अदृश्य भय के घेरे में डाल देती है। स्वामी शैलेन्द्र कहते हैं, “अगर ग्रह हमारे जीवन को नियंत्रित करते हैं, तो फिर मनुष्य के पास विवेक किसलिए है?” ज्योतिष मार्गदर्शन दे सकता है, पर हमारी नियति तय नहीं कर सकता। शांति ग्रहों की दशा से नहीं, मन की दशा से तय होती है। ग्रह नहीं बदल सकते, लेकिन दृष्टिकोण बदला जा सकता है — और वही असली उपचार है।

3. न्यूमरोलॉजी और अंकों का मोह

संख्याओं में विश्वास नया नहीं। लोग अपने नाम, वाहन नंबर, घर के अंक तक बदलते हैं ताकि भाग्य पलट जाए। स्वामी कहते हैं, “अंक बदलने से जीवन नहीं बदलता, क्योंकि अंक जीवन नहीं, मात्र प्रतीक हैं।” शांति तब मिलती है जब हम अपनी प्रतिक्रियाओं को बदलते हैं, न कि अपना नाम या नंबर। अंक तर्क दे सकते हैं, पर अनुभव नहीं बदलते। इस मोह में फंसकर इंसान बाहरी खेल में उलझ जाता है और भीतर की दिशा खो देता है।

4. हस्तरेखा, रत्न और टोटके

हर कठिनाई में हम किसी उपाय की तलाश करते हैं — कोई कहता है नीलम पहन लो, कोई कहता है हनुमान चालीसा का जाप करो। उपाय करने में बुराई नहीं, लेकिन जब इन पर हमारा अंधविश्वास बढ़ता है, तो हम भीतर की शक्ति को भूल जाते हैं।
स्वामी शैलेन्द्र कहते हैं — “रत्न बाहर चमकते हैं, पर असली रत्न भीतर के अनुभव से दमकता है।”
यदि हमारा मन मैला है, तो कोई भी रत्न उसे साफ नहीं कर सकता। शांति किसी वस्तु में नहीं, वह तो मन की स्थिति में होती है।

5. वास्तु और दिशा पर अंधा भरोसा

आजकल हर दूसरा व्यक्ति कहता है — “घर का वास्तु गलत है, इसलिए जीवन में अशांति है।” पर क्या शांति घर की दीवारों में छिपी है? स्वामी कहते हैं — “अगर तुम्हारे मन की दिशा गलत है, तो कोई वास्तु सही नहीं कर सकता।” वास्तु ज्ञान उपयोगी है, लेकिन वह तभी कारगर है जब हमारे भीतर संतुलन हो। अगर भीतर भय, क्रोध और असंतोष है, तो दरवाजे की दिशा नहीं, विचार की दिशा बदलनी होगी।

6. परिवार और समाज को दोष देना

अक्सर हम कहते हैं कि “मेरे परिवारवाले मुझे समझते नहीं, इसलिए मैं परेशान हूं।” कुछ लोग तो एकांत में चले जाते हैं, सोचते हैं कि लोगों से दूरी बनाकर शांति मिल जाएगी। मगर जो मन भीतर से अस्थिर है, वह अकेले में और ज़्यादा घबराता है। स्वामी कहते हैं, “समाज छोड़ देने से मनुष्य समाज-मुक्त नहीं होता, केवल परिस्थिति बदल जाती है।” असली शांति तब आती है जब हम संबंधों के भीतर ही जागरूक रहना सीखें।

7. कर्मफल और पिछले जन्मों का भ्रम

“यह सब मेरे पिछले जन्म के कर्मों का फल है” — यह वाक्य सुनने में दार्शनिक लगता है, लेकिन इससे व्यक्ति निष्क्रिय बन जाता है। स्वामी शैलेन्द्र कहते हैं, “अगर तुम पिछले जन्म का हिसाब नहीं जानते, तो उसका अफसोस क्यों करते हो? यह जन्म तुम्हारे हाथ में है।” कर्म का सिद्धांत केवल यह कहता है कि आज के कर्म ही कल का भाग्य बनाते हैं। इसलिए वर्तमान क्षण को चेतन बनाना ही सबसे बड़ा सुधार है।

8. राजनीति, व्यवस्था और दुनिया को दोष देना

बहुत से लोग अपनी पीड़ा का कारण व्यवस्था, भ्रष्टाचार, या शासन को मानते हैं। पर इतिहास गवाह है — राजतंत्र गया, लोकतंत्र आया, समाजवाद आया, पूंजीवाद फैला — पर अशांति कायम रही। क्योंकि समस्या व्यवस्था में नहीं, विचार में है। जब तक व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी स्वीकार नहीं करता, तब तक कोई व्यवस्था उसे मुक्त नहीं कर सकती। शांति कोई कानून नहीं, एक चेतन स्थिति है।

9. विज्ञान, धन और शिक्षा की झूठी उम्मीदें

हम मान बैठे हैं कि जब हमारे पास तकनीक, पैसा और डिग्री आ जाएगी, तब शांति मिल जाएगी। लेकिन जैसे-जैसे साधन बढ़े, तनाव भी बढ़ गया। आज शिक्षित, समृद्ध और व्यस्त व्यक्ति सबसे ज्यादा बेचैन है। स्वामी कहते हैं — “ज्ञान ने सुविधा दी है, पर बुद्धि ने शांति नहीं दी।” आधुनिकता ने शरीर को आराम दिया, पर मन को अशांत बना दिया।

10. मनोविज्ञान और जेनेटिक्स का भ्रम

अब हम कहते हैं — “मेरे माता-पिता ऐसे थे, इसलिए मैं ऐसा हूं,” या “मेरे जीन ऐसे हैं।” यह सोच हमें असहाय बना देती है। विज्ञान कहता है कि जीन प्रभाव डाल सकते हैं, पर नियति नहीं लिखते। अगर कोई व्यक्ति सजग हो जाए, तो वह अपनी प्रतिक्रियाओं को बदल सकता है। स्वामी शैलेन्द्र कहते हैं — “तुम्हारा अतीत तुम्हें दिशा दे सकता है, पर तुम्हारी चेतना तुम्हें आज़ादी देती है।”

 असली कारण — चेतना की कमी

इन सब कारणों के पीछे एक साझा तत्व छिपा है — अनजागरूकता। स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती कहते हैं, “अशांति इसलिए है क्योंकि हम अपने भीतर की गतिविधियों को देखना भूल गए हैं।” हम लगातार सोचते रहते हैं, पर कभी ठहरकर अपने विचारों को नहीं देखते। यह अनदेखापन ही मन की उलझनें पैदा करता है। जब व्यक्ति खुद को देखना सीख लेता है, तब हर समस्या का स्वरूप बदल जाता है।

शांति किसी साधन से नहीं आती, वह देखने से आती है। जैसे ही हम अपनी प्रतिक्रियाओं को प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखना शुरू करते हैं, भीतर एक हल्कापन उतरता है। यही “लविंग अवेयरनेस” स्वामी शैलेन्द्र सरस्वती की शिक्षा का मूल है — अपने प्रति करुणा और जागरूकता। यह वही क्षण है जब व्यक्ति बाहरी उपायों से मुक्त होकर भीतर स्थिर होता है।

कबीर ने कहा था —
बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय;
जो दिल खोजा आपना, मुझसे बुरा न कोय।”
शांति की यात्रा भी इसी आत्म-दृष्टि से शुरू होती है। जब हम दूसरों को नहीं, खुद को देखने लगते हैं, तो दोष समाप्त हो जाते हैं और भीतर एक मौन उतरता है। वही मौन — वही शांति।

FAQs

क्या ध्यान आवश्यक है?
हाँ, लेकिन ध्यान का अर्थ है “देखना” — खुद को बिना निर्णय के। यह कोई आसन नहीं, एक जीवन दृष्टि है।

क्या बाहरी उपाय बेकार हैं?
नहीं, वे पूरक हैं, पर जब तक भीतर की आदतें नहीं बदलतीं, असर अस्थायी रहेगा।

शांति कब मिलेगी?
जब आप यह मानना छोड़ देंगे कि कोई दूसरा जिम्मेदार है।

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