दागी उम्मीदवारों की भरमार क्यों? प्रमुख दलों में 100% तक अपराधियों को टिकट
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
Bihar Vidhan Sabha election 2025: बिहार विधानसभा चुनाव की गहमागहमी के बीच, मोकामा में हुई दुलारचंद यादव की हत्या ने एक बार फिर यह भयावह प्रश्न खड़ा कर दिया है कि क्या हमारा लोकतंत्र अभी भी बाहुबलियों के ख़ूनी शिकंजे से मुक्त नहीं हो पाया है। चुनावी प्रक्रिया को ‘लोकतंत्र का उत्सव’ कहा जाता है, लेकिन मोकामा की यह वारदात उस उत्सव पर हिंसा और भय का काला साया डालती है। यह घटना सिर्फ एक व्यक्तिगत अपराध नहीं है, बल्कि सुशासन और बेहतर कानून व्यवस्था के दावों पर सीधा प्रहार है।
सवाल अब सिर्फ अनंत सिंह या किसी एक बाहुबली की गिरफ़्तारी तक सीमित नहीं रहा। सवाल यह है कि एक ऐसी राजनीतिक प्रक्रिया में, जहाँ विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मुद्दों पर बहस होनी चाहिए, वहाँ बाहुबलियों का खूनी खेल अब भी क्यों जारी है? क्या बिहार का लोकतंत्र, दशकों की सुशासन की यात्रा के बावजूद, आज भी ‘छोटे सरकार’ और ‘दादा’ के वर्चस्व के सामने बेबस है?
मोकामा का आईना: वर्चस्व की जंग और मतदाताओं का डर
मोकामा विधानसभा क्षेत्र का राजनीतिक इतिहास ही अपराध और राजनीति के खतरनाक गठजोड़ का प्रतीक रहा है। यहाँ के चुनाव विकास के एजेंडे पर नहीं, बल्कि बाहुबलियों के अहंकार और दबदबे पर लड़े जाते हैं। दुलारचंद यादव की क्रूर हत्या, जो पोस्टमार्टम रिपोर्ट के अनुसार किसी भारी वस्तु से कुचलने के कारण हुई है, इसी खूनी प्रतिद्वंद्विता की नवीनतम और दुखद कड़ी है। इस घटना ने मोकामा के आम और गरीब मतदाता में एक बार फिर गहरा भय पैदा कर दिया है। यह स्थिति दिखाती है कि बाहुबलियों ने यहाँ कानून की समानांतर सत्ता स्थापित कर रखी है। जब मतदाता खुलकर अपनी पसंद बताने से डरता है, तो यह ‘लोकतंत्र’ केवल वर्चस्व की पुष्टि का एक औपचारिक अनुष्ठान मात्र बनकर रह जाता है। भय-मुक्त मतदान, जो लोकतंत्र की सबसे बुनियादी शर्त है, यहाँ आज भी एक दूर का सपना है।
ADR का विस्फोटक खुलासा: अपराधियों को दलों का संरक्षण
दुलारचंद यादव की हत्या कोई अपवाद नहीं है, बल्कि राजनीति के अपराधीकरण की व्यापक समस्या का वीभत्स परिणाम है। एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) और बिहार इलेक्शन वॉच की रिपोर्ट ने राजनीतिक दलों के दोहरे चरित्र को संख्यात्मक रूप से उजागर किया है, जो अत्यंत निंदनीय है।
रिपोर्ट के अनुसार, बिहार विधानसभा चुनाव 2025 के पहले चरण में मैदान में उतरे कुल 1,303 उम्मीदवारों में से 423 (32%) ने अपने ऊपर आपराधिक मामले होने की बात स्वीकार की है। इनमें से 354 (27%) उम्मीदवार ऐसे हैं जिन पर हत्या, अपहरण और जबरन वसूली जैसे गंभीर आपराधिक मामले दर्ज हैं।
यह दर्शाता है कि राजनीतिक दल जानबूझकर अपराध की फसल बो रहे हैं। रिपोर्ट के अनुसार, 33 उम्मीदवारों ने खुद पर हत्या (IPC-302) के आरोप घोषित किए हैं, जबकि 86 पर हत्या के प्रयास (IPC-307) के मुकदमे चल रहे हैं। इसके अलावा, 42 उम्मीदवारों ने महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले घोषित किए हैं, जिनमें 2 पर दुष्कर्म के आरोप भी शामिल हैं।
जिलेवार दाग और रेड अलर्ट सीटें
यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति केवल मोकामा तक सीमित नहीं है। ADR के अनुसार, पहले चरण की कुल 121 सीटों में से 91 सीटों यानी करीब 75 फीसदी पर तीन या उससे अधिक दागी उम्मीदवार मैदान में हैं, जिन्हें ‘रेड अलर्ट’ वाली सीटें माना गया है।
जिलेवार आँकड़ों पर नजर डालें तो स्थिति और भी चिंताजनक है:
• सिवान जिले में सबसे ज्यादा 32 दागी उम्मीदवार चुनाव मैदान में हैं।
• इसके बाद पटना और सारण में 31-31 आपराधिक पृष्ठभूमि के प्रत्याशी हैं।
• मुजफ्फरपुर और दरभंगा में भी 29-29 उम्मीदवार ऐसे हैं, जिन पर आपराधिक मामले दर्ज हैं।
ये आंकड़े चीख-चीख कर बता रहे हैं कि राजनीति अब समाजसेवा नहीं, बल्कि अपराधियों के लिए सुरक्षित करियर का माध्यम बन गई है।
पार्टी-वार तुलना: शुचिता के दावों का पर्दाफाश
राजनीतिक दलों की सबसे बड़ी विफलता यह है कि वे जानबूझकर दागियों को संरक्षण दे रहे हैं। महागठबंधन में गंभीर आपराधिक मामलों वाले प्रत्याशियों की संख्या एनडीए से भी ज़्यादा है, जो उनके नैतिक दिवालिएपन को दर्शाता है:
राजनीतिक दल कुल उम्मीदवार दागी उम्मीदवार दागी %
राजद (RJD) 70 53 76%
भाकपा (CPI) 5 5 100%
माकपा (CPM) 3 3 100%
भाकपा-माले 14 13 93%
कांग्रेस (INC) 48 31 65%
भाजपा (BJP) 23 15 65%
जदयू (JD-U) 57 22 39%
जनसुराज पार्टी 114 50 44
राजद के 70 में से 53, कांग्रेस के 48 में से 31, और भाजपा के भी 23 में से 15 उम्मीदवारों पर आपराधिक मामले हैं। यह दिखाता है कि सत्ता की चाहत में ‘सुशासन’ का दावा करने वाले दल भी अपराधियों की बैसाखी के बिना चलने को तैयार नहीं हैं। खासकर, राजद के 60% और कांग्रेस के 52% प्रत्याशियों पर गंभीर आपराधिक आरोप हैं। यह लोकतंत्र की शुचिता के साथ सबसे बड़ा विश्वासघात है।
त्वरित न्याय की अनिवार्यता
आचार संहिता लागू होने के बावजूद, मोकामा जैसे हाई-प्रोफाइल सीट पर ऐसी जघन्य घटना का हो जाना स्थानीय पुलिस और प्रशासन की गंभीर विफलता को दर्शाता है। चुनाव आयोग ने त्वरित कार्रवाई करते हुए स्थानीय अधिकारियों को निलंबित किया है, जो आवश्यक है।
लेकिन अब सबसे महत्वपूर्ण चुनौती त्वरित न्याय सुनिश्चित करना है। इस मामले की जाँच सीआईडी को सौंप दी गई है। यह सुनिश्चित करना होगा कि राजनीतिक दबाव या कानूनी दांव-पेंच के चलते यह मामला कमजोर न पड़े। अपराधी को जल्द से जल्द कड़ी सजा मिलनी चाहिए। जब तक न्याय की तलवार बाहुबलियों पर तुरंत नहीं गिरेगी, तब तक वे कानून के राज को चुनौती देते रहेंगे।
दुलारचंद यादव की हत्या बिहार के लोकतंत्र के लिए अंतिम और निर्णायक चेतावनी है। यह हमें याद दिलाती है कि सुशासन तब तक अधूरा है जब तक बाहुबल का कैंसर हमारे लोकतांत्रिक शरीर में गहरे तक समाया रहेगा। ADR के आंकड़े स्पष्ट संदेश देते हैं—राजनीतिक दलों ने जानबूझकर अपराध की फसल बोई है।
इस चुनौती का सामना करने के लिए राजनीतिक दलों, प्रशासन और समाज को सामूहिक रूप से प्रयास करना होगा:
1. राजनीतिक इच्छाशक्ति: दलों को अपराधीकरण के प्रति जीरो टॉलरेंस अपनाना होगा और सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों का पालन करते हुए ऐसे नेताओं को टिकट देने का ठोस कारण जनता के समक्ष स्पष्ट करना होगा।
2. प्रशासनिक सक्रियता: प्रशासन को भय-मुक्त माहौल सुनिश्चित करने के लिए जीरो टॉलरेंस की नीति अपनानी होगी और निष्पक्षता को अपनी ढाल बनाना होगा।
3. जनता का मत: सबसे बड़ा समाधान मतदाताओं के हाथ में है। मोकामा समेत बिहार के सभी नागरिकों को डर के ऊपर साहस को चुनना होगा। उन्हें यह समझना होगा कि बाहुबलियों को नकारने का सबसे बड़ा हथियार उनका वोट है।
अगर हम इस हिंसा के आगे झुक जाते हैं, तो बाहुबल की यह प्रथा हमारे लोकतंत्र को भीतर से खोखला कर देगी। दुलारचंद यादव की हत्या पर हमारा सबसे माकूल जवाब यही होना चाहिए कि बिहार का हर नागरिक निडर होकर मतदान करे और यह संदेश दे कि अब चुनाव में ख़ून का नहीं, सिर्फ मतपत्रों का रंग चलेगा।
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