शरणार्थियों के आने के बाद दिल्ली का हुआ है विस्तार

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।

शहर का विस्तार हो रहा था-अपनी चाल से। राजपथ के दोनों तरफ कई मन्त्रालयों के लिए इमारतें बन चुकी थीं। गोकि इनके वास्तु-शिल्प का नार्थ-साउथ ब्लाक से कोई मुक़ाबला नहीं था। शहर की बढ़ती आबादी को ध्यान में रखते हुए डी.डी.ए. ने शहर के अलग-अलग हिस्सों में एल.आई.जी., एम.आई.जी., और एच.आई.जी. (निम्न, मध्य और ऊँची आय वर्ग) श्रेणियों के फ़्लैट बनाकर पहली बार मध्यवर्गीय परिवारों के सिरों पर छत मुहैया कराई। तमाम खामियों, भ्रष्टाचार और ऊँच-नीच के बावजूद दिल्ली के जन-जीवन में इस विभाग के योगदान की अनदेखी नहीं की जा सकती।

अपनी पुस्तक दिल्ली शहर दर शहर में निर्मला जैन लिखती हैं कि मुझे याद है, पछतावे के साथ, कि अपने एक मित्र के सुझाव पर मैंने कृष्णा सोबती से बात की कि हम लोग निर्माणाधीन बसन्तकुंज के इलाके का फेरा लगाएं। मैं और कृष्णाजी उस समय एक फर्लांग की दूरीवाले पड़ोसी थे- माल रोड पर। कृष्णाजी कभी-कभार लौटते हुए अपना स्कूटर मेरे घर की तरफ़ घुमा देती थीं। कुछ देर गपशप होती और फिर मैं और वे पैदल निकलते उन्हें घर तक छोड़ने के लिए। बहुत-सी बातों की साझेदारी (जिसे राज़दारी शायद नहीं कहा जा सकता) होती, जिसमें एक सवाल दक्षिण दिल्ली की तरफ़ अपनी औक़ात के हिसाब से एक अदद फ़्लैट की तलाश भी थी।

तो हम दोनों टैक्सी पर सवार होकर बसन्तकुंज पहुँचे। तब तक आबंटन तो हुआ नहीं था, चारों तरफ़ कंक्रीट की डिब्बेनुमा अनगनित आकृतियां खड़ी थीं। वहीं किसी से पता किया तो मालूम हुआ कि पूरी योजना सोलह हज़ार फ़्लैट बनाने की है। सुनते ही हम लोग उलटे पांव भाग खड़े हुए। वह इलाक़ा, जो अब लगभग दिल्ली के केन्द्र में आ गया है, उस वक़्त दूसरा शहर लगता था।

लौटते वक़्त हम लोग इतने फ़्लैटों में बिजली-पानी, यातायात सबकी सम्भावित कठिनाइयों की चर्चा कुछ ‘तौबा मेरी तौबा’ वाले अन्दाज़ में करते रहे और नतीज़ा जो होना था सो हुआ। कृष्णा जी का आखिरी पड़ाव मयूर विहार हुआ और मैं अन्ततः डी.एल.एफ. पहुंच गई।

बकौल निर्मला जैन इसी प्रसंग में एक घटना और नहीं भूलती। मैं अक्सर मित्रों के बीच एक प्रस्ताव रखती थी कि सब लोग मिलकर एक बड़ा प्लाट ले लें, जिसमें सब एक-दूसरे की पहुंच के भीतर अलग-अलग कॉटेज बनवा लें, ताकि बुढ़ापा एक-दूसरे की संगत में बोलते-बतियाते और एक-एक कर विदा होते बीते।

प्रस्ताव पसन्द तो सबको था पर इस दिशा में प्रयत्न करने के नाम पर सब एक से एक काहिल। काहिली के साथ असुरक्षा और अधीरता अपनी जगह। तो किन्हीं मित्रों/हितैषियों के परामर्श पर मन्नू और नामवर जी ने डी.डी.ए. में अर्जियां लगा दीं और क्रमशः हौज़खास और अलकनन्दा पहुंच गए।

अन्ततः निर्मला जी ने और अजित कुमार ने विश्वविद्यालय के अध्यापकों की कॉलोनी का रास्ता लिया। अजित जी तो आज भी वहां जमे हैं-लाचारी में। पर मेरे लिए वहाँ रहना अनेक कारणों से दूभर हो गया तो अन्ततः मेरी नियति मुझे डी.एल.एफ. खींच लाई। पर यह सब बहुत बाद में घटित हुआ। उस समय सब सहज सामान्य रूप से चल रहा था। भौगोलिक दूरियाँ भी अखरती नहीं थीं।

 न ट्रैफ़िक की घमाघस, न पेट्रोल की महँगाई, न आतिथ्य में कोताही। इसलिए मित्रों की यह स्थायी टोली नियमित रूप से कहीं-न- कहीं बैठकी का जुगाड़ कर ही लेती थी, जिसमें कुछ संचारी तत्त्व भी शामिल होकर विषयों और सामाजिकता का विस्तार करने में मदद देते रहते थे। अनेक रचनाकार मित्रों से परिचय और मित्रता का निमित्त यही टोली बनी। वर्षों तक नए साल की शुरुआत हम लोग एक साथ 31 दिसम्बर की रात को मिलकर करते रहे। तब तक, जब तक शहर में बाहर से कुछ दूसरी तर्ज के लोगों का प्रवेश नहीं हुआ। इन तबागन्तुकों को, विसंवादी सुर की तरह अपनी राग-माला में नियमित रूप से शामिल करने में कठिनाई थी तो उन्होंने बाहर से टोलीभंजक नीति अपनाई। ‘मनुआ रे कच्चे’ एकाध सदस्यों के सामने उन्होंने रस-रंजन का आमन्त्रण एडवांस में रखा तो आमन्त्रितों के मन में लोभ पैदा हुआ कि एकाध-बार उधर भी हाथ मार लेने में हर्ज़ ही क्या है। पर क्रम एक बार भंग हुआ सो हुआ। यह अलग बात है कि कुछ ही दिनों में वे न इधर के रहे न उधर के क्योंकि उधरवालों की उनमें किसी क़िस्म की गम्भीर दिलचस्पी नहीं थी।

तो जीवन ऐसे ही चल रहा था-खरामा-खरामा। शहर बेमालूम गति से बेतरतीब ढंग से पसरता जा रहा था। हज़ारों की संख्या में चारों तरफ़ से लोग रोटी-रोज़ी की तलाश में शहर की सीमाओं के भीतर दाखिल हो चुके थे। पहली खेप भारत-पाक विभाजन के बाद आई। अगर गणना करके देखा जाए तो दिल्ली की राजनीतिक बागडोर आज इन्हीं के हाथ में है। ठेठ दिल्लीवालों की संख्या इनके बीच नगण्य ही नहीं, अप्रभावी भी है। अब बहुत ज़रूरत पड़ने पर आप उनके लिए ‘विस्थापित’ का इस्तेमाल कर सकते हैं। दूसरी खेप ‘बांग्ला देश’ की सीमा से मुक्ति-संग्राम के बाद बड़ी संख्या में गरीब, बेरोज़गार लोगों की आई। ये लोग आजीविका की तलाश में आए- टुकड़ियों में। उधर बंगाल (पश्चिमी), आसाम, अरुणाचल आदि पूर्वी इलाकों में फैल गए और पश्चिम की तरफ बढ़ते हुए नामालूम तरीके से दिल्ली तक पहुंच गए। आज पुराने शहर दिल्ली के तमाम गली-मोहल्लों में इन्हें सहज रूप से बसे हुए देखा जा सकता है। विस्थापितों की तीसरी खेप कश्मीर में आतंकवादियों के हमलों और पाकिस्तान की मिलीभगत से खदेड़े हुए कश्मीरी बाशिन्दों की थी। इनमें से ज़्यादातर पंडित थे। यह बहुत बाद की बात है।

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