दिल्ली की अलग अलग कालोनियों के बसने की कहानी
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
Delhi: नई दिल्ली में जिस हद तक जाति और पद क्रम के अन्तर का ध्यान रखा गया, वह अभूतपूर्व था। नई दिल्ली में लोगों के पते से न केवल उनकी व्यावसायिक हैसियत का, बल्कि उनके घर और बगीचे के माप का, सड़क की चौड़ाई का, और इस बात का बोध भी हो जाता था कि अफसर ब्रिटिश है या भारतीय।
चालीस के दशक में दिल्ली के अंदर ही दो दिल्ली थी। एक नई, दूसरी पुरानी। नई दिल्ली गोरे साहबों की, काले हुक्मरानों की, और उन दूरन्देश रईसजादों की दिल्ली थी जो राजनीतिक हलक़ों के करीब रहने में अपना भविष्य तलाश रहे थे। इनके बीच एक तबका नई दिल्ली के निर्माता ठेकेदारों का था जिन्होंने गोरे साहबों के ख़्वाबों की तामीर की थी। इसके अलावा सरकारी दफ्तरों के चपरासियों से लेकर क्लर्क और बाबू लोगों के पंक्तिबद्ध दड़बेनुमा क्वार्टर थे, जिन्हें सुविधा की दृष्टि से वहाँ आबाद कर दिया गया था।
शहर, यानी पुरानी दिल्ली में बच रहे थे व्यापारी लाला लोगों के परिवार। इनमें हीरे-जवाहरातों से लेकर कपड़े, कागज, अनाज जैसी तमाम ज़रूरतों की चीजों के थोक व्यापारियों के अलावा मध्यवर्ग के खुदरा दुकानदार और छोटे-मोटे परचूनिए भी शामिल थे। इन व्यापारिक ठिकानों और दुकानों पर काम करनेवाला आर्थिक दृष्टि से निम्न वर्गीय समुदाय तो था ही, उनके अलावा तांगे-रिक्शावाले, ग्वाले, दर्जी, हलवाई, बढ़ई, लुहार, जड़िए, मिस्त्री, कुम्हार जैसे तमाम कामगारों की एक भरी-पूरी दुनिया थी जो हर सामाजिक व्यवस्था की रीढ़ होती है। यह पूरा समाज सहज समझदारी और हाथ की कारीगरी के बल पर चलता था जिसमें औपचारिक किताबी शिक्षा से ज़्यादा महत्त्व अनुभवजन्य ज्ञान और विरासत को दिया जाता था।
व्यापारी घरानों में लिखाई-पढ़ाई का महत्त्व कुछ-कुछ समझ में आने लगा था, पर वहीं तक जहाँ तक वह कारोबार में सहायक हो या फिर अफ़सरान के सामने आधुनिकता और हैसियत का दिखावा करने में काम आ सके।
शिक्षित वर्ग में मुख्य रूप से अध्यापक, डॉक्टरी पेशा लोग, और अच्छी संख्या में वकील-मुंशियों की जमात थी। लेखक उँगलियों पर गिने जा सकते थे। कलाकारों में गिने-चुने चित्रकार, गायक और वादक। कला की कद्रदानी (विशेषकर संगीत की) व्यापारी और वकील परिवारों तक ही सीमित थी। आकाशवाणी का स्टेशन राजपुर रोड पर एक बँगले से ब्रॉडकास्टिंग हाउस के नाम से चलता था जिससे मुख्य रूप से गायन-वादन के कार्यक्रम और खबरें प्रसारित होती थीं। शेष कार्यक्रमों में सप्ताह में एक दिन महिलाओं के लिए और एक दिन बच्चों के लिए विशेष कार्यक्रम होते थे। जनता की रुचि मुख्य रूप से खबरें सुनने में रहती थी। सारा दिन डिब्बानुमा रेडियो चलाकर गाना-बजाना सुनने का चलन उस समय नहीं था।