second world war
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कोयले से लेकर चीनी के बढ गए थे दाम, आटा खरीदने के लिए करनी पड़ती थी मशक्कत

दूसरा विश्वयुद्ध (second world war) 1939 से 1945 तक चलने वाला वैश्विक संघर्ष था। युद्ध के दौरान हजारों की संख्या में लोगों ने जान गंवाई। शहर के शहर बर्बाद हो गए। हर तरफ धुंओं का गुंबार और उन सबके बीच रोती मानवता किसी का भी दिल पसीज दे। विश्व युद्ध शुरू होने के कुछ समय तक तो दिल्ली में माहौल सही था, लोगों की दिनचर्या में बहुत अंतर नहीं आया। लेकिन जापान के युद्ध में दाखिल होते ही दिल्ली सशंकित हो गई। युद्ध के समय दिल्ली के माहौल को राजेंद्र लाल हांडा ने अपनी किताब में विस्तार से बताया है। किस तरह सायरन की आवाज से दिल्ली सहम उठती थी। कोयले से लेकर चीनी तक के दाम बढ़ गए थे। आटा खरीदने के लिए लोगों को मशक्कत करनी पड़ती थी।

राजेंद्र लाल हांडा 1936-37 में दिल्ली आए थे। अपनी किताब ‘दिल्ली में दस वर्ष’ में वो लिखते हैं कि तीन साल दिल्ली में बहुत सुख से बीते। यूरोप में और मध्यपूर्व के रेगिस्तान में घमासान युद्ध चल रहा था। दिल्ली अलौकिक धैर्य और संतोष से लड़ाई की खबरें सुनती और पढ़ती। अनेक कारणों से दिल्ली के लोग युद्ध के परिणाम के प्रति कभी चिन्तित दिखाई नहीं देते थे।

वो लिखते हैं कि- मुझे याद है। अप्रैल 1940 की बात है कि एक दिन सायंकाल मैं कुछ मित्रों के साथ कनाटप्लेस में मटरगश्ती कर रहा था। अचानक एक अखबार बेचने वाला चिल्लाया शाम का ताजा अखबार। हिटलर पैरिस में पहुँच गया.…...सारे फ्रांस पर नाजियों का कब्जा….... सभी ने यह खबर सुनी।

आश्चर्य से पल-भर के लिये भौहें निकोड़ी और फिर सुनी-अनसुनी कर सब लोग अपने अपने धंधों में व्यस्त हो गये।

राजेंद्र लाल को बड़ी हैरानी हुई। लिखते हैं कि- मेरा मित्र बराबर एक के बाद दूसरा जूता देखता रहा। किसी में कोई दोष निकलता और किसी का चमड़ा हल्का बतलाता। पेरिस में जर्मन सेनाओं के प्रवेश की खबर अच्छा वस्त्र पहनने के उसके चाव को रत्ती भर भी कम न कर सकी। सामने की दूकान से एक सज्जन तौलिये खरीद रहे थे। दूकानदार ने तौलियों का ढेर लगा दिया,किन्तु साहब को जिस विशेर कारखाने का बना तौलिया चाहिये था, वह नहीं मिल रहा था। सुन्दर तौलियों के ढेर को अछूता छोड़ साहब सपत्नीक निःसंकोच आगे बढ़ गये।

उस समय राजेंद्र लाल के हाथ में अखबार थे। वो कहते हैं कि-

मेरे हाथ में दो पैसे का समाचार-पत्र था। मैं जैसे ही दो-चार लाईनें पढ़ता, आँख उठा कर दायें बायें देख लेता। सभी कार्य पहले की तरह हो रहे थे।

ओडियन के सामने आलू की टिकिया और चाट वाला ग्राहकों के लिये पत्ते परोसते परोसते थक गया था। सिनेमाघरों के सामने प्रतिदिन की तरह भीड़ लगी थी। कई लोग बगल में अखबार दबाए हुए थे, किन्तु शायद पढ़ने के लिये विशेष उत्सुक न थे। अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के चित्र उन्हें अधिक आकर्षित कर रहे थे। सरकारी क्षेत्रों में कोई विशेष हलचल अथवा घबराहट नहीं थी। सभी लोग शिमला जाने की तैयारी में थे।

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बड़े अफसर सम्भवतः दिल्ली की बढ़ती हुई गरमी में कुछ सोच नहीं पा रहे थे। क्लर्क समाज का उत्साह तो अदम्य था।

राजेंद्र ने कई लोगों को तो यह कहते भी सुना कि मियां, कोई हारे कोई जीते, सन्तों की बला से, यहाँ तो क्लक करनी है, हम पर कौन सवारी गांठता है इससे हमें क्या मतलब। जैसा अँग्रेज, वैसा जर्मन।”

नौकरी की बहार

युद्ध के पहले दो वर्षों में वास्तव में बहुतों का यही दृष्टिकोण था। युद्ध का प्रभाव हम लोगों पर पड़ा ही क्या था। बेरोजगारों को नौकरी मिल गई, ठेकेदारों ने हाथ रंग लिये और अनेक सरकारी कर्मचारियों के वेतन इस तीव्र गति से बढ़ने लगे कि स्वयं उनकी कल्पना इस दौड़ में पिछाड़ गई।

लड़ाई का पहला चरण हमारे लिये मीठा ही मीठा था। कड़वाहट इसमें नाम को न थी। हाँ, हमारे राजनीतिक नेता- गण असंतुष्ट थे । जनसाधारणा भी कांग्रेस के प्रति श्रद्धा और आस्था रखने के कारण, उनकी हाँ में हाँ मिलाता था। किन्तु असल में वह जिस मंच पर खड़ा था, वह युद्धजन्य सुअवसरों के निकट और नेताओं के आशीर्वाद से कुछ दूर था। समय के अनुसार सभी अपने-अपने धर्म का पालन करते रहे। जनता निःसन्देह कांग्रेस के साथ थी, किन्तु आँख बचा कर सरकारी युद्ध प्रयत्नों में भी योग देती थी। इस योगदान का युद्ध के परिणाम अथवा हमारे शासकों की अपीलों से इतना सम्बन्ध नहीं था, जितना निजी स्वार्थ और धनोपार्जन की आकांक्षा से।

गेहूं बाजार से हो गया गायब  

1941 के समाप्त होते ही पासा पलटा। जापान युद्ध में कूदा और दिल्लीवालों को भी हवा का झोंका-सा लगा। लड़ाई के समाचारों में दिल्ली के लोगों की रुचि बढ़ी। युद्ध की विभीषिका उन्हें शायद पहली बार हिन्दुरतान की ओर लपकती हुई दिखाई दी। दिल्ली के लोग अब जहां मिलते और बातचीत करते, घर गृहस्थी के मामलों के साथ-साथ युद्ध की खबरों की समीक्षा भी करने लगे।

अब आवश्यक बस्तुओं के भाव की ओर भी ध्यान जाने लगा । चीनी चार आने से बढ़कर एकदम सात आने सेर हो गई। चीनी की चर्चा ही शुरू हुई थी कि गेहूँ बाजार से गायब हो गया। जिसे यह भी पता न होता था कि घर में कितना आटा आता है, कहां से और किस भाव लिया जाता है,अब वह सच्चे अर्थी में आहे दाल की चिन्ता में डूब गया।

राजेंद्र हांडा ने लिखा है कि रविवार के दिन उन्हें एक बार चार घंटे आटे की खोज में पहाड़गंज के चक्कर लगाने पड़े। जिससे बात की वही कस्में खाना कि दुकान में आटा या गेहूँ ही नहीं है, बाकी सब कुछ है। इस काम में में कुछ अनजान-सा भी था। हमेशा नौकर के भरोसे काम चलना था। वो इन कस्मों का अभिप्राय न समझ पाया। हालांकि अच्छा ये था कि उनकी मुलाकात कुलवन्तराय से हो गई। कुलवन्त राय ने ही उनका बीमा किया था। खते ही वे राजेंद्र जी को घर ले गये।

राजेंद्र हांडा आगे लिखते हैं कि मैंने कहा……. मित्र इस समय आटा चाहिये, घर में मुश्किल से सेर भर होगा। कहीं से दिलवाइये ना।”

कुलवन्तराय तो जन्म से सज्जन थे, और मित्र को आफत में देखकर पिघल भी पड़ते थे। इसीलिये वे इतने सफल इंश्योरेंस एजेंट थे। उन्होंने आग्रह किया कि मैं बैठा रहूं, वे स्वयं 20 सेर आटा कहीं से ले आयेंगे। वे चले गये और आध घंटे में ही आटा लेकर लौट आये। 20 सेर आटा साढ़े आठ रुपये का था। घर पहुंच कर आटे की बोरी रख दी और मैंने उसे इस अन्दाज से देखा जैसे शिकारी अपने मृत शिकार को देखता है।

दो दिन बाद ही इंधन खत्म हो गया। गेहूं की तरह ही कोयला भी हर जगह खोज कर पहाड़गंज के किसी कोने से 16 रुपये का एक मन के हिसाब कृतज्ञना- पूर्वक प्राप्त किया गया। ऐसे ही चावल, घी, तेल आदि यकायक रसातल को पहुंच गये।

इन चीजों की नियमित खोज ने छोटे-बड़े और क्लर्क अफसर के भेदभाव को बड़ी सुन्दरता से दूर कर दिया। राशन व्यवस्था चालू हो जाने के बाद भी महीनों आटा दाल ही बहुतों के जीवन का ध्येय रहा। वैसे तो यह काम दिल्ली की परम्परा के ठीक अनुरूप है, परन्तु फिर भी शुरू शुरू में कुछ खटका।

हमारे स्वर्गीय नानाजी जो दिल्ली में 20 साल रहे, कहा करते थे कि दिल्ली में सदा दो प्रकार के लोग ही रहा करते हैं।…….एक तो वे जिन्हें केवल आटा-दाल बेचने की चिंता रहती है, और दूसरे वे जिन का एक मात्र ध्येय ये चीजें खरीदना और उन्हें पचाना है।

इसीलिये तो दिल्ली में अनेक भव्य होटल हैं, भवन हैं,विशाल दफ्तर हैं,पर पुस्तकालय एक भी नहीं। दिल्ली का जलवायु अध्ययन या किसी भी प्रकार की सांस्कृतिक दौड़ धूप के सर्वथा प्रतिकूल है। स्वर्गीय नाना के इस कथन की सच्चाई 1942-43 में मेरे हृदय पर अमिट रूप से अंकित हो गई।

युद्ध की परिस्थितियों का दिल्ली पर एक और प्रभाव पड़ा। आगे तो सरकारी दफ्तर दिल्ली का एक भाग थे, अब दिल्ली इन दफ्तरों का ही पार्ट बन गई। दफ्तरों की, कर्मचारियों की, दफ्तर बनाने वालों और कर्मचारी नियुक्त करने वालों की संख्या इतनी बढ़ गई कि शेष दिल्ली इस विस्तृत जगत में डूब गई।

एक दिन तो मुझे बड़ा विचित्र अनुभव हुआ। बड़ोदा से एक मित्र का पत्र आया, जिसमें कहा गया था कि मैं किसी कार्य के लिये एक सज्जन से मिलूँ जो मानसिंग रोड पर रहते थे। पत्र में कोठी का नम्बर नहीं दिया गया था। काम बहुत आवश्यक था, सो उसी दिन मैं मानसिंग रोड पहुँचा । चिट्टी में दिये गये विवरण के अनुसार मैं एक कोटी के अन्दर चला गया । सामने वाले कमरे में देखता क्या हूँ कि बहुत से लोग बैठे टाइप कर रहे हैं। मैंने दरवाजा खटखटाया। एक व्यक्ति मेरे पास आये। मैंने कहा श्रीमान् साहू वासनजी से मिलना चाहता हूँ। उत्तर मिलाः “यह तो सरकारी दफ्तर है जी, सप्लाई डिपार्टमेंट की बाँच एल०, सेक्शन सी०-१३”

मैं उलटे पाँव वापिस हो लिया। फिर से पत्र निकाल कर पढ़ा। कहीं में गलती में तो नहीं था। चूँकिसाथ वाली कोठी भी वैसी ही थी मैंने उसमें घुसने का दुःसाहस किया। अन्दर पहुँचने की नौबत ही नहीं आई। सन्तरी ने गेट पर ही रोक दिया। पूछने पर पता लगा कि वहाँ फूड डिपार्टमेंट (खाद्य विभाग) की कोई शाखा डटी हुई है। मैं निराश तो हो ही गया था, लौटने से पहले एक और प्रयत्न करना ठीक समझा। उसी सड़क पर अन्त में एक विशाल भवन की ओर में बढ़ा । अन्दर जाकर सेठ वासनजी के बारे में पूछा। एक सफेद वस्त्रधारी व्यक्ति ने झुक कर सलाम किया और पूछा सेठ साहब किस डिपार्टमेंट में हैं और उनका वेतन क्या है। कैसा वेतन, कैसा डिपार्टमेंट, मैंने चिल्ला कर कहा। वे तो बड़ौदा के लखपति व्यापारी हैं। इसी सड़क पर उनकी दो-तीन कोठिया हैं। आजकल दिल्ली आये हुए हैं।

स्वागत कर्ता ने क्षमा माँगी और कहा……यह तो जनाव सरकारी अफसरों का होस्टल है।” दिल्ली जिस बेतुके ढंग से फैल रही थी, पंससे में परिचित था, फिर भी उस दिन की घटना से मुझे कुछ आश्चर्य हुआ। प्रायः सभी बड़ी-बड़ी खाली कोठियां और राजाओं के महल सरकार ने प्राप्त कर लिये थे। किसी में दफ्तर और किसी में दफ्तर वाले आ बसे थे।

दिल्ली में बजते थे सायरन

दूसरे विश्वयुद्ध के समय दिल्ली की दर्जनों सड़कों पर खाई खोदी जा रही थीं और हवाई हमले से बचाव की व्यवस्था की जा रही थी। कलकत्ते पर एक-दो हमले हो चुके थे। दिल्ली में जगह-जगह विचित्र ढंग के शरण घर बनाये गये थे, जो देखते ही बनते थे। भोपू बजा कर और घटाटोप अँधेरा करके दिल्ली के लोगों को हमले से रक्षा का अभ्यास भी कराया गया।

इस भयावने नाटक के कारण दिल्ली के लोगों में विशेष घबरा हट पैदा नहीं हुई, बल्कि थोड़ा-बहुत मनोरंजन ही हुआ। धनी लोग शायद घबराये हों किन्तु जिन्हें अपने और अपनों के शरीर की ही रक्षा करनी थी उन्हें शरण घरों की पक्की दीवारों पर और ति खन्दकों पर भरोसा था। अभ्यास होते रहे। जापानी मणिपुर में आ घुसे, कलकत्ते पर शत्रु के अधिकार की भविष्यवाणियाँ होने लगीं। परन्तु दिल्ली वाले विचलित नहीं हुए।

जामा मस्जिद पर शाम के समय वही भीड़, चाँदनी चौक में वही रौनक और कनाट प्लेस में पहले सी चहल-पहल बराबर बनी रही। शत्रु द्वारा आक्रमण की शंका सब को थी, किन्तु इस पुण्यभूमि में शत्रु का आगमन हितकर होगा अथवा अहितकर, इस सम्बन्ध में स्पष्ट विचार वाले इने-गिने व्यक्ति होंगे। बहुमत निःसंदेह उन लोगों का था जो जापानियों को शिव के उपासक मानते थे।

कुछ भी हो, दिल्ली के लोग ऐसी परिस्थितियों में विचलित होना नहीं जानते । शासन सत्ता की उलटफेर, सल्तनतों का ढह जाना, बाह्य आक्रमण-इन सब को तो दिल्ली वाले हजारों वर्षों से देखते आये हैं। इन घटनाओं की छाप दिल्ली की सभ्यता, यहाँ के रहनसहन, रीति-रिवाज और विचारधारा पर भी पड़ी है।

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