20वीं सदी के बाद राजधानी के बाग-बगीचों, क्लबों और सांस्कृतिक स्थलों में आए बदलाव की दास्तां
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
20वीं सदी अवसान की ओर बढ़ रही थी, पर न तो राजनीतिक संस्कृति यानी सत्ता की छीना-झपटी में कोई कमी आई थी, न आर्थिक नीति में। शहर दिल्ली का तेज़ी से कायाकल्प हो रहा था। विस्थापितों को जगह देते-देते खुद ‘दिल्लीवालों’ के अपने पैर उखड़ गए थे।
पुरानी और नई दिल्ली
पहले दिल्ली एक थी। अंग्रेज़ों ने उसे दो में बाँटा। एक पुरानी और दूसरी नई। ‘नई’ का मतलब ‘लाट साहब’ के दफ़्तर के आसपास के इलाके और पुरानी का मतलब चांदनी चौक के हाट-बाज़ार और लाल किले के इर्द-गिर्द की सघन बस्तियां। इन इलाक़ों की घनता के बीच सरकारी छापवाला एक विशाल मैदान-लाल किले के ठीक सामने था जो परेड ग्राउंड कहलाता था।
मुगल और ब्रिटिश विरासत के बाग और क्लब
वहां किले के भीतर बसी सेना की टुकड़ियाँ कभी परेड किया करती होंगी। इसी मैदान के एक सिरे पर जामा मस्जिद के सामने कुछ दाईं तरफ़ हटकर नगरवासियों की तफरीह के लिए एडवर्ड पार्क था जिसके बीचोबीच किंग एडवर्ड का घुड़सवार बुत खड़ा था। बाद में पुरानी दिल्ली के रेलवे स्टेशन के सामने, चांदनी चौक से हटकर एक और बड़ा पार्क बना जो गांधी ग्राउंड कहलाता है। एक ऐसा ही विशाल बाग कश्मीरी गेट के बाहर बना था-कुदसिया बाग किन्हीं बेगम के नाम पर। अब उसमें एक मेसोनिक क्लब है जो क्लब की गतिविधियों के अलावा शादियों के लिए किराए पर दिया जाता है।
दिल्ली का एक और मशहूर बाग था पुरानी सब्ज़ीमंडी से आगे। अब उसके और सब्ज़ी मंडीवाले चौराहे के बीच घनी बस्तियों हैं। यह रोशनारा रोड पर बना रोशनारा बाग़ है जिसके बीचोबीच आज भी दिल्ली के पुराने रईसों का पसन्दीदा क्लब है- रोशनारा क्लब। इसके सदस्यों में से अधिकांश परिवार अब नई दिल्ली की तरफ़ प्रयाण कर गए, पर सदस्यता नहीं छोड़ी। उनके अलावा भी जिन्होंने उसमें जगह ली, सुना है, उन्होंने इस क्लब की पुरानी रवायतों को कायम रखा। आज ‘भी इस पर पुराने दिल्लीवालों की संस्कृति और जीवन शैली की छाप है और सदस्यता मिलना लगभग असम्भव।
बाग-बगीचे लगाने का शौक दरअसल मुगल बादशाहों की देन है। दिल्ली में ही नहीं, जहाँ भी उन्होंने डेरा जमाया, वहीं बाग-बगीचे रोपे, जिनमें से अनेक का नामकरण बेगमों के नाम पर किया गया। अंग्रेज़ी के दिए गए नामों में वह बगीचा हो या सड़क, कुछ अपवादों को छोड़कर पुरुष-तत्त्व को प्रधानता दी गई-एडवर्ड, निकलसन, चेम्सफोर्ड, इरविन, क्लाइव वगैरह-वगैरह। नई दिल्ली में जिस क्लब संस्कृति का प्रचलन हुआ, वह नाम और प्रकृति दोनों में कुछ अलग थी।
इनमें से चेम्सफोर्ड क्लब का तो क्रमशः पूरी तरह ठेकेदारीकरण या व्यावसायीकरण हो गया, पर जिमखाना की विशिष्टता और वज़ादारी अव भी बनी हुई है। गोल्फ के खिलाड़ियों का भी अपना अलग क्लब है-‘गोल्फ क्लब’ गोल्फ़ लिंक के पास। इनके अलावा प्रेसवालों ने रफ़ी मार्ग पर प्रेस क्लब और सांसदों की सुविधा के लिए वहीं पास में सरकार ने कॉन्स्टीट्यूशन क्लब की स्थापना की। इनकी अपनी संस्कृति, अपनी कार्य-प्रणाली और अपने अलग कार्यक्रम होते हैं जिनका वातावरण ‘क्लब’ की प्रचलित धारणा से ज़रा हटकर है।
इन सबसे अलग और खास किस्म का रुतवा इंडिया इंटरनेशनल सेंटर का है। इसकी स्थापना किसी समय भारत सरकार के जाने-माने वित्तमन्त्री सी.डी. देशमुख के प्रयत्न से हुई थी। देश-विदेश के बौद्धिकों के लिए एक सांस्कृतिक केन्द्र के रूप में। उसे उन्होंने ‘क्लब’ अभिधा से बचाया। बड़े जतन से सदस्यता के नियम बनाए। बहुत ठोक-बजाकर इसकी सदस्यता दी जाती थी। इसके बावजूद बीच में दो-एक अध्यक्षों के निहित स्वार्थों और ढिलाई के कारण तमाम तरह के लोगों ने उसमें घुसपैठ कर ली। बाद में कुछ लगाम कसी गई पर जो बिगाड़ होना था सो हो गया। फिर भी इसका अपना वैशिष्ट्य और अलग चरित्र एक हद तक आज भी बना है।
इंडिया इंटरनेशनल सेंटर की सदस्यता, ढिलाई के बावजूद बहुतों को सुलभ नहीं हो सकी। लिहाज़ा धन-बल और सत्ता-बल से लैस लोगों ने एक समानान्तर निर्मिति की योजना बनाई जो ‘हैबिटेट सेंटर’ के विराट आकार में कार्यान्वित हुई। सदस्यता के लिए तमाम जनता टूट पड़ी। नियमों की जानकारी प्राप्त करने का अवसर ही नहीं आया क्योंकि मेरा आवेदन खारिज हो गया और उसी समय एक धनाढ्य परिवार के अनपढ़, बिगड़ैल नौनिहाल को सदस्यता मिल गई। उसी के बाद मुझे इंडिया इंटरनेशनल की सदस्यता सुलभ हो गई और मैंने इस संयोग के लिए अपना भाग्य सराहा।
हैबिटेट सेंटर का परिसर लोधी रोड के दूसरे कोने पर कई बैंक्वेट हॉलों, रेस्तराओं, कार्यक्रमों के लिए छोटे-बड़े कक्षों, प्रदर्शनी-कक्षों, आवासीय सुविधाओं को लिये दिये खड़ा है। मुझे वह हमेशा भूलभुलैया की अनुभूति कराता है। छोटी-बड़ी इमारतों से लैस कंक्रीट के इस जंगल की सदस्यता, सुना है, अब बेहद महंगी और दुर्लभ हो गई है। वह रौनकपसन्द नागरिकों की लीला-भूमि है, जहां जाने के लिए हिम्मत जुटानी पड़ती है। यह शायद हम जैसों की निजी मजबूरी है जो अब भी इंडिया इंटरनेशनल के शान्त, सुरम्य माहौल में ही शामें गुज़ारना पसन्द करते हैं।
शहर के ये ग्राउंड और बाग़ किसी समय राजधानी की राजनीतिक गतिविधियों और शहरवालों के सैर-सपाटे के लिए अहम समझे जाते थे। धीरे-धीरे ये तरह-तरह की ज़रूरतों के दबाव और रख-रखाव की उपेक्षा के शिकार हो गए।
समय के साथ दिल्ली चारों दिशाओं में फैलती गई और दिल्ली शहर श्रीहीन हो गया। केन्द्र में सरकारी बदलाव या उठापटक का असर, शहर से ज़्यादा शहर के बाहरी हिस्सों पर नज़र आने लगा। कुछ ऐसे, जैसे घटनाएँ कहीं और घट रही हों। चुनाव लोकसभा के हों या विधानसभा के शहरी इलाक़ों के हिस्से आनेवाली सीटों की कुल संख्या न महत्त्वपूर्ण रह गई थी, न निर्णायक।