दिल्ली विधानसभा चुनावों पर राष्ट्रीय घटनाओं का कितना पड़ता है असर

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।

22 फरवरी,1996 को दिल्ली के मुख्यमन्त्री मदनलाल खुराना हवाला केस की गिरफ्त में आ गए। उन्होंने पद से इस्तीफा दिया और उनकी जगह पार्टी के ही साहिब सिंह वर्मा ने ले ली। भाजपा में पूरी तरह सक्रिय होने से पहले साहिब सिंह वर्मा प्रशासन के भगतसिंह कॉलेज की लाइब्रेरी में काम करते थे।

अनिश्चय और अस्थिरता देश की राजनीति का लक्षण हो गई थी। दिल्ली प्रशासन में तो 1982-93 तक कांग्रेस के शासन में पूरे ग्यारह वर्ष तक, श्रीराम कॉलेज में अर्थशास्त्र विभाग के पुरुषोत्तम गोयल ने स्पीकर की हैसियत से प्रशासन का दायित्व सँभाला था। पर भाजपा के सत्ता में आने के बाद पाँच वर्ष के दौरान तीन मुख्यमन्त्री बदले। 1998 में सत्ता की बागडोर फिर कांग्रेस की वर्तमान मुख्यमन्त्री श्रीमती शीला दीक्षित के हाथ आई और तब से वे लगातार अपनी कर्मठता के बलबूते पर उस पद पर कायम हैं और इस तरह दिल्ली के विकास की ज़िम्मेदारी और जवाबदेही, दोनों उन्हीं पर है।

केन्द्र में 27 अप्रैल, 1996 के आम चुनावों के बाद ग्यारहवीं लोकसभा गठित तो हुई, पर उसके साथ अस्थिर सरकारों का सिलसिला जारी हो गया। अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार के 15 दिन में ही गिरने के बाद गठबन्धन सरकारों का दौर शुरू हुआ। एक के बाद एक क्रमशः एच.डी. देवगौड़ा, इन्द्रकुमार गुजराल के नेतृत्ववाली सरकारें बनीं और गिर गई।

इधर नरसिंहाराव बुरी तरह घिराव में थे। वित्तीय हेर-फेर के मामले, चन्द्रास्वामी और लक्खूभाई पटेल की भूमिकाएँ, सेंट किट्स का मामला-नतीज़ा यह कि 4 अक्टूबर को चीफ़ मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट प्रेम कुमार ने उनके खिलाफ गैर जमानती वारंट जारी कर दिए। दिल्ली की राजनीति के वज़नी नेता हरकिशन लाल भगत भी 1984 के दंगोंवाले मामले में 27 दिन तक जेल की हवा खा चुके थे।

चारों तरफ़ वित्तीय घोटालों और तरह-तरह के घपलों की खबरों से देश के साथ राजधानी भी किसी-न-किसी के फंसकर धराशायी होने की खबर के लिए तैयार रहने लगी। कुल जमा नतीजा यह कि 30 मई, 1997 के अधिवेशन में सीताराम केसरी के प्रस्ताव पर कांग्रेस की अध्यक्षता के लिए सोनिया गांधी का नाम ज़ोर पकड़ने लगा और अन्ततः फलीभूत हुआ। पर इससे पहले देश को भाजपा के पुनरुत्थान और शासन के एक छोटे पर महत्त्वपूर्ण दौर से गुज़रना बाक़ी था।

इस वर्ष दो महत्त्वपूर्ण साहित्यिक घटनाओं ने जनमानस पर अपनी छाप छोड़ी। 28 मार्च, 1997 को महाश्वेता देवी को ज्ञानपीठ पुरस्कार देने के लिए नेल्सन मंडेला भारत आए और अरुंधती राय को उनके उपन्यास ‘द गॉड ऑफ़ स्मॉल थिंग्स’ के लिए ‘बुकर पुरस्कार’ मिला ।

इसी वर्ष देश ने सितम्बर में मदर टेरेसा के निधन पर उन्हें पूरी धर्म-निरपेक्षता और सम्मान के भाव से श्रद्धांजलि अर्पित की।

1998 की फ़रवरी में बारहवीं लोकसभा चुनाव के बाद 19 मार्च को भाजपा ने वाजपेयी जी के प्रधानमन्त्रित्व में देश की कमान सँभाली। दो महीने पूरे होने से पहले ही पोखरन में तीन परमाणु प्रयोगों की धूम मच गई। सरकार ने गर्व से सेहरा अपने सिर बाँध लिया, गोकि ज़ाहिर था कि इसकी तैयारी तो बहुत पहले से चल रही होगी। इस धूम-धड़ाके का दिल्ली की विधानसभा के चुनावों पर असर नहीं पड़ा। वहाँ पाँच साल के भाजपा शासनकाल में तीन मुख्यमन्त्री बदल चुके थे। साहब सिंह वर्मा की जगह अब सुषमा स्वराज ने ले ली थी। उस समय सुषमा स्वराज अपने उत्कर्ष के चरम पर थीं, पर चुनाव में जीत कांग्रेस की हुई और मुख्यमन्त्री के पद पर शीला दीक्षित प्रतिष्ठित हो गई। दिल्ली की जनता शासन में अस्थिरता से तंग आ चुकी थी। अतः केन्द्र में बदलाव के समानान्तर उसने राजधानी में भी बदलाव के पक्ष में मतदान किया। इसी घटना के बाद राजनीतिक हलकों में ‘एंटी इंकम्बेन्सी’ को मतदान की सहज प्रक्रिया मानने के भ्रम का प्रचलन हुआ।

सरकार में बदलाव के बावजूद आर्थिक नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं हुआ। उदारीकरण उसी उत्साह से जारी था और उसी अनुपात में शहर का विस्तार। जब शहर की बढ़ती आबादी ने भौगोलिक सीमाओं में अटने से इनकार कर दिया तो धीरे-धीरे रॉबर्ट क्लाइव के मिथकीय रबड़ के तम्बू की तरह अगल-बगल के दोनों राज्यों-उत्तर प्रदेश और हरियाणा की सीमा से लगे ग्रामीण क्षेत्रों पर दूरदर्शी कॉलोनाइज़र्स और बिल्डर्स ने नज़र टिकाई। देखते-ही-देखते नोएडा के नाम पर उत्तर प्रदेश के और कुतुब एन्क्लेव और पालम विहार के नाम पर हरियाणा के ग्रामीण क्षेत्र दिल्ली की भौगोलिक सीमा के साथ आ मिले। किसानों से उनकी ज़मीनें खरीदकर डी.एल.एफ. और पालम विहार के नाम से आरम्भिक कॉलोनियों के प्लॉट कटे और विज्ञापन के ज़ोर पर भारी संख्या में प्रवासी भारतीयों और बांग्ला देश और कश्मीर के विस्थापितों को बेच दिए गए।

सबसे ज़्यादा तकलीफदेह बात यह है कि दिल्ली के सांस्कृतिक जीवन का केन्द्र आज भी मंडी हाउस के आसपास का इलाक़ा है। दूरदर्शन, तीनों अकादमियां, भारतीय कला केन्द्र, राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, त्रिवेणी, श्रीराम सेंटर, कमानी सभागार जैसे तमाम स्थल किसी-न-किसी सांस्कृतिक साहित्यिक कार्यक्रम से गुलज़ार रहते हैं। पहुंच वही पाते हैं, जिन्हें या तो मेट्रो ने वहां से जोड़ दिया है, या जिन्होंने ट्रैफिक की मारामारी को जैसे-तैसे साध लिया है। बाकी तो इसी प्रतीक्षा में हैं कि कब मेट्रो का संजाल इन्हें उनकी हद में शामिल करेगा। कुल मिलाकर इनमें इकट्ठे होनेवाले श्रोताओं-दर्शकों का ‘प्रोफाइल’ भी अब बदल गया है।

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