अकबर के काल से ही संगीत में तान को बहुत अहमियत मिलती रही। जिसकी तान जितनी जोरदार और सुरीली होती थी उसे उतना ही बड़ा संगीतकार समझा जाता था। एक तान का बादशाह तानसेन मुगल काल के उत्कर्ष के समय और दूसरा मुगल काल के पतन के समय हुआ। तान के यह दूसरे सम्राट दिल्ली के निकट मौजा डासना के कुतुब थे। मियां कुतुब अपने वालिद से संगीत की शिक्षा प्राप्त करके दिल्ली आए। वे इस कला में इतने निपुण थे कि अंतिम मुगल सम्राट बहादुरशाह जफर ने उन्हें किले के लिए चुन लिया और वे सबसे बड़े शाही संगीतकार हो गए।

बादशाह ने उन्हें ‘तानरस’ की उपाधि दी। उन्हें लोग आदर से तानरस खां कहते थे। तानरस खां मशहूर संगीतकार मियां अचपल के शिष्य थे। तानरस में इतने असाधारण गुण थे कि वे बादशाह के बहुत निकट आ गए। वे हफ्ते में छह दिन किले में ही रहते थे। बादशाह के नाश्ते में से ही उन्हें नाश्ता मिलता था। तानरस की शादी के मौके पर बहादुरशाह जफर ने हजारों रुपए खर्च करवा दिए। जिस समय तानरस दूल्हा बनकर बादशाह को सलाम करने गए तो खुद बादशाह ने अपने हाथों से मोतियों का सेहरा बांधा और सवा पांच सौ अशरफियों प्रदान की।

दिल्ली का एक मशहूर मुहल्ला चांदनी महल है। वह बादशाह ने खां साहब को दे दिया। उसमें कई हवेलियां थी। यह लाखों रुपए की जायदाद थी। इसमें एक गली का नाम अभी तक ‘गली तानरस खां’ है। उनका हुलिया था औसत कद, लंबे हाथ, बड़ी-बड़ी आंखें, गेहुआं रंग, चौड़ी पेशानी, दुहरा बदन, लिबास में अंगरखा ज्यादा पहनते थे और चौकोर टोपी लगाते थे।

महाराजा अलवर के दरबार में दिल्ली की 1857 की तबाही के बाद पहुंचे। वहां महाराज ने बड़ी कद्र की। दूसरी रियासतों में भी बुलाए जाते थे और एक बार नेपाल नरेश ने भी बुलाया। उनके कमाल से ख़ुश होकर नेपाल नरेश ने एक आभूषण भुजदंड अपने बाजू से खोलकर उन्हें दिया जिसकी कीमत आज से पचास साल पहले बंबई में अस्सी हजार रुपए लगी थी। इसके अलावा सवा लाख रुपए और खिलाअत वग़ैरा मय चंद घोड़े भी इनायत किए।

नेपाल से लौटने के बाद तानरस खां निजाम हैदराबाद के बुलावे पर हैदराबाद चले गए और तकरीबन सौ साल की उम्र में वहीं उनका निधन हुआ। उनके शागिर्दो में अली बख़्श और फतेह अली खां और हुसैन बख़्श ने बहुत ख्याति पाई। तानरस इतने बड़े लयकार थे कि अपने दौर के संगीत सम्राट माने जाते थे। तराना गाने में उनका कोई सानी नहीं था। आवाज में बला की कूक थी। उनकी मृत्यु के बाद दिल्ली में चालीसवां दिया गया जो लगातार पंद्रह दिन तक चलता रहा। उसमें देश के प्रसिद्ध संगीतकार शामिल हुए। संगीत का महत्त्व मुगल दरबार में अंतिम समय तक बना रहा। बहादुरशाह और उनके पिता अकबर शाह द्वितीय के दरबार में बहुत से संगीतज्ञ थे जिनमें हिम्मत खां और रागरस खां बेमिसाल थे।

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