हिंदू काल में दिल्ली के चार पवित्र स्थानों की दिलचस्प कहानी

दिल्ली एक ऐसा ऐतिहासिक शहर है, जहां का चप्पा-चप्पा अपने सीने में गुजरे जमाने की न जाने कौन-कौन-सी यादें लिए खड़ा है। काल के परिवर्तन के साथ-साथ न जाने इसने कैसी-कैसी करवटें बदली हैं। शायद ही कोई दूसरा ऐसा शहर हो, जो इतनी बार बसा और उजड़ा हो। जिधर भी निकल जाइए, कोई न कोई खंडहर, मालूम होता है, आकाश की ओर अपना सिर किए, गुजरे जमाने की दास्तां सुनाने को बेताब खड़ा है। काश, कोई ऐसा आला होता, जो इनकी दर्द भरी कहानी सुन सकता। हर दरो-दीवार पर न मालूम किस-किसके खून के दाग जमे हुए हैं। मुख्य प्रश्न यह है कि सर्वप्रथम दिल्ली को किसने और कहां बसाया?

दिल्ली का इतिहास काल पांच भागों में बांटा जा सकता है-

1. हिंदू काल, 2. मुस्लिम (पठान) काल, 3. मुगल काल, 4. ब्रिटिश काल, 5. स्वराज अथवा आधुनिक काल। हिंदू काल के बारे में जानकारी कम-से-कम उपलब्ध है। अंतिम काल बहुत संक्षिप्त है, जो स्वतंत्रता मिलने के पश्चात से ही प्रारंभ हुआ है।

दिल्ली को भारत का रोम कहकर पुकारा गया है, क्योंकि रोम की सात विख्यात पहाड़ियों की तुलना दिल्ली की सात उजड़ी हुई बस्तियों से की गई हैं। यहां के शानदार किले, महल, मकबरे, मंदिर, मस्जिद और अनगिनत दूसरी इमारतें यमुना नदी और अरावली पर्वत की पहाड़ी के बीच के हिस्से में फैली हुई दिखाई देती हैं। तुगलकाबाद, महरौली, चंद्रावल और यमुना का पश्चिमी किनारा इसकी सीमाएं बनाते हैं। करीब 55 वर्ग मील का घेरा इन्हीं इमारतों के खंडहरों से भरा पड़ा है। 11 मील लंबे और 5 मील चौड़े क्षेत्र में फैले हुए इन खंडहरों को बनते और उजड़ते कई हजार वर्ष का समय व्यतीत हुआ है। कुछ चिह्नों की जांच करने पर भी यह पता नहीं चलता कि वे किस काल के हैं। अतः इस बात की खोज के लिए कि सर्वप्रथम दिल्ली कब और कहां बसी, हमें पहले हिंदू काल के इतिहास की जांच करनी पड़ेगी, जिसका आधार कुछ किंवदंतियां तथा पुराणों और महाभारत की कथाएं हैं। अनुमान बेशक़ लगा लिया जाएं, पर वास्तव में ईसा की दसवीं सदी से पूर्व की दिल्ली का न तो कोई सही इतिहास मिलता है और न कोई यादगार।

प्राचीन हिंदू नगरियां सात मानी जाती हैं और वे ये हैं

1. अयोध्या, 2. मथुरा, 3. मायापुरी अर्थात हरिद्वार, 4. काशी, 5. कांची अथवा कांजीवरम (दक्षिण में), 6. अवंतिकापुरी अर्थात उज्जैन, और 7. द्वारावती अथवा द्वारका। इन सातों में दिल्ली का कोई जिक्र नहीं है। दिल्ली का सर्वप्रथम नाम महाभारत में आया है, जब पांडवों ने खांडव वन में एक नगरी बसाई और उसका नाम इंद्रप्रस्थ रखा। यह इंद्रप्रस्थ ही सर्वप्रथम नगरी थी, जो कालांतर में दिल्ली कहलाई। एक बार दिल्ली इससे भी पहले बस चुकी थी। उसकी कथा पुराणों में आती है। उसमें लिखा है कि पूर्व काल में यमुना के किनारे यहां एक महान वन था, जिसे खांडव वन या इंद्र वन कहते थे। इस वन को कटवाकर चंद्रवंशी राजा सुदर्शन ने खांडवी नाम की एक बहुत सुंदर पुरी बसाई, जो 100 योजन लंबी और 32 योजन चौड़ी थी।

एक समय राजा इंद्र ने यज्ञ करने का विचार किया और अपने गुरु बृहस्पति से ऐसा स्थान बताने का निवेदन किया, जहां यह पवित्र कार्य सिद्ध हो सके। वृहस्पति ने खांडव वन का पता दिया और तदनुसार इंद्र ने यमुना के किनारे यज्ञ करने की तैयारी शुरू कर दी। सब देवताओं और ऋषियों को निमंत्रण दिया गया। यज्ञ की समाप्ति पर चार स्थानों को पवित्र स्थान घोषित किया गया।

निगमबोध

पहला पवित्र स्थान निगमबोध यमुना के किनारे था। कहते हैं कि एक बार संसार से वेदों का ज्ञान लुप्त हो गया था। ब्रह्मा जी उन्हें भूल गए थे, मगर जब ब्रह्मा जी ने यमुना नदी में डुबकी मारी तो उन्हें भूले हुए समस्त वेदों का तुरंत स्मरण हो आया। इसी से इस स्थान का नामः निगमबोध (वेदों का ज्ञान) पड़ गया। यह भी कहते हैं कि महाभारत के युद्ध की समाप्ति पर युधिष्ठिर ने निगमबोध घाट पर यज्ञ किया था। उस समय यमुना कहाँ बहती थी और घाट कहां था यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि महाभारत को हुए हजारों वर्ष हो चुके हैं, मगर मौजूदा निगमबोध घाट शाहजाहों की बनवाई पूर्वी शहरपनाह के बाहर निगमबोध दरवाजे के आगे बेला रोड पर बना हुआ है।

दरवाजे के बाएं हाथ फसील के साथ घाटनुमा पत्थर की एक पुरानी बारहदरी खड़ी है, जिसके पांच दर दक्षिण की ओर हैं और इतने ही उत्तर की ओर, शेष एक-एक पूर्व और पश्चिम में हैं। यह फसील से करीब दो-तीन गज हटकर बनी हुई है। बारहदरी के दाएं-बाएं दो सहन भी हैं, जिनमें दरवाजे बीच में और एक-एक उत्तर और दक्षिण में हैं। आगे की ओर गोलाकार हैं। इन्हें देखने से अनुमान होता है कि जब शाहजहाँ के वक्त में यहां यमुना फसलों के साथ बहती थी तो यही निगमबोध घाट रहा होगा। इस ओर की चारदीवारी में तीन दरवाजे हुआ करते थे। बेला घाट तो यहां था जहां कश्मीरी दरवाजे की सड़क पोस्ट ऑफिस के पास से निकलकर बेला रोड पर जाती है। फिर निगमबोध घाट था और फिर कलकत्ता दरवाजा।

घाट के नाम से ही पता चलता है कि यहां घाट रहे होंगे। बेला घाट और निगमबोध घाट के बीच के हिस्से में और कलकत्ती दरवाजे तक, जो गदर के बाद तोड़ दिया गया, नदी के किनारे घाट बने हुए थे। शाहजहां के बाद 1737 ई. में हिंदुओं को इन घाटों को बनाने की इजाजत मिली बताते हैं। घाटों पर छोटे-छोटे पुख्ता संगीन मंडप बने हुए थे, जिनके दो तरफ दीवारें थीं और दरिया की तरफ सीढ़ियाँ। अब से कोई पचास वर्ष पहले तक ये घाट बने हुए थे और यमुना चढ़कर वहाँ तक आ जाया करती थी। मगर धीरे-धीरे यमुना का रुख बदलता गया। वह दक्षिण की ओर हटती गई और ये पुख्ता घाट भी कालांतर में तोड़ डाले गए। देखा जाए तो बस यही एक घाट बाकी बचा है। इसकी बारहदरी के साथ हनुमान जी का एक मंदिर है, जो बहुत प्राचीन मालूम होता है।

राजघाट

दूसरा पवित्र स्थान राजघाट घोषित किया गया था। उस वक्त वह कहां था, इसका तो कोई अनुमान नहीं है, मगर शाहजहां के समय में जब मौजूदा दिल्ली बसी तो पूर्व की चारदीवारी में दरियागंज की ओर इस नाम का दरवाजा बनाया गया था। यह लाल किले के दक्षिण में पड़ता है। गदर के बाद इस दरवाजे को ऊंचा करके गाड़ी-घोड़ों के आने-जाने के लिए बंद कर दिया गया था। सड़क की जगह जीना बना दिया गया था। अभी हाल में इधर को फसील और दरवाजा तोड़कर फिर से सड़क निकाल दी गई है। इस दरवाजे के बाहर भी यमुना स्नान करने के लिए घाट होगा। गदर से पहले यहां किश्तियों का पुल था. जिससे यमुना पार जाते थे। अब घाट का तो कोई चिह्न नहीं है, अलबत्ता एक मंदिर जगन्नाथ जी का है। वह कब बना, इसका पता नहीं। फसील के साथ लगा हुआ यह छोटा-सा मंदिर है और इसकी इमारत बहुत पुरानी नहीं है। मंदिर में जगन्नाथ जी, बलदेव जी और उनकी बहन सुभद्रा की मूर्तियां हैं।

हनुमान जी का एक मंदिर और एक शिवालय भी इस मंदिर में है। फसील के पास ही शिव जी का एक और भी मंदिर है, जिसकी पिंडी जमीन की सतह से तीन-चार फुट नीचे है। जब यहां यमुना बहती धौ तो ये मंदिर रहे होंगे। जगन्नाथ जी के दिल्ली में दो मंदिर हैं- बड़ा मंदिर परेड के मैदान के साथ एस्प्लेनेड रोड पर है। आषाढ़ शुक्ला, द्वितीया को रथयात्रा का मेला लगता है। छोटे मंदिर से मूर्तियां रथ में बैठाकर बड़े मंदिर ले जाई जाती हैं, जहां ये दोनों मंदिरों की मूर्तियां रथों में बैठाकर शहर भर में घुमाई जाती हैं। दिन-भर बड़ा उत्सव रहता है। अब पुराने राजघाट का तो नाम ही रह गया है। नया राजघाट तो वह स्थान है, जहां 31 जनवरी 1948 को सायंकाल के पांच बजे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के शव का दाह संस्कार हुआ था। गांधीजी की समाधि दिल्ली दरवाजे के बाहर बाएं हाथ जाकर बेला रोड पर बहुत बड़े बाग में बनी है, जहाँ हर रोज हजारों की संख्या में दर्शनार्थी सुबह से रात तक आते रहते हैं। यहां हर शुक्रवार को सायंकाल के समय प्रार्थना होती है। 2 अक्तूबर को गांधीजी के जन्मदिन पर और 30 जनवरी को, जो उनका निधन दिवस है, यहां बड़ा भारी मेला लगता है, प्रार्थना होती है और समाधि पर फूल चढ़ाए जाते हैं।

विद्यापुरी

तीसरा स्थान था विद्यापुरी। जहां अब चांदनी चौक में कटरा नील है, वहां यह स्थान बताया जाता है। कहते हैं कि पंडित बांकेराय के पास शाहजहां का एक फरमान था। उसमें इस स्थान को बनारस की तरह पवित्र और एक विद्यापीठ बताया गया है। यहां एक पुराना शिव मंदिर है, जिसे विश्वेश्वर का मंदिर कहते थे।

बुराड़ी

चौथा स्थान है बुराड़ी, जो दिल्ली के उत्तरी भाग में चार-पांच मील दूर यमुना के किनारे पर एक गांव है। इसका असल नाम बरमुरारी बताते हैं। महाभारत में जिक्र है कि यहां भगवान कृष्ण का कालिंदी से विवाह हुआ था। यहां भी महादेव का मंदिर था, जो खंडेश्वर के नाम से मशहूर था। इस मंदिर के इर्द-गिर्द अब भी पुरानी इमारत के कुछ भाग जमीन में दबे पड़े हैं।

Spread the love

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here