गंगा-जमुनी तहजीब का प्रतीक है फूल वालों की सैर मेला

यह 22 फुट लंबी और 21 फुट चौड़ी है। इसमें तीन दरवाजे हैं। कहा जाता है कि इसकी पुश्त की दीवार को कुतुब साहब ने खुद मिट्टी का बनाया था। 1551 ई. में सलीम शाह के जमाने में तीन और दरों का इसमें इजाफा किया गया और ऐसा ही दूसरा इजाफा 1717 ई. में फर्रुखसियर ने किया था।

इनका खिताब काकी इसलिए पड़ा बताते हैं कि जब रमजान शरीफ में यह रोजा रखा करते थे तो एक दरवेश, जिनका नाम खिजर था, इन्हें छोटी रोटियां खिलाया करते थे, जिन्हें काक कहते थे। यह भी कहा जाता है कि एक बार औलिया की मस्जिद में दरवेशों की मजलिस थी। वहां आसमान पर से रोटियां उतरीं, मगर उन्हें काकी साहब को ही खाने का हुक्म हुआ। फरिश्ते के जमाने में ये रोटियां तब तक पकाई जाया करती थीं और गरीबों को बांटी जाती थीं। ये अब भी पकाई जाती हैं, मगर उन धनिकों को दी जाती है, जो दरगाह में भेंट चढ़ाते हैं। ये रोटियां आटा, चीनी और सौंफ डालकर पकाई जाती हैं।

दरगाह के बाहर जब पश्चिम की ओर से दाखिल हों तो एक बड़ी मस्जिद आती है, जिसे अहसानुल्ला खां ने बनवाया था, जो दिल्ली के आखिरी बादशाह बहादुर शाह के तबीब हुआ करते थे और बहादुर शाह के मुकदमे में जिन्होंने गवाही दी थी। इसके बाद जो दरवाजा आता है वह महल सराय में ले जाता है। इस खूबसूरत इमारत में दिल्ली के आखिरी चंद बादशाह गर्मियों के दिनों में आकर रहा करते थे।

दरगाह की पश्चिमी चारदीवारी से गुजरकर एक मस्जिद का सहन आता है जिसके बाएं हाथ शाह आलम सानी की एक खातून की कब्र है और दाएं हाथ मोती मस्जिद और दिल्ली के आखिरी बादशाहों की कब्रें हैं। मोती मस्जिद को शाह आलम बहादुर शाह ने, जो औरंगजेब का जानशीन (उत्तराधिकारी) था, 1709 ई. में बनवाया था। मस्जिद के दक्षिण भाग के छोटे से सहन में तीन बादशाहों की कब्रें हैं- अकबर शाह सानी की जो 1837 ई. में गुजरा, इसके पास शाह आलम सानी की, जो 1806 ई. में गुजरा।

इसके बाद जगह छूटी हुई है जो बहादुर शाह के लिए नियत की गई थी, मगर वह रंगून में दफनाया गया। तीसरी कब्र शाह आलम बहादुर शाह की है जो सादी है और उस पर घास उगी है। पश्चिम में आखिरी कब मिर्जा फारुख की है, जो बहादुर शाह का जानशीन था, मगर कत्ल कर दिया गया था। 1857 ई. के गदर के कारणों में एक यह कत्ल भी माना जाता है। अब एक दरवाजा आता है जो एक सहन में खुलता है। यह दरगाह के उत्तर में है। दाएं हाथ का रास्ता, जिसके सामने संगमरमर का दीवा है और संगमरमर का दरवाजा है, हजरत कुतुब की कब्र के दालान में पहुंचा देता है। यहां जूते उतारकर जाना होता है।

जिस कमरे में कब्र है, उसकी पूर्वी ओर दक्षिणी दीवारों में संगमरमर की जाली लगी हुई है, जिसे फर्रुखसियर बादशाह ने लगवाया था। उनमें से अंदर की कैफियत भली प्रकार दीख जाती है। कब्र सादा मिट्टी की बनी हुई है, जिस पर कपड़ा ढका रहता है और चारों तरफ संगमरमर का जाली कटा हुआ निहायत खूबसूरत कटारा लगा हुआ है जो 23.6 फुट ऊंचा और 14 फुट 15.5 फुट है।

मजार के चारों ओर बहुत-सी कब्रें हैं। दरगाह की पश्चिम दीवार पर सब्ज और पीले टायल जड़े हैं। दक्षिण-पूर्वी कोने के बाहर ख्वाजा कुतुबुद्दीन की कब्र है। इसके साथ मौलाना फखरुद्दीन की कब्र है, जिसने अंदर आने का दरवाजा बनवाया था। इसके सामने की ओर तालाब के किनारे दाई जी को कब्र है, जो एक खातून थी। ऐसे ही तालाब अजमेर और निजामुद्दीन की दरगाहों में भी हैं। इसके अलावा और भी बहुत-सी कब्रें हैं। तालाब के सिरहाने की तरफ से कुतुब मीनार का नजारा बहुत साफ नजर आता है।

कुतुब की दरगाह के अहाते में खिरनी के चार पेड़ बहुत पुराने हुए हैं। कुतुब की खिरनियां मशहूर हैं। बहादुर शाह रंगीले ने जो लगे फूलवालों की सैर का मेला जारी किया था, उसका जिक्र ऊपर योगमाया के सिलसिले में किया जा चुका है कि बुधवार को पंखा मंदिर में चढ़ता है और गुरुवार को हजरत के इसी मजार पर अब भी वही दस्तूर जारी है। बरसात के मौसम का यह मेला दिल्ली वालों की सैर और तफरीह का एक जरिया होता था। जब कांग्रेस की अंग्रेजों से लड़ाई चली तो इस मेले का भी बहिष्कार कर दिया गया था, मगर फिर जारी हो गया है।

उस जमाने में इस मेले की रौनक ही जुदा होती थी। बरसात का मौसम आया और किसी दिन जब फुहारें पड़ रही हों, सैर की तारीख का ऐलान करने के लिए शहर में नफीरी फिर जाती थी, मानो कोई बहुत बड़ी घटना होने वाली हो। हर एक की जुबान पर यही चर्चा होती थी कि सैर की तारीख मुकर्रर हो गई है। बस उसके लिए तैयारियां शुरू हो जाती थीं। महरौली के बाजार के कमरे सैकड़ों रुपये किराए देकर शौकीन लोगों के लिए रोक लिए जाते थे। नए कपड़े सिलवाए जाते, जूते खरीदे जाते, सैर वाले दिन मुंह अंधेरे से लोग अपने बच्चों को साथ लेकर घरों से निकल पड़ते। उस जमाने में बसें और मोटरें तो थी नहीं, दिल्ली से महरौली तक 11 मील का फासला है। सड़कें सज जातीं, जगह-जगह प्याऊ बैठ जाती, जगह-जगह खाने-पीने की और पान-बीड़ी-सिगरेट की दुकानें लग जातीं। ज्यादा लोग तो पैदल ही जाते थे, बाकी इक्कों में, घोड़ा-गाड़ियों पर, मझोलियों में, मर्द और औरतें रास्ते में ठहरते चलते। बड़ा पड़ाव सफदरजंग पर होता था। शाम को झरने से पंखा उठता था। हजारों की खलकत (भीड़) साथ होती थी। आगे-आगे नफीरी बज रही है, डंडे खिल रहे हैं, सक्के कटोरे उछाल रहे हैं, हुक्के वाले चिलम भरे, लंबी-लंबी मुनाल लगाए उन पर कमरों तक हुक्का पिलाते चल रहे हैं। हर कोई सजा-धजा, तेल-इत्र लगाए, फूलों के कंठे पहने अपनी-अपनी टोली बनाए खरामां-खरामां कदम बढ़ा रहा है। क्या बेफिक्री का होता था वह आलम- न हिंदू-मुसलमान का भेद, न ऊंच-नीच का ख्याल !

झरने पर एक और ही आलम होता था। झरना पानी से लबरेज, ऊपर से पानी की चादर गिर रही है और बारहदरी की छत पर से धड़ाधड़ लोग हौज में कूद रहे हैं। जगह-जगह खोंचे वाले बैठे तरह-तरह का सौदा बेच रहे हैं। आम और जामुन के ढेर लगे हुए हैं। बच्चे तार की नगीनेदार अंगूठियां खरीद रहे हैं, जो सैर की खास निशानी होती  थीं। गर्ज़ कि दिल्ली का यह मेला अपनी जुदा ही शान रखता था। अब न वह दिल रहे, न वह बेफिक्री ।

फूल वालों की सैर, जिसे सैरे गुल फरोशां कहते हैं, जारी कैसे हुई, उसकी भी एक रिवायत है। अकबर शाह सानी के जमाने की बात है। उस जमाने तक बादशाह के दरबार में अंग्रेज रेजीडेंट आया करता था। एक दिन दरबार में पहुंचा तो उसका सांस चढ़ा हुआ था, हांफ रहा था और फों-फों की आवाज निकल रही थी। रेजीडेंट की फों-फों से वलीअहद जहांगीर शाह की हंसी निकल गई। रेजीडेंट ने समझ लिया कि उसका मजाक उड़ाया जा रहा है। उस वक्त तो वह चुप रहा, मगर अपनी कोठी पर जाकर ईस्ट इंडिया कंपनी को लिखा और उकसाया कि यह हतक उसकी नहीं, बल्कि ओनरेबिल कंपनी बहादुर को हुई है। झगड़ा बढ़ा। आखिर कंपनी बहादुर ने फैसला किया कि किले में वलीअहद की सेहत खराब रहती है, तालीम का भी सही प्रबंध नहीं है; उन्हें अंग्रेज अतालीक की निगरानी में इलाहाबाद में कयाम करना चाहिए। वलीअहद की माता मलका-ए-आलम पर इस फैसले का बड़ा बुरा प्रभाव पड़ा और सारे किले में हाहाकार मच गया। मगर फैसले के विरुद्ध अमल करने की ताब किसे थी। चुनांचे जहांगीर शाह इलाहाबाद भेज दिए गए।

मलका-ए-आलम दुआएं मांगती और मिन्नतें मानती रही। मिन्नतों में एक यह भी थी कि उसका बच्चा नजरबंदी से रिहाई पाएगा तो वह हजरत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के मजार पर फूलों की चादर चढ़ाएगी।

इत्तफाक से ऐसा हुआ कि छह महीने भी नहीं गुजरे थे कि इलाहाबाद में हैजा फैला और कंपनी बहादुर ने वलीअहद को इलाहाबाद में रखना मुनासिब नहीं समझा। वलीअहद फिर दिल्ली वापस लौट आए. मां की मिन्नत पूरी हुई और ख्वाजा साहब के मजार पर बड़ी धूमधाम से फूलों की चादर चढ़ाई गई। उसी दिन से इस मेले का आगाज हुआ।

1947 ई. के फसाद में इस दरगाह को भी नुकसान पहुंचाने का प्रयत्न किया गया था। जनवरी 1948 में महात्मा गांधी इसे देखने गए और उन्होंने एक सभा में प्रवचन दिया। गांधीजी की इस जगह की यह अंतिम यात्रा थी।

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