कभी युद्ध में जूझने वाले राजा इस तरह पशु-पक्षियों के खेल में हुए लीन

अंग्रेज़ों द्वारा सत्ता प्राप्त करने से पहले मुग़ल बादशाह और दक्कन में सुलतान तथा दूसरे प्रदेशों के राजा युद्ध में व्यस्त रहते थे। एक तो बादशाहों को दूसरों के राज्य जीतने का शौक़ था, दूसरे सरदार या शाही खानदान का व्यक्ति बगावत भी करता रहता था। इसलिए कोई-न-कोई छोटी-बड़ी जंग छिड़ती रहती थी। लड़ाई छिड़ने पर शाही परिवार के व्यक्तियों का उसमें बुरी तरह फँस जाना अवश्यंभावी था। आम तौर पर बादशाह और शासक खुद युद्ध भूमि में शत्रु का दमन करने के लिए या विजय प्राप्त करने के लिए, और अपने साम्राज्य का विस्तार करने के लिए अपनी सेनाएँ अपने नेतृत्व और कमान में ले जाते या अपने किसी बेटे को भेजते। शाही परिवार के हर व्यक्ति को युद्ध-कौशल की भरपूर जानकारी होती थी और बादशाह और उसके शहजादे ऊँचे दर्जे के घुड़सवार और लड़ाकू होते थे। ये प्रतिष्ठित हस्तियाँ जिस तरफ़ निकल जाती थीं अपने पराक्रम के झंडे गाड़ देतीं। वे शहंशाह जो कौंधती बिजलियों से प्रेम किया करते थे, जिनके घोड़ों के सुमों से जमीन का सीना हर वक़्त थरथराता रहता था, आहिस्ता-आहिस्ता रुख़्सत हो रहे थे।

औरंगज़ेब के बाद मुग़ल साम्राज्य का ऐसा पतन शुरू हुआ जो रोके न रुका। साम्राज्य ऐसा छिन्न-भिन्न हो गया कि अंत के कुछ मुग़ल बादशाह केवल नाम के बादशाह रह गए और उनका राज्य केवल दिल्ली और लाल क़िले तक सीमित होकर रह गया। शाही परिवार के लोगों में खून तो अपने बुजुर्गों का ही था मगर चूँकि कस-बल निकालने के लिए शत्रुओं के साथ युद्ध करने की न ताक़त थी और न ही औचित्य, इसलिए उन्होंने पशु-पक्षियों को लड़ाने के शौक़ अपना लिए। जब तक धन-संपत्ति की प्रचुरता थी, बड़े-बड़े जानवरों को लड़ाने का शौक़ चलता रहा, मगर जब वह बात नहीं रही और तंगदस्ती ने आ घेरा तो परिन्दों को एक-दूसरे से लड़ाना शुरू कर दिया। ये सब शौक़ महफ़िलें सजाने के तहत आते थे। इसी दौर के बारे में कहा गया है कि रज़्म (युद्ध) से बज़्म (सभा गोष्ठी) का दौर शुरू हो गया। आहिस्ता-आहिस्ता यह शौक़ जनता में फैल गए, ख़ास तौर पर परिन्दों की लड़ाई के, जिन पर खर्च ज़्यादा नहीं आता था। हाथियों की लड़ाई सिर्फ शाही खानदान के व्यक्ति ही करा सकते थे।

हाथियों की लड़ाई

जब दिल्ली में क़िले वाले हाथियों की लड़ाई का आयोजन करते तो नदी की रेती में झरोखों के नीचे रेत का एक बड़ा-सा पुश्ता बाँध दिया जाता। लोगों की बहुत बड़ी भीड़ काफ़ी फ़ासले पर इकट्ठी हो जाती और लगातार शोर मचाती रहती। फिर दो जंगी हाथी जिन्हें खास तौर पर लड़ाई के लिए तैयार किया जाता था वहाँ लाकर खड़े कर दिए जाते। उस समय बानदार चरखियाँ और बान, फ़ीलबान भाले और बरछे लेकर और सॉटमार साँटे हाथों में लिए हाथियों के इर्द-गिर्द खड़े हो जाते। साँटे मारकर सॉट मार हाथियों को चमका देते। एक-न-एक बड़ी फुर्ती से हाथी के पेट के तले से निकल जाता। हाथी झुंझलाकर उसका पीछा करता इतने में दूसरा साँट मार, पैंतरा काट कर हाथी के बराबर आ जाता। हाथी उसकी तरफ़ मुड़ता तो तीसरा लपककर हाथी के आगे से निकल जाता। हाथी उसकी तरफ़ दौड़ता, वह कावा देकर पीछे आ जाता। जब हाथी खूब गरमा जाते तो पहले सूँडें मिलाकर जोर करते, एक-दूसरे को अपनी और खींचते और माथे मिलाकर रेलते, ढकेलते और रगेदते। उनमें जो दिल का बोदा होता, दूसरे का जोर और टक्कर सँभाल न सकता, चिंघाड़ मारकर पीछे हट जाता। दूसरा शेर होकर उस पर दौड़ पड़ता। हाथीवान भाले लेकर दौड़ते, दोनों का बीच-बचाव कराते और यह कहते-कहते परे ले जाते, ‘राक्षस जैसे शूरवीर चलो, गुस्सा थूक दो। तुम तो वह काले पहाड़ हो कि तुमसे रुस्तम भी टक्कर नहीं ले सकता।’

लड़ाई के लिए भी जरूरी थी कि हाथी गुस्सैल और अक्खड़ हो या फिर गरमाया और चमकाया गया हो वरना लड़ाई के लिए तैयार न होगा। हाथियों को लड़ाई के लिए छोड़ने से पहले उनकी गर्दन और दुम के गिर्द एक रस्सा बाँधा जाता था। दोनों हाथी एक-दूसरे पर अपनी सूँड और दुम उठाकर और चिंघाड़कर हमला करते थे। ऐसा मालूम होता था दो पहाड़ एक दूसरे से टकरा रहे हैं। उनके शरीरों के मोड़-तोड़ और उनकी चिंघाड़ों से यह अनुमान किया जा सकता था कि अपने विपक्षी को नीचा दिखाने के लिए वे कितनी ताक़त लगा रहे हैं। दोनों हाथियों की यह कोशिश होती कि अपने दाँतों से अपने विरोधी का जिस्म चीरकर रख दें। अगर हारे हुए हाथी के पीछे भागते हुए विजेता हाथी को रोका न जाता तो वह उस हाथी को पकड़कर जमीन पर गिरा देता था और उसका पेट फाड़कर उसे ख़त्म कर देता था। यह एक बड़ा भयानक दृश्य होता।

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