देश के प्रमुख मुस्लिम संतों में सर्वेापरि
तुर्किस्तान में हुआ था कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी का जन्म
इनका जन्म फरगुना (तुर्किस्तान) में हुआ था। इनके पिता का नाम कमालुद्दीन अहमद मूसा था। इनको आम तौर पर ख्वाजा साहब कहकर पुकारते थे। यह जब ढाई बरस के थे तो इनके पिता का देहांत हो गया। यह बगदाद में मुईनुद्दीन चिश्ती के मुरीद बने। जब चिश्ती साहब अजमेर तशरीफ ले आए तो यह भी पहले मुलतान और फिर दिल्ली आ गए। उस वक्त इनकी उम्र करीब बीस वर्ष थी। यह उन दरवेशों में से थे जो शुरू-शुरू के मुस्लिम हमलावरों के साथ हिंदुस्तान आए। इनकी गिनती प्रमुख मुस्लिम संतों में होती है। मुईनुद्दीन चिश्ती के यह न केवल शिष्य ही थे, बल्कि उनके मित्र भी थे और उनके बाद इनको मुस्लिम संतों में पहला दरजा प्राप्त हुआ। यह 1188 ई. में दिल्ली आए और जब मुसलमानों ने दिल्ली को फतह किया तो फतह की नमाज इन्होंने महरौली की औलिया मस्जिद में पढ़ी थी।
मोहम्मद गोरी से इनका संबंध अच्छा न रहा, मगर शम्सुद्दीन अल्तमश इनका बड़ा भक्त था और उसके जमाने में इनका बड़ा दौरदौरा था। शुरू-शुरू में यह पानी की सुविधा की दृष्टि से किलोखड़ी में दरिया के किनारे आकर रहे। बाद में यह महरौली जा रहे। यह शांत प्रकृति के थे। इनकी मृत्यु 67 वर्ष की उम्र में 1235 ई. में हुई। कुतुबुद्दीन के काल में तो इनकी ख्याति एक धार्मिक पेशवा के तौर पर ही रही, लेकिन बाद में इनके प्रति इतना आदर बढ़ा कि इनके मृतक संस्कार स्वयं बादशाह अल्तमश ने किए, जिसने न कभी नमाज के समय में देरी की थी और न नमाज टाली थी।
इनकी शादी दिल्ली में ही हुई थी और इनके दो लड़के सैयद अहमद और सैयद महमूद इनकी कब्र के पास ही दफना दिए गए थे। संत ख्वाजा खिजर जो, कहते हैं, अब भी मौसमों की हालत की देखभाल करते हैं और गल्ले की कीमतों को मुकर्रर करते हैं, इन्हें ख्वाब में मिले थे और इनको भविष्य बताने की शक्ति दी थी। इन्होंने हजरत निजामुद्दीन को ईश्वरीय शक्ति दी। इसके अलावा इन्होंने इस शक्ति का कभी इस्तेमाल नहीं किया। यह एक विख्यात धर्मोपदेशक की तरह रहे और मरे, यद्यपि बादशाह ने इनके जनाजे को कंधा दिया, मगर जो इज्जत अफजाई इनके मुरीदों ने इनकी की, उसके मुकाबले में यह कोई बड़ी बात न थी।
इन्होंने अपने बिस्तरे मर्ग से अपना असा और अब्बा अपने मुरीद फरीद शकरगंज के पास पाकपट्टन भेज दिया था, जो मुलतान के नजदीक है। यह रिवायत है कि जब एक बार इनके गुरु मुईनुद्दीन चिश्ती अजमेर से दिल्ली तशरीफ लाए तो इन्होंने उनके साथ वहां चलने की इच्छा प्रकट की, लेकिन जैसे ही लोगों को इस बात का पता लगा तो उन्होंने मुईनुद्दीन की सेवा में निवेदन किया कि कुतुब साहब को उनकी बेहतरी और इज्जत के लिए उनके बीच में ही रहने दिया जाए।
अवाम की इच्छा का ख्याल करते हुए उनकी प्रार्थना को स्वीकार किया गया और कुतुब साहब दिल्ली में ही रहे और जब उनका इंतकाल हुआ तो उन लोगों के बीच दफन किए गए जो सदा उनसे मोहब्बत और प्यार करते थे। इनके मजार का सदा ही बड़ा अहतराम होता रहा है और यह रिवायत है कि आदिल शाह सूरी का हिंदू सेनापति हेमू मुगल सेना के मुकाबले के लिए जाने से पूर्व कुतुब साहब के मज़ार की जियारत को गया था और उसने यह प्रतिज्ञा की थी कि यदि वह दिल्ली फतह कर सका और मुगल सेना को भगा सका तो वह मुसलमान बन जाएगा।
जब कुतुब साहब की मृत्यु का समाचार पाकपट्टन पहुंचा तो फरीद शकर दिल्ली तशरीफ लाए और संत की कब्र को मिट्टी से ढक दिया जिसे वह खुद हौज शम्सी से उठाकर लाए थे। मजार अभी तक उस मिट्टी का ही बना हुआ है, जिस पर सफेदी होती रहती है और उस पर एक सफेद चादर बिछी रहती है। 1541 ई. में शेरशाह सूरी के काल में खलीखुल्लाह खां ने मजार के गिर्द एक बड़ी दीवार और उत्तर की और एक दरवाजा बनवा दिया था, जिस पर कुतबा लिखा हुआ है।
दस वर्ष बाद सलीम शाह के जमाने में 1551 ई. में यूसुफ खां ने एक दूसरा दरवाजा बनवाया जो मौजूदा सदर दरवाजा है। इस दरवाजे से प्रवेश करके चालीस गज लंबी एक गली आती है, जिसमें मकानों और सहनों की पुश्त पड़ती है। इस गली के आखिर में पत्थर की छह सीढ़ियां हैं जिनसे मौलाना फखरुद्दीन के तामीर करदा द्वार में दाखिल होते हैं, जो शाह आलम के जमाने में एक बा- रसूख व्यक्ति था। दरवाजे के एक तरफ तीन कमरे हैं और मुकाबले की तरफ एक कमरा है, जो मुसाफिरों के आराम के लिए बनाया गया था।
इस दरवाजे में प्रवेश करने से पूर्व दर्शक के दाएं हाथ एक दीवारदार अहाता पड़ता है, जो 57 फुट 54 फुट का है। इसके पश्चिम में तीन दरवाजों की एक छोटी मस्जिद है और मस्जिद के सामने नवाब झज्जर के कुटुंब का कब्रिस्तान है। इसमें सबसे मशहूर कब्र झज्जर के प्रथम नवाब निजाब अली खां की है, जिसे लार्ड लेक ने ब्रिटिश सरकार की ओर से जागीर दी थी। यह एक सादे संगमरमर के मकबरे से ढकी हुई है, जो 3 फुट ऊंचा और 10 फुट लंबाई-चौड़ाई में है। इसी के नीचे निजाब अली की बेगम की कब्र भी है। इन कब्रों के सिरहाने की तरफ इसी आकार की संगमरमर की एक और कब्र है, जिस पर 1843 ई. पड़ा है।
यह निजाब अली के लड़के फैज मोहम्मद की है। इस कब्र के दाएं हाथ एक और कब्र है, जो फैज मोहम्मद की कब्र जैसी ही बनी हुई है। यह फैज अली खां की है जो झज्जर के आखिरी नवाब अब्दुल रहमान खां के पिता थे। अब्दुल रहमान खां को 1857 ई. के गदर में अंग्रेजों ने बागियों का साथ देने पर फांसी दी थी। जब आप मकबरे के अंदरूनी अहाते में मौलाना फखरुद्दीन के दरवाजे से दाखिल होते हैं तो आपको पत्थर के फर्श का एक सहन मिलेगा। इसके सामने कोई बीस गज के अंतर पर दीवार में एक लंबोतरा दरवाजा है और दाएं हाथ एक महराबदार दरवाजा है; आपके दाएं हाथ के नजदीक महराबदार दरवाजे पर पहुंचने से पेशतर कोई 35 मुरब्बा फुट का एक और अहाता है, जिसकी दीवारें दस फुट ऊंची लाल पत्थर की बनी हैं। इस अहाते में औरंगजेब के दरबार के एक ख्वाजा सरा मोहम्मद खां की कब्र है, जिसका असल नाम ख्वाजा नूर था और वह ग्वालियर तथा आगरा के किलों का किलेदार रह चुका था। अहाते में एक महराबदार दरवाजे से दाखिल होते हैं, जिसकी दहलीज पर एक कुतवा लिखा हुआ है। कब्र पर मकबरा बिल्कुल सादा बना हुआ है। यह संगमरमर का बना हुआ है। इसकी ऊंचाई करीब 3 फुट है और यह 3 फुट ऊंचे चबूतरे पर बना हुआ है। अहाते के पश्चिम में पांच दरों की एक मस्जिद है, जो 29 फुट लंबी और 8 फुट गहराई में है। मस्जिद की लंबाई में पत्थर जड़ा हुआ है जो साढ़े पांच फुट चौड़ा है। अहाते में चार कब्रें और हैं, जो निजामुद्दीन के मिर्जा इलाहीबख्श के परिवार की हैं।
बाएं हाथ को मुड़कर और महराबदार लंबोतरे दरवाजे से गुजरकर पत्थर के एक फर्श की गली आती है, जो 58 फुट लंबी और 6 फुट चौड़ी है और इसमें उत्तर से दक्षिण को चार फुट का ढलान है। दाएं हाथ पर कुतुब साहब के मजार के अहाते की संगमरमर की दीवार है और बाएं हाथ उनकी मस्जिद की पुश्त है। इस गली के सिरे पर संगमरमर का एक दरवाजा है और इसके दाएं हाथ संगमरमर का चार फुट ऊंचा तावीज है, जो मौलाना फखरुद्दीन की कब्र पर बना हुआ है। संगमरमर के दरवाजे पर फर्रुखसियर की हुकूमत के काल का एक कुतबा लिखा हुआ है। दाएं हाथ घूमकर कोई 30 फुट दाएं हाथ कुतुब साहब के मजार की दक्षिण दीवार है और जाली के काम की चार जालियां हैं; दूसरे संगमरमर के दरवाजे में घुसने से पहले बाएं हाथ पर छोटा-सा एक कब्रिस्तान है, जिसमें बांदा के नवाब की कब्रें बनी हुई हैं। इनमें तीन संगमरमर की हैं, जिन पर बारीक पच्चीकारी का काम बना हुआ है। बांदा के नवाबों के शवों को दफनाने के लिए महरौली भेजा जाया करता था, लेकिन 1857 ई. के गदर के बाद यह रिवाज बंद हो गया।
दूसरे संगमरमर के दरवाजे में से गुजरकर और दाएं हाथ घूमकर एक अहाता आता है, जिसकी पूर्वी और दक्षिणी दीवारों का जिक्र आ चुका है। यह अहाता 9 फुट 57 फुट है। इसकी तीन चौथाई पश्चिमी दीवार पर टाइल लगे हुए हैं। बाकी की पश्चिमी और उत्तरी दीवारें चूने पत्थर की बनी हुई हैं। पश्चिमी दीवार के उत्तरी कोने में एक दीवार वाली मस्जिद है जिसे, कहते हैं, फरीद शकरगंज ने बनवाया था, जब वह कुतुब साहब के मजार की जियारत को आए थे। मजार के चारों ओर लकड़ी का कटघरा लगा हुआ है, जो 21 मुरब्बा फुट लंबाई, चौड़ाई में और दो फुट ऊंचाई में है। जैसा कि बताया जा चुका है, मजार मिट्टी से ढका हुआ है और उसे बदनजर से बचाने के लिए एक सफेद कपड़े का टुकड़ा बिछा रहता है। इस मजार के चंद फुट पर ताजुद्दीन सैयद अहमद और सैयद मोहम्मद कुतुब साहब के साहबजादों बदरुद्दीन गजनवी, इमामुद्दीन अब्दात और अन्य पंथियों की कब्रें बनी हुई हैं।
दाएं हाथ, फर्रुखसियर के संगमरमर के पहले दरवाजे से गुजरकर और करीब दस गज के फासले पर कुतुब साहब के दोस्तों और संबंधियों की कब्रें हैं। थोड़ा आगे बढ़कर संगमरमर का एक चबूतरा 4 फुट ऊंचा और 11 मुरब्बा फुट लंबा चौड़ा बना हुआ है। इस चबूतरे पर दो सुंदर संगमरमर के तावीज हैं। एक बदनाम जाब्ते खो की कब्र पर है, जिसने दिल्ली सल्तनत के बरबाद होने में सहायता दी और जिसका लड़का गुलाम कादिर अपने बाप से भी अधिक बदनाम हुआ, और दूसरा तावीज जाब्ते खां की बीवी की कब्र पर है।
अब जैसे ही अपने दाएं को घूमिए और पक्के फर्श पर उस गली के बिल मुकाबिल, जिसका जिक्र ऊपर का चुका है, चलिए तो कुतुब साहब की मस्जिद आ जाती है।