दिल्ली के गुरुद्वारों का इतिहास

अव्वल अल्ला नूर उपाया कुदरत के सब बंद

एक नूर से सब उपजाया कौन भले कौन मदे

सिख धर्म के अनुयायी हिन्दुस्तान के कोने-कोने में बसे हुए हैं। विदेशों में भी इनकी खासी संख्या रहती है। ये लोग बड़े पराक्रमी और परिश्रमी होते हैं और अपने इन्हीं गुणों के कारण जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में सफल हैं। सिख धर्म के संस्थापक गुरु नानक देव जी थे जो 20 अक्तूबर, 1469 को पूर्णमासी के दिन तलवंडी में (जो ननकाना साहब कहलाता है और अब पाकिस्तान में है) पैदा हुए थे। वे बहुत बड़े संत थे और लोग इन्हें ‘सच्चे बादशाह’ कहा करते थे। गुरु नानक जी के बाद सिखों के नौ गुरु और हुए जिनके नाम हैं-गुरु अंगद, गुरु अमरदास, गुरु रामदास, गुरु अर्जुन देव, गुरु हरगोविन्द, गुरु हरिराय, गुरु हरिकृष्ण, गुरु तेगबहादुर और गुरु गोबिन्द सिंह। गुरु ग्रंथ साहब इनका पावन ग्रंथ है। दिल्ली में भी सिखों की एक बड़ी संख्या हमेशा रही और आज तो दिल्ली में इनकी आबादी चौदह-पंद्रह लाख के क़रीब होगी। दिल्ली में सिखों के बहुत से ऐतिहासिक गुरुद्वारे हैं जिन्हें देखने के लिए विदेशी पर्यटक भी बड़ी संख्या में आते हैं।

गुरुद्वारा नानक प्याऊ

जब सिकंदर लोधी सिंहासन पर बैठा तो गुरु नानक बीस वर्ष के थे। चौतीस वर्ष की आयु में उन्होंने पूरे पंजाब का दौरा किया। दो वर्ष बाद 1505 में वह मदांना और भाई बाला के साथ पूर्वी क्षेत्रों की ओर चल दिए। बैसाखी के मौके पर वह हरिद्वार पहुँच गए और कुरुक्षेत्र होते हुए जून 1505 में दिल्ली पहुँचे। गुरु नानक पुरानी सब्जी मंडी के बाहर एक बाग़ में ठहरे। लोग बड़ी तादाद में उनके दर्शनों के लिए आने लगे। यही बाग़ उनके प्रवास के कारण एक धार्मिक स्थान बन गया। जिस व्यक्ति का यह बाग था उसने ख़ुशी से इसे एक धार्मिक स्थान में बदल दिया। यात्री उस स्थान पर आते, गर्मी में उन्हें कुएँ का ठंडा पानी पिलाया जाता और लंगर से खाना खिलाया जाता । क्योंकि यहाँ प्यासों की प्यास बुझती थी इसलिए यह गुरुद्वारा नानक प्याऊ कहलाया। उस ज़माने की एक घटना मशहूर है-एक दिन गुरु नानक जी ने देखा कि कुछ लोग सड़क पर रो रहे हैं कि उनका हाथी मर गया। गुरु नानक देव ने पड़े हुए हाथी को देखकर कहा कि यह मरा नहीं है और उनकी कोशिश से हाथी उठ गया। इसके कुछ दिन बाद सिकंदर शाह का हाथी मर गया और लोगों के कहने पर उसने गुरु नानक को बुलवा कर उनसे हाथी को जिन्दा करने के लिए कहा। उनके इन्कार करने पर बादशाह ने उन्हें जेलखाने में डाल दिया। 12 जुलाई 1505 को दिल्ली में इतना जबरदस्त भूकंप आया कि सब इमारतें बुरी तरह हिलने लगीं। तारीख़-ए-दाऊदी में उस भूकंप का उल्लेख इन शब्दों में किया गया है-

“भूकंप इतना भयंकर था कि पहाड़ उथल-पुथल हो गए और ऊँची इमारतें गिरकर चूर-चूर हो गई। ऐसा लगा जैसे धरती पर प्रलय आ गया है।” बहुत लोगों ने सोचा कि फकीर नानक देव के कैद होने से दिल्ली पर यह प्रकोप हुआ है। बाद में चिश्ती सूफ़ियों के प्रभाव में आकर बादशाह का दिल भी बदल गया और उसने गुरु नानक को रिहा कर दिया।

गुरुद्वारा मजनूं का टीला

जमना के किनारे पर एक मुस्लिम दरवेश रहते थे जो एकांत में इबादत में जिन्दगी गुजार रहे थे। इबादत और रोजों की वजह से वह सूखकर काँटा हो गए थे और वह ख़ुदा के जलवे के लिए इतना तड़पते थे जैसे कोई सच्चा प्रेमी अपनी प्रेमिका के लिए तड़पता है। इसी कारण लोगों ने उनका नाम मजनूँ रख दिया। जब उनका गुरु नानक जी से सम्पर्क हुआ तो उन्हें यह दीदार हासिल हो गया जिसके लिए यह तड़प रहे थे और वह गुरु के बड़े पक्के चेले बन गए। उनकी कुटिया के स्थान को मजनूँ का टीला कहने लगे। आगे चलकर यह सिख धर्म का एक बड़ा केन्द्र बन गया। इसमें गुरु नानक भी ठहरे और बाद में गुरु हरगोबिन्द और गुरु हरिराय के पुत्र रामराय यहाँ ठहरे। सिख हर साल यहाँ बैसाखी का त्योहार मनाते हैं।

गुरुद्वारा बंगला साहब

गुरु हरिराय के बाद उनके बेटे रामराय गुरु बनने की कोशिश में लग गए जबकि साधु संगत गुरु हरिकृष्ण को अगला गुरु मानती थी। रामराय गुरु बनने के लिए औरंगजेब की मदद लेने को तैयार थे उस जमाने के दिल्ली के मशहूर सिखों ने, जिनमें लक्खीराम कल्याणचन्द और भाई गुरुबख्श भी शामिल थे, रामराय से अपील की कि गुरु हरिकृष्ण जी का विरोध न करें बादशाह ने इस मामले को सुलझाने के लिए राजा जयसिंह की मदद ली और राजा जयसिंह ने गुरु हरिकृष्ण को दिल्ली बुलवाया और बादशाह को विश्वास दिलाया कि जब तक बादशाह की इस मामले में तसल्ली न हो जाए कि गुरु की गद्दी का हक़दार कौन है, गुरु हरिकृष्ण राजा जयसिंह के बंगले में उनके अतिथि बनकर ठहरेंगे। गुरु हरिकृष्ण इस बंगले में एक या दो महीने ठहरे होंगे और यह एक प्रमुख ऐतिहासिक गुरुद्वारा बन गया। यह गुरुद्वारा गोल डाकखाने के पास है और इसकी गिनती दिल्ली के सबसे प्रसिद्ध ऐतिहासिक गुरुद्वारों में होती है।

गुरुद्वारा वाला साहब

गुरु हरिकृष्ण जी ने दिल्ली आकर गरीबों और दुखियों की बड़ी मदद की थी। अगरचे उम्र में यह बच्चे थे मगर एक मुकम्मल गुरु थे मुसलमान भी उनकी बड़ी । इज्जत करते और चूँकि वह बच्चे थे उन्हें श्रद्धा से ‘वाला पी’ कहा करते थे। वह गरीबों की मदद तो करते ही थे बीमारों की सेवा-टहल में भी लगे रहते थे। वह सारे चढ़ावे और दान की रकम को रोगियों के इलाज और भूखे नंगों को रोटी कपड़ा देने पर खर्च करवाते थे। जब उन्हें खुद पहले बुखार और फिर चेचक हो गई तो उस गुरु ने, जिनकी करामात से रोगी चंगे हो जाते थे, शरीर को त्यागने का निर्णय किया और उसे ईश्वर की इच्छा समझा। गुरु हरिकृष्ण ने 30 मार्च, 1664 को चोला छोड़ दिया और उनकी समाधि पर गुरुद्वारा बाला साहब बन गया। उसी गुरुद्वारे में माता सुंदरी की समाधि है। एक हिस्से में माता साहब देवी की समाधि भी है। यों तो पूर्णमासी के दिन मेला-सा लगा रहता है लेकिन मार्च-अप्रैल या चैत के महीने की पूर्णमासी का विशेष महत्त्व है।

गुरुद्वारा सीसगंज

यह गुरुद्वारा दिल्ली में सिखों का सबसे प्रसिद्ध ऐतिहासिक गुरुद्धारा है जो चाँदनी चौक में बीचों-बीच फव्वारे के निकट स्थित है। इसके पास ही कोतवाली थी. जो अब पूरे तौर पर सिखों को सौंप दी गई है। गुरु तेगबहादुर की शहादत जिस जगह हुई थी उसी जगह पर गुरुद्वारा सीसगंज बना है। वह पेड़ जिसके नीचे वह शहीद किए गए थे उसका तना अभी तक क़ायम है और वह कुँआ भी जहाँ उन्होंने शहीद होने से पहले स्नान किया था। मतिदास और दयालदास ने भी अपने गुरु के साथ शहादत पाई थी।

सिख या गैर-सिख, विदेशी जो भी पर्यटक दिल्ली आता है गुरुद्वारा सीसगंज के दर्शन अवश्य करता है। इस गुरुद्वारे में हर समय पाठ होता रहता है और श्रद्धालुओं की बहुत बड़ी भीड़, जिनमें हिन्दू भी बहुत होते हैं हर समय गुरुद्वारे के अंदर और बाहर मौजूद होती है। इस गुरुद्वारे में हर रोज लंगर ग़रीबों, अमीरों और हर मज़हब के लोगों को बैटता है।

गुरुद्वारा रकाबगंज

गुरु तेगबहादुर की शहादत के बाद लोगों की बहुत बड़ी भीड़ रोती-पीटती उनके शव के निकट आती गई ताकि वे अपने प्यारे गुरु के अंतिम दर्शन कर सकें। जो आकाश अब तक साफ़ था काले बादलों से अचानक टैंक गया था। कहते हैं कि भीड़ में से अचानक एक आदमी कूदा और गुरु का सिर उठाकर भयाक्रांत जनसमूह में गायब हो गया। यह आदमी भाई जोता था जो एक भंगी के वेश में था। वह अपने गुरु का सिर लेकर सीधा आनंदपुर पहुँचा।

जब मौसम साफ़ हुआ तो लोगों ने देखा कि गुरु का शव भी गायब था। हरेक आदमी ने सोचा कि यह एक चमत्कार था। उस शव को लक्खी शाह के बेटे अपने निवास पर रायसीना गाँव ले गए। यह जगह पार्लियामेंट हाउस के पास है जहाँ अब मशहूर रकाबगंज गुरुद्वारा है। इसी जगह पर गुरु का चंदन की लकड़ियों पर दाह संस्कार हुआ और उसके साथ लक्खी शाह के बेटों ने अपना सारा घर फूंक दिया। आज यह गुरुद्वारा बहुत ही आलीशान संगमरमर की इमारत है और हजारों-लाखों सिख और हिन्दू यहाँ आकर माथा टेकते हैं।

गुरुद्वारा मोती बाग

यह गुरुद्वारा नानकपुरा मोती बाग़ में रिंग रोड पर सड़क के किनारे स्थित है। पहले इसकी इमारत मामूली और सादा थी, मगर हाल ही में उसकी नई इमारत बन गई है। गुरु गोबिन्द सिंह जब औरंगजेब से मिलने दिल्ली आए थे मोती बाग में इसी जगह ठहरे थे जहाँ अब गुरुद्वारा है। मोती बाग़ एक मोची मोती का था और इसका नाम मोची बाग़ भी था। मोती एक संपन्न चमड़ा व्यापारी था। उसने एक बस्ती बसाई जिसमें मोची और चमड़ा रंगने वाले रहते थे। यह बस्ती मोती बाग़ के बिल्कुल पास थी। आदि ग्रंथ की पहली स्थापना इसी गुरुद्वारे में मनाई जाती है।

गुरुद्वारा दमदमा

जब गुरु गोबिन्द सिंह बादशाह से मिलने दिल्ली आए तो उन्होंने अपने आगमन की सूचना बादशाह बहादुरशाह प्रथम को लाल किले में एक तीर छोड़कर दी। गुरु गोबिन्द सिंह जबरदस्त तीरंदाज़ थे। उनकी और बादशाह की पहली मुलाकात हुमायूँ के मकबरे के पास हुई और यही जगह बाद में गुरुद्वारा दमदमा बन गई। यह भी सिखों का एक महत्त्वपूर्ण गुरुद्वारा है।

कूचा दिलवाली सिंघों, हवेली (गुरुद्वारा)

माता सुंदरी और मटिया महल

माता सुंदरी और माता साहब देवी बहुत वर्षों तक दिल्ली में ठहरीं जब गुरु गोबिन्द सिंह दक्षिण गए हुए थे। एक दंत कथा के अनुसार ये दोनों गुरु गोबिन्द सिंह के साथ भी दक्षिण गई थीं मगर उनकी मृत्यु से कुछ ही दिन पहले दिल्ली भेज दी गई थीं। माता साहब देवी के बारे में इतिहासकार विलियम इरविन ने चहार गुलशन के हवाले से लिखा है, “वह क्वाँरा डोला यानी क्वाँरी दुलहन के नाम से मशहूर थीं। उन्होंने किसी दूसरे को अपना पति बनाने से इन्कार कर दिया। वह एक संन्यासिन थीं।”

माता सुंदरी और माता साहब देवी कई वर्षों तक अजमेरी दरवाजे के पास कृचा दिलवाली सिंघों में रहीं। उनके साथ भाई नंदलाल कृपालचंद जो गुरु के मामा थे और माता साहब देवी के भाई साहबसिंह भी रहे। माता सुंदरी ने गुरु गोविन्द सिंह की अनुमति से एक ऐसे लड़के को गोद ले लिया था जो उनके सबसे बड़े पुत्र अजीतसिंह की हु-ब-हू तस्वीर था। माता साहब देवी को हमेशा के लिए ‘खालसा माता’ बना लिया था। उन्हें ‘हुक्मनामों पर गुरु की मुहर लगाने का अधिकार भी दे दिया।

जब माता सुंदरी का दत्तक पुत्र अजीत सिंह एक मुसलमान फ़क़ीर के क़त्ल के अपराध में गिरफ्तार कर लिया गया तो माता सुन्दरी ने उसे बेटा मानना छोड़ दिया। माता सुंदरी और माता साहब देवी दो साल के लिए मथुरा चली गई और मामले के ठंडा होने पर दिल्ली लौट आई। दिल्ली आकर वह हवेली माता सुंदरी में ठहरीं जो अब गुरुद्वारा माता सुंदरी कहलाता है। माता सुंदरी की 1747 ई. में मृत्यु हुई और उसके एक-दो वर्ष बाद ही माता साहब देवी भी गुजर गई। दोनों की समाधियाँ गुरुद्वारा बाला साहब में हैं।

माता साहब देवी के निधन के बाद गुरुओं के हथियारों को भाई जीवन सिंह और उनके उत्तराधिकारियों ने मटिया महल के मुहल्ला चितली कब्र में अपने घर में रख लिया। इसी कारण इस जगह को गुरुद्वारे की-सी पुनीत स्थिति प्राप्त हुई। बाद में उन हथियारों को गुरुद्वारा रकाबगंज ले जाया गया।

माता सुंदरी गुरुद्वारा अब इरविन अस्पताल के पीछे है। इस गुरुद्वारे में गुरु गोविन्द सिंह के पुत्रों की शहादत हर वर्ष मनाई जाती है। सिखों के परब पर जुलूसों की शान निराली और अनोखी होती है। इन जुलूसों में सिख धर्म के माननेवाले लाखों की संख्या में शामिल होते हैं।

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