लाल किले की अनोखी दीपावली

रामलीला और विजय दशमी की तैयारियों पूरी होती तो दिल्ली वाले दिवाली की तैयारियाँ शुरू कर देते। वास्तव में दिवाली का संबंध भी राम से ही है। इसे रामलीला का हिस्सा समझ लें तो कोई गलत बात नहीं होगी। राम रावण पर विजय पाकर अयोध्या लौटकर सिंहासन पर बैठते हैं और सारी अयोध्या में दीए जलाए जाते हैं। दिवाली के त्योहार का यही आधार है। इस दिन लक्ष्मी पूजन होता है। दिल्ली वाले स्पोहारों को जी खोलकर मनाते थे। खुशहाल घरों में तो दिवाली बड़ी धूमधाम से मनाई जाती। कई दिन तक बढ़िया-बढ़िया पकवान, गुझिया, बेसन की पापड़ियाँ, मेवे, पेड़े-लड्डू, समोसे आदि बनते और कनस्तरों में भरकर रख लिए जाते। सबके नए कपड़े बनते, घर के लिए नए बरतन खरीदे जाते। घर की पूरी सफ़ाई और लिपाई-पुताई होती दुकानें भी सजती, नए बहीखाते खोले जाते बढ़िया चित्र खिलौने और सजावट की चीजें खरीदी जातीं। खील, खाँड़ के खिलौने और हलवाई की मिठाई और सूखा मेवा भी खरीद कर घर लाया जाता। हिन्दुओं की दिवाली की यही खुशी थी जो मुसलमानों की ईद की थी दिवाली के दिन मुसलमान भाई भी अपने हिन्दू दोस्तों को मुबारकबाद देते और हिन्दू उन्हें मिठाई खिलाते थे।

दीए जलने का दृश्य

मिट्टी के दीयों का छोटी-लंबी पंक्तियों में जलने का दृश्य कुछ और ही होता था। यह दृश्य अब गाँवों में भी देखने में नहीं आता। उन दिनों सरसों के तेल के दीए जलाए जाते थे। चंद आनों का सेर भर सरसों का तेल और एक आने के पचास मिट्टी के छोटे दीए मिल जाते थे। मोमबत्ती सिर्फ़ अमीर और रईस जलाते और इसे शान समझा जाता था। मंदिरों में और जमना के किनारे असंख्य दीए अनन्त पंक्तियों में जगमग जगमग जलते छोटी और बड़ी दीवाली पर दोनों ही दिन प्रकाश किया जाता। पहले दिन कुछ कम और दूसरे दिन बहुत ज़्यादा। दीवाली वाली रात जिघर नज़र उठाओ रोशनी ही रोशनी होती। सारा शहर रोशनी में नहाया हुआ होता जैसे शहर नहीं कोई जादू नगरी हो।

बाजारों का दृश्य

पटरियाँ और दुकानें सामान से अटी पड़ी रहती और लोगों के ठठ-के-ठठ उमड़े पड़े होते। हलवाइयों की चाँदी हो रही होती। दीवाली के दिन साल भर की कमाई हो जाती है। उनकी दुकानों पर इतनी भीड़ होती कि हालांकि देने और तोलने वाले आम दिनों से तिगुने और चौगुने होते लेकिन एक घंटे से पहले बारी नहीं आती। लोग घर के लिए भी ख़रीद रहे होते और रिश्तेदारों, दोस्तों और अधिकारियों के घर भिजवाने के लिए भी। ख़ुश्क़ मेवा भी बहुत सस्ता होता था। रुपया सवा रुपया सेर कागजी बादाम होता था। यही भाव भुने हुए चिलगोज़ों का था। सेरों सूखा मेवा घर लाया जाता था। खाने के लिए भी और बाँटने के लिए भी। शायद ही कोई मुफ़लिस और फ़क़ीर हो जिसे दिवाली वाले रोज मिठाई खाने को न मिलती हो।

पूजा दिवाली वाले दिन घरों में पक्का खाना यानी पूरी कचौरी, खीर और दही बड़े आदि बनते। रात को लक्ष्मी के चित्र पर पान का पत्ता और साबुत सुपारी लगाकर चाँदी का रुपया या सोने की अशरफी आटे से चिपकाकर लक्ष्मी पूजन करते। इस अवसर पर घर के सब लोग बैठते और औरतें नई साड़ियाँ और पूरा जेवर पहनकर पूजा का सामान लगातीं और पूजा करतीं। जिस कमरे में पूजा होती उसमें सारी रात एक बड़ा सरसों का दिया जलाया जाता और उस पर औरतें नया काजल भी बना लेतीं। दिवाली वाले दिन घर में अंधेरा नहीं किया जाता और कोई-न-कोई रोशनी रहती। यह भी विश्वास था कि रात को लक्ष्मी किसी भी समय घर में आ जाएगी।

किले की दिवाली

क़िले में भी दिवाली बड़ी धूमधाम से मनाई जाती थी। बादशाह सोने, चाँदी और सतनाजे’ में तुलते थे जो गरीबों में बाँट दिया जाता था। बादशाह गुस्ल करके लिबास तब्दील करते और नजे क़बूल करते। रात को क्रिले की बुर्जियाँ रोशन की जाती। खील बताशे और खाँड़ के खिलौने, हटड़ियाँ और गन्ने दौरा अमीरों और रईसों में बाँटे जाते थे। एन्ड्रयूज लिखते हैं-

“दोनों फ़िरक़ों के लोग एक-दूसरे के धार्मिक त्योहारों में शिरकत किया करते थे। विभिन्न धर्म वालों के पड़ोसियों के साथ शांतिमय ढंग से रहने की कला उच्च स्तर को पहुँच गई थी। बादशाह इन मामलों में जिन्दगी-भर इन उसूलों का पालन करते रहे। वे क़िले के अठपहलू बुर्ज में बैठकर हिन्दुओं और मुसलमानों के त्योहारों की तैयारियों और तमाशों को देखा करते थे। इस तरह से भलाई की भावनाएं बढ़ती थीं।”

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