पटेबाजी, लठबाजी और बंदी भी उन दिनों जनता के बहुत पसंद थे। ये शहरी इलाक़ों में और देहात में भी उनमें इस्तेमाल होने वाला हथियार लकड़ी का डंडा या छोटी लाठी होती जिसकी लंबाई सवा गज होती थी। अनुभवी व्यक्ति के हाथों में सशस्त्र लोगों से मुकाबिला करने के लिए बड़ा कारगर हथियार था। इस सिलसिले में एक मशहूर डाकू का क़िस्सा सुनने में आता है। यह डाकू बड़ा भीमकाय और बलशाली था और हरदम अपने साथ लोहे की एक भारी सलाख रखता था, जिसका वजन एक मन था। उस डाकू ने दूर-दूर तक दहशत फैला रखी थी। उसकी हिमाकत इतनी बढ़ गई थी कि वह दिन दहाड़े डाका डालता। मगर उसमें एक खूबी थी कि वह सबको बताकर और सबके सामने से खुल्लमखुल्ला चोरी का माल गठरी में बांधकर ले जाता था, बल्कि चैलेंज देता था कि कोई रोक सकता है तो रोक ले।
एक बार वह डाका डालने के लिए दिल्ली के बाहरी इलाके में पहुंच गया और एक फ़ौजी के घर में घुस गया। फौजी घर पर नहीं था मगर इसकी जानकारी डाकू को नहीं थी। घर में उस समय फ़ौजी की बीवी और उसकी मां थी। वह बेचारी छिपकर बैठ गई। डाकू ने इत्मीनान से घर में जो माल, नकदी और जेवर था इकट्ठा किया और उसे आंगन में बैठकर एक गठरी में बांधने लगा। जब बाँध चुका तो अपनी आदत के मुताबिक जोर से बोला-“मैं माल ले जा रहा हूं किसी में हिमाकत हो तो रोक ले।” “आज अगर मेरे वह घर पर होते तो तू यह माल यहां से नहीं ले जा सकता था। कहा गया हुआ है वह?” डाकू ने औरत की हिम्मत पर हैरान होकर पूछा “वह अपनी ड्यूटी पर हैं। एक हफ्ते के बाद घर आने वाले हैं” औरत बोली। “तो कोई बात नहीं”, डाकू बोला, “मैं यह सामान अभी छोड़े जाता हूं, एक हफ्ते के बाद ले जाऊंगा। यह भी देख लूंगा कि वह क्या कर सकता है ?”
डाकू एक हफ़्ते के बाद अपने हथियार से लैस फिर फौजी के घर आया। फौजी आ चुका था और उसे सारे माजरे का पता लग गया था। डाकू ने गठरी में फिर सारा माल बांधा और आंगन में खड़े होकर फौजी को, जो सो रहा था, ललकारा कि माल ले जा रहा हूं, हिम्मत है तो रोक लें।
फौजी आंखें मलता हुआ उठ गया और अपनी लाठी उठाकर बाहर आ गया। उसने डाकू से कहा कि यह गठरी यहीं रखकर फौरन घर से बाहर निकल जाए। इस पर डाकू जोर से हंसा और बोला कि आज तक किसी माई के लाल में मुझे रोकने की हिम्मत नहीं हुई। अपनी जवान बीवी पर तरस खा और मुझसे टक्कर न ले। मगर फौजी ने उसे नफ़रत से देखा और बोला कि तेरे जैसे डाकू में कई देख चुका हूं। इस पर डाकू को तैश आ गया और उसने उठकर अपने लोहे के डंडे से फौजी पर एक भरपूर वार किया। फौजी ने कमाल की फुर्ती से उस वार को बचाया। डाकू ने फिर ज़्यादा गुस्से से वार किया मगर वह भी खाली गया। फौजी बोला कि दो बार तेरे हो चुके हैं, एक बार अब मेरा भी हो जाए। यह फौजी लठबाजी का माहिर था। उसने लाठी का एक ऐसा भरपूर वार किया कि डाकू पलक झपकते बेहोश होकर नीचे गिर पड़ा। उन दिनों लाठी बारे में कवि गिरिधर की यह कुंडली मशहूर थी–
लाठी में गुण बहुत हैं सदा राखिये संग
गहरी नदि नाला जहां तहां बचावै अंग
तहां बचावे अंग झपट कुत्तों को मारै
दुश्मन दावागीर होय ताऊ को झारै
कहे गिरिधर कविराय सुनो ऐ घर के बाठी
सब हथियारन छाड़ि हाथ में लीजै लाठी।
लाठी की भी कई किस्में होती थीं, मगर लकुटी और लघु लोहबंद अधिक प्रचलित थे। तेल पिलाकर और मसाले लगाकर तैयार की हुई लाठी को लकुटी कहते थे और ऐसा जिसके सिरों पर लोहे के लट्टू बढ़े हों और पोरों पर तार की बॉकेश चढ़ी हुई हो वह लट्ठ लोहबंद कहलाता था। लट्ठ लोहबंद के एक वार से आदमी मर सकता था।मिर्जा संगी बेग मीर हामिद अली खां के खानदान के मशहूर फिकैत थे। नवाब मिर्जा दाग ने फिकैती के फन और अली मदद उन्हीं से सीखी थी। उन जैसी थपकी और कोई नहीं मार सकता था।
तीरंदाजी
अगरचे तीरअंदाजी लोगों में अधिक लोकप्रिय नहीं थी। मगर फिर भी दिल्ली में इसके कई उस्ताद हुए हैं। इसके अलावा बादशाह और दरबार के अमीर इसका शौक रखते थे। बहादुरशाह जफर को तो तीरअंदाजी में काफी महारत हासिली थी। बादशाह जवानी में, जब वह युवराज थे, तीरअंदाजी का अभ्यास बराबर किया करते थे। इसके लिए दीवान-ए-खास में एक जर-ए-सक्रीत (कर्जण यंत्र) लगा रखी थी। उससे कई मन चनों की भी पोट नीचे लटका दी जाती थी। बादशाह उस पर न केवल खुद अभ्यास करते थे बल्कि दूसरों को भी सिखाते थे। एक सूचना के अनुसार मिर्जा मुहम्मद कादिर बख़्श ने तीरअंदाजी में बादशाह की बाक्रायदा शागिर्दी इख़्तियार कर ली थी। बाद में वह खुद तीरअंदाजी के एक बड़े माहिर बन गए थे।
दिल्ली की ये सब पुरानी कलाएं या लोकप्रिय हुनर अब मिट-से गए हैं। तीरअंदाजी तो अब एक अंतर्राष्ट्रीय खेल है मगर उसका स्वरूप बदल गया है और वह तीर-कमान भी अब कहां? शायद इन कलाओं को उस समय की दिल्ली की जिन्दगी रास आई थी जब फुरसत भी थी और बिना झंझट वाली खुशहाली भी, और इन्सान का हाथ कल-पुर्जे से बेहतर था। किसी-न-किसी रूप में ये दो हुनर मेले-तमाशों में कभी-कभी दिखाई देते हैं। मगर वे भी कितने दिन के है? किसी ने सच ही कहा है कि सिर्फ परिवर्तन ही स्थायी है।