पुराने दौर की कई कहानियां रोमांचित करने वाली होती है। इन कहानियों से हमें यह भी पता चलता है कि क्वालिटी की कद्र होती थी। यदि किसी के पास प्रतिभा है तो राजा-महाराजा भी उसके कद्रदान होते थे। आज ऐेसी ही एक कहानी आपको बताते हैं। यह नवाब आसफुद्​दौला से संबंधित हैं।

दरअसल, लखनऊ के नवाब आसफ़उद्दौला के यहां दिल्ली का एक बावरची नौकरी करने के लिए गया। नवाब साहब ने पूछा, “क्या पका लेते हो?”

कहा, “अरहर की दाल पकाता हूं।” पूछा, “तनख्वाह क्या लोगे?” कहा, “पाँच सौ रुपए।”

नवाब साहब ने रख लिया। मगर बावरची ने कहा, “मैं एक शर्त पर काम करूंगा। जब हुजूर को मेरे हाथ की दाल का शौक हो तो एक दिन पहले हुक्म हो जाए और जब खबर दूं कि दाल तैयार है तो उसी वक़्त खा लें।” नवाब ने बावरची की बात मान ली।

कुछ दिन बाद बावरची को दाल पकाने का हुक्म हुआ। उसने तैयार की और ख़बर कर दी। लेकिन बार-बार कहने पर भी नवाब साहब दाल खाने नहीं आए। बावरची परेशान हो गया। उसने दाल की हाँड़ी उठाकर एक सूखे पेड़ की जड़ में डाल दी और नौकरी छोड़कर चल दिया। कुछ दिन बाद देखा गया कि जिस पेड़ के नीचे दाल फेंकी गई थी, वह हरा-भरा हो गया। नवाब साहब को दिल्ली के इस माहिर बावरची के चले जाने का बड़ा रंज हुआ।

दिल्ली का एक रसोइया ऐसे अच्छे करेले पकाता था कि देखने में यह मालूम होता था कि उन्हें भाप भी नहीं लगी और वैसे ही हरे और कच्चे रखे हैं। मगर काटकर खाने के बाद पता लगता कि बहुत जायकेदार और पके हुए हैं और कड़वाहट भी बिल्कुल नहीं है।

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