मोहम्मद जहांगीर शाह (1719-48 ई.)

मोहम्मद जहांगीर शाह उर्फ मोहम्मद शाह रंगीले ने 1719 में 1748 ई. तक राज्य किया। दिल्ली की मुगल सल्तनत अब तक बहुत कमजोर हो गई थी। ईरान के बादशाह नादिर शाह की दिल्ली पर पुरानी निगाह थो। 1738 ई. में छत्तीस हजार सवारों का लश्कर लेकर वह दिल्ली के लिए चल पड़ा।

मोहम्मद शाह की फौज भी दिल्ली से निकलकर करनाल के मैदान में जा पड़ी। नादिर शाह को किसी सख्त मुकाबले का मौका ही न हुआ, क्योंकि निजामुलमुल्क ने पेशावर और लाहौर को पहले ही गांठ लिया था कि वे उसका मुकाबला न करें। करनाल पर दोनों लश्करों का आमना-सामना हुआ, मगर चंद दिनों तक लड़ाई न हुई। दोनों ओर खामोशी रही। फिर लूटमार शुरू हुई, जिसने जंग की सूरत अख्तियार कर ली।

मोहम्मद शाह की फौज ने, जो दो लाख थी, शिकस्त पाई। जब मोहम्मद शाह ने देखा कि निजामुलमुल्क का झुकाव नादिर शाह की तरफ है तो लाचार होकर उसने नादिर शाह की अताइत कबूल कर ली। नादिर शाह ने मोहम्मद शाह की उतनी ही इज्जत की जितनी कि एक बादशाह के योग्य थी, लेकिन सल्तनत की तरफ से बेखबरी का ताना देकर उसे आड़े हाथों जरूर लिया।

उसको यह विश्वास दिलाया कि उसकी मंशा राज्य छीनने की नहीं है, लेकिन जब तक तावान वसूल न हो जाए, दिल्ली पर उसका कब्जा रहेगा। 9 मार्च 1739 को पहले मोहम्मद शाह शहर में पहुंचा और उसके पीछे नादिर शाह किले में दाखिल हुआ। मोहम्मद शाह सिर्फ शाह बुर्ज में रहा, नादिर शाह सारे किले में फैल गया। नादिर शाह ने हुक्म दे दिया था कि शहरियों से किसी किस्म का झगड़ा न किया जाए, लेकिन दसवीं तारीख की शाम के वक्त पहाड़ गंज में बनियों से कुछ दंगा-फिसाद हो गया, और इसके साथ यह अफवाह उड़ गई कि नादिर शाह मारा गया। फिर क्या था? दंगे ने बलवे की सूरत अख्तियार कर ली।

दूसरे दिन सुबह नादिर शाह बलवा रोकने किले से निकलकर चांदनी चौक में कोतवाली के चबूतरे के करीब रोशनुद्दौला की सुनहरी मस्जिद में पहुंचा। बलवाइयों में से किसी ने नादिर शाह पर गोली चलाई, मगर वह बाल-बाल बच गया। यह होना था कि नादिर शाह गुस्से से भर गया और फौरन कत्लेआम का नादिरी हुक्म जारी कर दिया।

जौहरी बाजार से पुरानी ईदगाह तक और जामा मस्जिद के पास चित्तली कब्र से लेकर तेलीवाड़े की मंडी में मिठाई के पुल तक कयामत बरपा हो गई। सुबह आठ बजे से शाम के तीन बजे तक बराबर लूटमार, गारतगरी और कत्ल का बाजार गर्म रहा।

मोहम्मद शाह ने अपना सफीर नादिर शाह की खिदमत में भेजा, जिसने जाकर क्षमा मांगी, तब कहीं कत्ल से हाथ रुका। एक लाख से ऊपर जानें तलवार के घाट उतर चुकी थीं, जिनमें आटे के साथ घुन भी पिस गया और बहुत-सी औरतें और बच्चे भी मारे गए। तेरह तारीख को फिर फसाद हुआ, मगर कम।

शहर की गलियां मुर्दों से अट गई। जहाँ देखो, शवों के ढेर लगे हुए थे। शवों को उठाने और गलियों को साफ करने में कई दिन लगे। सुनहरी मस्जिद के गिर्द कई बरस तक परिंदा पर नहीं मारता था। ऐसा भयानक समां था। उधर से गुजरते डर लगता था। दरीबे का दरवाजा तभी से खूनी दरवाजा कहलाने लगा।

यहां से ही कत्लेआम शुरू हुआ था। तावान जंग की रकम नियत करने में कई दिन लगे। नादिर शाह की मांग पहले चार करोड़ रुपये की थी। मोहम्मद शाह को बदस्तूर बादशाह करार रखा, मगर नादिर शाह ने उसे निजामुलमुल्क से खबरदार रहने को कह दिया। नादिर शाह के बेटे की शादी औरंगजेब की पोती से रचाई गई। शहर में मातम मचा हुआ था। मगर ‘जबरदस्त मारे और रोने न दे लोगों को धूमधाम में शरीक होना पड़ा।

 पांच मई को नादिर शाह दिल्ली से दफा हुआ। उसने ईरान का रुख किया और पहली मंजिल शालीमार बाग में हुई। जो माल-असबाब नादिर शाह लूटकर ले गया, उसका अंदाजा अस्सी करोड़ रुपये किया गया। तख्त ताऊस जो ले गया, वह इसके अतिरिक्त था। सिंध दरिया का पश्चिमी इलाका भी उसकी नजर किया गया। माल-दौलत के अलावा सब मिलाकर दो लाख जानें पटरा हो गईं। नादिर शाह ने दिल्ली वालों को निचोड़ लिया और नाकों चने चबवा दिए। जब लोगों ने सुना कि यह बला यहां से दफा हुई तो उनकी जान में जान आई। मोहम्मद शाह ने इससे भी सबक हासिल न किया। धीरे-धीरे बंगाल, बिहार, उड़ीसा और रुहेलखंड- सब अपनी-अपनी जगह आजाद, हो गए।

नादिर शाह की बला कठिनाई से टली थी कि उत्तर से एक दूसरा हमला दुर्रानी अफगान अहमद शाह अब्दाली ने 1747 ई. में हिंदुस्तान पर कर दिया। इसके मुकाबले पर नवाब मंसूर अली सफदरजंग सिपहसालार बनकर गया, मगर वह असफल रहा। नवाब कमरुद्दीन खां वजीर आम गोली लगने से मारे गए। वजीर का मरना था कि बादशाह का दाहिना हाथ टूट गया और उसे ऐसा सदमा हुआ कि वह गश खाकर गिर पड़ा और मृत्यु को प्राप्त हुआ। यह घटना अप्रैल 1748 ई. में हुई। इसको दरगाह हजरत निजामुद्दीन में दफन किया गया। इस बादशाह के शासन काल में जंतर-मंतर बनाया गया और इसकी बेगम कुदसिया ने कश्मीरी दरवाजे के बाहर एक बाग मय इमारत के बनवाया।

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