रोशनुद्दौला की पहली सुनहरी मस्जिद (1721 ई.)

यह छोटी-सी मस्जिद चांदनी चौक में कोतवाली के साथ रोशनुद्दौला (जफर खां) की बनवाई हुई है, जिसे उसने 1721 ई. में शाह भीक के लिए बनवाया था। इसी मस्जिद की सीढ़ियों पर बैठकर नादिर शाह ने अपनी तलवार निकाली थी और कत्लेआम का हुक्म दिया था। यह मस्जिद 48 फुट लंबी और 19 फुट चौड़ी है।

इसका चबूतरा जमीन की सतह से 11 फुट ऊंचा है। यह सड़क के किनारे बनी हुई है। कोतवाली के पश्चिम में यह मस्जिद और पूर्व में सिखों का गुरुद्वारा है। मस्जिद का दरवाजा कोतवाली के अहाते से होकर जाता है। यहां से आठ तंग सीढ़ियां चढ़कर मस्जिद के सहन में जाते हैं, जहां भूरे पत्थर के चौके बिछे हैं। मस्जिद का सहन पचास फुट लंबा और बाइस फुट चौड़ा है।

मस्जिद के तीन महराबदार दर हैं। बीच की महराब के इधर-उधर दो पतली मीनार हैं। ऊपर अटकोण बुर्जियां और कलस हैं, जो सुनहरी हैं। मस्जिद के दोनों तरफ पैंतीस पैंतीस फुट बुलंद मीनार हैं, जिनके कलस सुनहरे हैं। मस्जिद के दालान के तीन भाग हैं और तीनों दालानों पर तीन सुनहरी गुंबद हैं, जिनमें बीच का गुंबद अन्य दोनों से बड़ा है। बीच का गुंबद मस्जिद की छत से अठारह फुट ऊंचा है और इधर-उधर के पंद्रह-पंद्रह फुट बुलंद हैं।

यद्यपि यह मस्जिद नवाब रोशनुद्दौला की बनाई हुई है, मगर उन्होंने इस मस्जिद को और इसी नाम की एक दूसरी मस्जिद को, जो फैज बाजार में है, शाह मीर के नाम पर बनवाया था। रोशनुद्दौला का असल नाम ख्वाजा मुजफ्फर था। यह शाह आलम लड़के रफीउलशान की मुलाजमत में दाखिल हुआ था। बढ़ते-बढ़ते जफर खां का खिताब मिला। बाद में मुलाजमत छोड़कर शाह भीक की तरफ रजू हो गया और उनके हुक्म से फर्रुखसियर के पास चला गया, जिसने इसे रोशनुद्दौला का खिताब दिया। इसके नाम का कटरा भी कोतवाली के पीछे की तरफ किनारी बाजार में है। इसका देहांत 1736-37 में हुआ। शाह भीक का असली नाम सैयद मोहम्मद सईद था। वह बड़े करामाती थे। रोशनुद्दौला इनके भक्तों में था।

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