1939 में एक बदलती दिल्ली की दास्तान: जब एक रुपये में मिलता था ‘नौ सेर’ दूध
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
Delhi….हवा के झोंको संग उड़ता, पानी की लहरों संग बहता…. शहर, जिसकी तुलना बाकि शहरों से नहीं की जा सकती… दिल्ली में जो एकबार रहने आया उसे शहर से इश्क ना हो, ऐसा संभव नहीं।
प्रसिद्ध लेखक राजेन्द्र लाल हांडा भी 1939 में दिल्ली आए तो उन्हें शहर से लगाव हो गया। अपनी आत्मकथा ‘दिल्ली में दस वर्ष’ में उन्होंने तत्कालीन दिल्ली के बारे में विस्तार से बताया है। यह वह दौर था जब एक रुपये में नौ सेर दूध मिलता था और द्वितीय विश्व युद्ध ने दस्तक दे दी थी।
राजेन्द्र जी के निजी अनुभव न केवल उस समय के दिल्ली के सामाजिक और आर्थिक ताने-बाने को उजागर करते हैं, बल्कि एक मित्र के अनूठे भाग्य उदय और शहर के सदियों पुराने आकर्षण पर भी प्रकाश डालते हैं।
इस आर्टिकल के जरिए हम आपको दिल्ली के इतिहास के दिलचस्प पहलुओं से रूबरू कराएंगे।
राजेन्द्र लाल हांडा अपनी पुस्तक ‘दिल्ली में दस वर्ष’ में लिखते हैं कि दिल्ली के आस-पास एक पुरानी कहावत प्रचलित है, जिसे उन्होंने बचपन से सुना था: “दिल्ली में 12 बरस रहे तो भी भाड़ ही झोंका।” हांडा जी के अनुसार, सौभाग्य से उन्हें यहाँ रहते अभी दस ही साल हुए थे, और यह कहावत उस समय उन पर लागू नहीं होती थी। हालांकि, वे जानते थे कि देर-सबेर उन पर यह चरितार्थ अवश्य होगी, क्योंकि शायद उन जैसे व्यक्तियों के लिए ही यह गढ़ी गई होगी।
बकौल राजेंद्र, सदियों से दिल्ली राजधानी रही है। यहीं मुगल सम्राट रहे। यहां ही आजकल राष्ट्रपति, प्रधान मंत्री और अन्य उच्च अधिकारी रहते हैं। मुगलों के दिनों में प्रायः सभी जीवट के लोग किस्मत आजमाने दिल्ली ही आया करते थे। इतिहास से इस बात की पुष्टि होती है।

शाह आलम ने नाई को बनाया दरोगा
शाह आलम ने एक हजाम (नाई) को दारोगा बना दिया था। कहते हैं एक दिन बादशाह बहुत सुस्त और चिन्तित से थे। हज्जाम उनके बाल काटने आया। उसने उनके सिर की इतनी अच्छी मालिश की कि उन्होंने प्रसन्न होकर उसे कोतवाल का ओहदा बखुश दिया । इसी प्रकार नानबाई, माली, साधारण सिपाही आदि के भाग्य जागे।
इसीलिये लोग दिल्ली की करामात के कायल हो गये। यह करामात मुगलों के साथ ही समाप्त नहीं हो गई। सम्राट आते-जाते रहे, शासन बनते-बिगड़ते रहे, किन्तु दिल्ली का जादू बराबर बना रहा। आज भी उसी प्रकार बना है।
1939 में दिल्ली पहुंचे राजेंद्र हांडा
अपनी किताब में राजेंद्र हांडा लिखते हैं कि दूसरा विश्व युद्ध छिड़ते ही 1939 में वो दिल्ली पहुंचे। बकौल राजेंद्र…
मेरे दो-चार पुराने मित्र भी उन्हीं दिनों यहाँ आ बसे थे उनमें से एक अध्यापक थे। वे अब भी यहीं विराजमान हैं। कूचा नटवां में किसी प्राइमरी में स्कूल ३० रुपये मासिक पर काम करने लगे थे। वे रहते थे करोलबाग, जो उन दिनों दिल्ली का एक उपनगर था। एक दिन बहुत घबराये हुए मास्टर जी मेरे पास आये और बोले- “भाई मैं तो करनाल वापिस जा रहा हूं। मालिक मकान से रात भर तु मैं मैं होती रही। टूटा फूटा झोपड़ा है उसका भी 3 रु० किराया मांगता है।
आज तक तो सवा दो खुशी से लेता रहा, अब न जाने उसे क्या दिखाई दे गया जो……..!” छुट्टी का दिन था, मैं मास्टर जी के साथ हो लिया। मैंने सोचा, हमारे मित्र भावुक व्यक्ति हैं, कहीं मार-पीट पर नौबत न आ जाये । करोलबाग पहुँचने ही मैंने मालिक मकान से बात की। वह पास वाले घर में रहता था। दोनों मकान उसी के थे।
उसने कहा- “मास्टर जी को मैं यहां नहीं रहने दूंगा। इनके बच्चों ने सब किवाड़ (दरवाजे) तोड़ दिये हैं।” मैंने कहा भाई बच्चे तो शरारती होने ही हैं। तुम्हारे भी ऐसे ही होंगे । तैश में आकर उसने उत्तर दिया- “जी हाँ मेरे भी ऐसे ही सही। पर मकान मेरा है। ऐसी बराबरी करनी है तो यह मकान खरीद क्यों नहीं लेते।
550 रुपये मेरे हवाले करें और फिर मकान इनका है, जो चाहें सो करें।” मैंने चुनौती स्वीकार कर ली और उसी दिन चार मित्रों से रुपया इकट्ठा कर मास्टर जी के हवाले किया। अगले ही दिन उन्होंने रजिस्ट्री करवा ली और पक्के मकान मालिक हो गये।
इस झगड़े के कारण मित्र का भाग्य उदय हो गया। घर तो ईश्वर का नाम था, परन्तु उसमें तीन सौ गज जगह थी। चार साल बाद जमीन का दाम २५ रु० गज हो गया । मास्टर जी सौ गज में आप रहते रहे और २०० गज के दाम खड़े कर लिये। पैसा हाथ लगा तो मास्टरी छोड़ ठेकेदारी की सूझी। इस समय अच्छे खासे धनी हैं। नई दिल्ली में रहते हैं और मोटर बगैर पाँव नहीं रखते । इसी तरह दिल्ली बहुतों को रास आई। जिन्हें नहीं आई वे अब भी भाड़ झोंकते हैं। यह तो विषयांतर हो गया। मेरा असल उद्देश्य तो दिल्ली के सम्बन्ध में यहाँ अपने निजी अनुभव देना है। जब अक्तूबर १६३६ में मेरा दिल्ली आना हुआ, राजधानी उजाड़-सी थी।
रेलवे स्टेशन पर रौनक
रौनक यदि कहीं थी तो रेल के स्टेशन पर ही, क्योंकि सरकारी दफ्तरों की शिमले से उतराई शुरू थी। आठ-दस दिन में एक सम्बन्धी के यहाँ टिका । फिर एक दिन मकान की खोज में निकला। एक मित्र मुझे बाबर रोड पर ले गये।
मार्केट में पहुँचते ही मेरे मित्र ने एक सब्जी बेचने वाले से कुछ पूछा और भारी-मा चावियों का गुच्छा उठा वह आगे-आगे हो लिया। एक दूसरे के बाद उसने हमें चार-पाँच मकान दिखलाये – छोटे पर साफ सुथरे, कोठीनुमा । उनमें से हम ने एक पसन्द कर ही लिया । किराया २४ रुपया महीना तय पाया । बाबर रोड बड़ी खुली और सुन्दर जगह थी। उसके गुणों की चर्चा अब भूतकाल में ही की जा सकती है।
अगले ही दिन मैं अपने मकान में आकर रहने लगा। मैंने नौकर से दूध का प्रबन्ध करने के लिये कहा। मैं बरामदे में बैठा अखबार देख रहा था कि मेरा नौकर एक डेयरी वाले को पकड़ लाया। मैंने कहा भाई हमें तीन सेर दूध हर रोज चाहिए। वह बड़ी अकड़ से बोला…….”साहब दूध तो जितना मर्जी हो लें, पर एक बात साफ हो जानी चाहिए । हम लोग अच्छा दूध बेचते हैं। शिमला डेयरी से लाते हैं। हमारा दूध महंगा पड़ेगा। सस्ता लेना हो तो आप किसी घोसी………
मैंने बात काटते हुए कहा आखिर तुम क्या भाव लगाओगे !”
उत्तर मिला: “हम नौ सेर का लगा लेंगे। जी चाहे आप लें या न लें। कमती बढ़ती नहीं होगा।”
मैंने भाव स्वीकार किया और सेर-सेर की तीन बोतलें ले लीं।
दिल्ली सबसे सस्ता शहर
महंगाई उन दिनों नहीं थी। देश में सामान सस्ते दर पर मिलता था। लेकिन दिल्ली दुनिया से गज भर आगे बढ़ी थी। दूध, घी, फल, सब्जियाँ सभी अन्य शहरों की अपेक्षा यहां कुछ अधिक सस्ती थीं। कारण न जाने क्या था।
राजेंद्र लाल लिखते हैं कि मैंने कई दुकानदारों से पूछा। एक फल वाले ने कहा… दिल्ली में फल की खपत थोड़ी है, इसी लिये सस्ते भाव बेचने पड़ते हैं।” जब परचून वाले से पूछा कि रोहतक का घी रोहतक की अपेक्षा दिल्ली में सस्ता कैसे बिकता है, तो उत्तर मिला: बाबू जी, भाव खपत पर निर्भर है। रोहतक में बिक्री थोड़ी और यहाँ बहुत अधिक है। इसी कारण यहाँ चार पैसे कम में उठा कर भी पड़ता खा जाता है।”
मैंने जो थोड़ा बहुत अध्ययन अर्थ शास्त्र का किया था, ये तर्क सुन कर वह भी घपले में पड़ गया। किस की सच मान और किस की झूठ, कई दिन के विचार के बाद भी में इसका निर्णय न कर सका। हमें हर चीज ही घर के आगे मिल जाती थी। या टेलीफोन पर आर्डर दे कर मंगा लेते थे। यहाँ के लोगों की ईमानदारी और व्यापार वृद्धि से भी में काफी प्रभावित हुआ। नौकरी करने से पहले दिल्ली में आया तो कई बार था,परन्तु कभीदो-चार दिन से अधिक यहाँ ठहरनानहीं हुआ था। यहाँ के बाजारों और गली-कूचों से एकदम अपरिचित था। यहाँ रहते मुझे लगभग छः महीने होने को आये थे। एक दिन किसी कार्यवंश मुझे बहुत घूमना पड़ा। उस दिन मैंने कई नये बाज़ार देखे । घर आकर मुझे अपने मित्र श्री बुखारी के एक लेख की याद आ गई।
गणित पर जगहों के नाम
लेख में बुखारी महोदय ने लाहौर के विचित्र भूगोल का विवेचन किया है। मैंने सोचा,यदि बुखारी साहब दिल्ली पर कुछ लिखते तो उनके लेख का शीर्षक कुछ और ही होता । भूगोल और इतिहास तो दिल्ली के चारों ओर बिखरा पड़ा है। उस में कोई विशेषता नहीं।
बुखारी की प्रतिभा किसी और ही दिशा में जाती। उन के लेख का शीर्षक होता “दिल्ली का गणित’
गणित से बढ़ कर दिल्ली को और कुछ प्रिय नहीं। इस बात के मेरे पास ठोस प्रमाण मौजूद हैं। यदि आप अभी सदर बाजार जायें,तो थोड़ी दूर चल कर ही आप एक खुले चौक में पहुंच जाएंगे जिस का नाम है बारह टूटी । वहां से सीधे यदि पहाड़ गंज चले जाएंगे तो छः टूटी जा पहुंचेगे। वहाँ से आप नई दिल्ली में प्रवेश ही नहीं कर सकते जब तक पंचकुई के दर्शन न करें। और नई दिल्ली पहुँच कर आप बारह खम्बा तो घूमने निकलियेगा ही। गणित के इतने स्मारक आप को और कहीं आसानी से नहीं मिलेंगे। इसी तरह तीन मूर्ति मार्ग भी देखा जा सकता है।
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