रोलैंड मैकडोनाल्ड ने सबसे पहले रेल नेटवर्क विकसित करने का दिया सुझाव
दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।
सबसे पहले आया विचार
रोलैंड मैकडोनाल्ड ने समूचे भारत के लिए तत्काल एक रेल नेटवर्क विकसित करने की आवष्यकता को महसूस करते हुए सन् 1841 में सबसे पहले कलकत्ता-दिल्ली रेलवे लाइन के निर्माण का प्रस्ताव रखा था लेकिन उसे इसके बदले ईस्ट इंडियन रेलवे कंपनी से फटकार मिली। सन् 1848 में, भारत के गवर्नर जनरल बने लॉर्ड डलहौजी ने कलकत्ता से दिल्ली तक रेलवे लाइन की सिफारिश की क्योंकि काबुल और नेपाल से आसन्न सैन्य खतरा था। उसका मानना था कि यह प्रस्तावित रेलवे लाइन सरकार की सत्ता के केंद्र, उस समय कलकत्ता ब्रिटिश भारत की राजधानी थी, से दूरदराज के क्षेत्रों तक संचार का एक सतत संपर्क प्रदान करेंगी।
दिल्ली का रेलवे स्टेशन और 1857 की क्रांति
19 वीं सदी में, ब्रिटिश भारत के बढ़ते रेल नेटवर्क और दिल्ली में ब्रिटिश राज की बढ़ती रूचि के कारण (सन् 1803 के बाद दिल्ली पर निर्णायक रूप से अंग्रेज का आधिपत्य हो गया था) का दिल्ली का रेलवे स्टेशन एक अनिवार्य आवश्यकता बन गया था। वैसे पुरानी दिल्ली स्टेशन के लिए स्थान के चयन में सन् 1857 में आजादी की पहली लड़ाई के कारण क्रांतिकारी भावनाओं का अधिक था क्योंकि रेलवे लाइनों और स्टेशन को उनके वर्तमान स्वरूप में बनाने का अर्थ शहर के एक बड़े हिस्से की सफाई था ।
दिल्ली में रेलगाड़ी की पहली सीटी
रेलवे लाइनों और स्टेशन ने भी पुरानी दिल्ली को दो भागों में विभाजित कर दिया और अंग्रेजों ने शहर के उत्तरी भाग में अपना ध्यान केंद्रित करना शुरू कर दिया। आंशिक रूप से इसका एक कारण यह है कि मूल सिविल लाइंस और छावनी, शाहजहांनाबाद के उत्तर में है। सन् 1857 में आजादी की पहली लड़ाई के बाद अंग्रेजों ने दिल्ली पर कब्जा करने के बाद शाहजहांनाबाद के बड़े हिस्सों, जिसमें शाहजहां की बेटी जहांआरा के बनवाया बाग भी शामिल था, को नष्ट करके रेलवे लाइन बना दी। इन बागों के उत्तर में बनी रिहायशी इलाकों को पूरी तरह हटाकर रेलवे स्टेशन को बनाया गया। कश्मीरी गेट और चांदनी चौक के बीच में एक किले की शक्ल में पुरानी दिल्ली का रेलवे स्टेशन बनाया गया और ये दो इलाके एक ऊंचे पैदल यात्री पुल से जुड़े हुए हैं जो कि कोडिया पुल कहलाता है।
दिल्ली दरबार रेलवे और नई लाइनों का विकास
सन् 1857 की पहली आजादी की लड़ाई के बाद अंग्रेज सरकार ने सुझाव दिया कि रेलवे को दिल्ली की बजाय मेरठ से होकर गुजरना चाहिए। इससे ब्रिटेन और दिल्ली में निराशा हुई। जबकि मूल निर्णय दिल्ली के सैन्य और राजनीतिक महत्व के साथ पंजाब के लिए मुख्य रेल लाइन को देखते हुए लिया गया था। ईस्ट इंडिया रेलवे कंपनी के निदेशकों ने इसका विरोध किया लेकिन गवर्नर जनरल ने अपनी बात को रेखांकित करते हुए कहा कि यह एक व्यावसायिक उपयोग वाली रेलवे लाइन से पूरी तरह अलग शाही और राजनीतिक रूप से महत्व वाली रेलवे लाइन है। सन् 1857 में दिल्ली एक सीमांत शहर था जबकि अब पांच प्रमुख रेलवे लाइनों का जंक्शन होने के कारण इसका महत्व था। इतना ही नहीं, दिल्ली अनेक उद्योगों का केंद्र होने के साथ एक व्यावसायिक पुनर्निर्यात का स्थान भी बन चुकी थी।
सन् 1863 में, दिल्ली में शहर को रेलवे लाइन से वंचित न करने के अनुरोध को लेकर एक बैठक बुलाई गई। भारत सचिव को दिल्ली के नागरिकों की ओर से प्रस्तुत एक याचिका में कहा गया कि रेलवे लाइन के रास्ते में परिवर्तन से शहर का व्यापार तो प्रभावित होगा ही साथ ही, यह रेल कंपनियों में अंश (शेयर) खरीदने वालों के साथ भी अन्याय होगा। दिल्ली के नागरिकों और पंजाब रेलवे कंपनी (ईस्ट इंडिया रेलवे के साथ मेरठ, जो अधिक दूर था, की बजाय दिल्ली में एक जंक्शन चाहती थी) के दबाव के कारण चार्ल्स वुड ने वाइसराय के फैसले को बदल दिया। सन् 1867 में नए साल की आधी रात को दिल्ली में रेल की सीटी सुनाई दी और पहली बार रेल दिल्ली में आई। यह लोहे की सड़क (रोड ऑफ आयरन), जो कि गालिब के लिए एक जिज्ञासा का कारण थी, शहर का जीवन बदलने वाली थी।
अभी भी इमारत की मूल संरचना अच्छी हालत में है और नई सुविधाओं को बढ़ाने के लिए बड़े हिस्से को जोड़ा गया या संशोधित किया गया। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन की वर्तमान इमारत सन् 1900 में बनी थी और इसे सन् 1903 में जनता के लिए खोला गया था। केवल दो प्लेटफार्मों और एक हजार रेलयात्रियों के साथ शुरू दिल्ली के सफर का यह आलम है कि अब प्रतिदिन दिल्ली से औसतन लगभग 3.57 लाख रेल यात्री, देश की विभिन्न दिशाओं की ओर यात्रा करते हैं।
समूचे देश से दिल्ली में लोगों के दरबार में शामिल होने को देखते हुए अंग्रेजों ने यातायात के सुचारू आवागमन के लिए अतिरिक्त रेल सुविधाएं बढ़ाने और नई रेल लाइनें बिछाने का फैसला किया। सरकार ने इसके लिए दिल्ली दरबार रेलवे नामक विशेष संगठन का गठन किया। मार्च से अप्रैल, 1911 के बीच सभी संभावित यातायात समस्याओं के निदान के लिए छह बैठकें हुईं। इन बैठकों में दिल्ली में विभिन्न दिशाओं से आने वाली रेलगाडि़यों के लिए 11 प्लेटफार्मों वाला एक मुख्य रेलवे स्टेशन, आजादपुर जंक्शन तक दिल्ली दरबार क्षेत्र में दो अतिरिक्त डबल रेल लाइनें, बंबई से दिल्ली बारास्ता आगरा एक नई लाइन बिछाने के महत्वपूर्ण फैसले किए गए।
कलकत्ता से दिल्ली सैनिक और नागरिक रसद का साजो सामान पहुंचाने के लिए प्रतिदिन एक मालगाड़ी चलाई गई जो कि दोपहर साढ़े तीन बजे हावड़ा से चलकर अगले दिन दिल्ली के किंगस्वे स्टेशन पर सुबह दस बजे पहुचती थी। इस तरह, मालगाड़ी करीब 42 घंटे में 900 मील की दूरी तय करती थी । नंवबर, 1911 में ‘मोटर स्पेशल‘ नामक पांच विशेष रेलगाडि़यां हावड़ा रेलवे स्टेशन और दिल्ली रेलवे स्टेशन के बीच में चलाई गई। इसी तरह, देश भर से 80,000 सैनिकों को दिल्ली लाने के लिए विशेष सैनिक रेलगाडि़यां चलाई गई । ये रेलगाडि़यां मुख्य रूप से उत्तर पश्चिमी रेल के टर्मिनल पर खाली हुई । इस अवसर पर पूर्वी भारत रेलवे ने अपने स्टेशनों पर आने वाली 15 सैनिक रेलगाडि़यां चलाई और 19 सैनिक रेलगाडि़यों में सैनिकों को दिल्ली दरबार की समाप्ति के बाद वापिस भेजा ।
ट्राम प्रणाली का उद्भव और यात्रा का विस्तार
इसी तरह, दिल्ली में ट्राम प्रणाली की शुरूआत 6 मार्च 1908 को हुई और सन् 1921 तक 15 किलोमीटर का जाल शहर में बिछ चुका था और 24 ट्राम चल रही थी। दिल्ली में ट्राम सन् 1963 में चलनी बंद हुई। प्रसिद् सरोद वादक अमजद अली खान के शब्दों में, “सन् 1957 में जब मैं पहली बार अपने पिता और गुरु हाफिज अली खान के साथ दिल्ली रहने के लिए आया था तो आज की तुलना में जनसंख्या कमतर थी । उन दिनों पुरानी दिल्ली में ट्राम चला करती थी और प्रमुख पड़ावों में चांदनी चौक, घन्टा घर और जामा मस्जिद हुआ करते थे।” सन् 1903 में शहर के दिल्ली दरबार के लिए हो रही साफ सफाई के दौरान बिजली आई और उसके साथ ही दिल्ली में बिजली से चलने वाली ट्राम का आगमन हुआ। सन् 1907 तक ट्राम ने अजमेरी गेट, पहाड़ गंज, सदर और सब्जी मंडी को चांदनी चौक और जामा मस्जिद से जोड़ दिया। शहर में ट्राम का फैलाव करीब 14 मील (24 किलोमीटर) तक हो गया और इससे तीस हजारी और सब्जी मंडी क्षेत्र वाया चांदनी चौक, जामा मस्जिद, चावड़ी, लाल कुआं, कटरा बादियान और फतेहपुरी से जुड़ गया।