दारुल बका

यह मदरसा बल्कि कॉलेज शाहजहां ने बनवाया था और जामा मस्जिद के उत्तर में दारुश्शिफ़ा या दारुलशफा के बराबर में था। इसके सदर मुदर्रिस मौलाना अबू यूसुफ बियाबानी थे जो फिका (न्यायशास्त्र) और हदीस के विख्यात विद्वान थे। इसमें विद्यार्थियों की भारी संख्या थी। जब समय बीतने के साथ-साथ इसकी हालत खस्ता हो गई और यह जगह-जगह से टूट गया तो मुफ़्ती सद्रुद्दीन ‘आजुर्दा’ देहलवी ने बड़ा पैसा लगाकर इसे दुबारा बनवाया, मगर 1857 ई. की लड़ाई के बाद अंग्रेजों ने इसे ढहवा दिया।

मदरसा-ए-दरगार-ए-रसूलनुमा

दरगाह-ए-रसूलनुमा में एक मदरसा हजरत सैयद हसन रसूलनुमा ने कायम किया था। आप एक कामिल वली और साहब-ए-करामात बुजुर्ग थे और उसी कारण से ‘रसूलनुमा’ मशहूर हुए। यह मदरसा भी अपने समय में ज्ञानार्जन के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध था। वे आलमगीर के काल में दिल्ली आए थे। 1103 ई. में फ़ौत हुए और अपने मदरसे के सहन में दफ़्न हुए। उनकी मृत्यु के बाद मदरसा भी ख़ाली हो गया।

मदरसा-ए-शाह अबूउरंजा

शाह अबूउर्रजा की सारी जिन्दगी पढ़ने-पढ़ाने में गुजरी। शुरू-शुरू में उन्होंने अपने मदरसे में विद्यार्थियों को सभी प्रकार के ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा दी लेकिन आखिरी उम्र में वे कुरान और हदीस की ओर ऐसे प्रवृत्त हुए कि उनके सिवाय और कोई विषय नहीं पढ़ाया। आप साहब-ए-करामात थे और हर बड़े-छोटे के दिल में उनके लिए बहुत ज़्यादा इज्जत थी। आपका निधन 1102 ई. में हुआ और आपकी क़ब्र दरगाह बस्ती निजामुद्दीन औलिया में है। अपने पीछे विद्यार्थियों की एक भारी संख्या छोड़ गए जिनमें से कुछ विद्वता की दृष्टि से खुद भी उच्च कोटि के विद्वान हुए।

मदरसा-ए-रहीमिया

मौलाना शाह अब्दुर्रहीम साहब ने आलमगीर के काल में यह क़ायम किया था। उसमें भी मजहबी तालीम ही दी जाती थी। इस मदरसे की इतनी ख्याति हुई कि दूर-दराज के इलाक़ों से विद्यार्थी हदीस के अध्ययन के लिए आने लगे। यह मदरसा मेहदियों में कायम हुआ था और अंत तक वहीं रहा। शाह अब्दुर्रहीम के देहांत के बाद उनके सुपुत्र शाह वलीउल्लाह ने मदरसा-ए-रहीमिया में पढ़ाना शुरू कर दिया। मदरसे की ख्याति और भी ज़्यादा हो गई और मुहम्मद शाह रंगीले के समय तक बनी रही। मुहम्मद शाह ने कलाँ महल के पास एक आलीशान मकान बनवाया और उसमें एक मदरसा कायम कर दिया। इस मदरसे के क़ायम होने के बाद मदरसा-ए-रहीमिया ख़त्म हो गया।

मदरसा-ए-अकबराबादी

यह मदरसा अकबराबादी मस्जिद में था जो फ़ैज बाज़ार के पूर्व में थी और लाल पत्थर की बनी हुई थी। मस्जिद में इबादत के अलावा अध्ययन-अध्यापन का काम भी होता था और उस पर एक पत्थर लिखा हुआ था, तलबा इल्म रसानंद’ इस मदरसे दूर-दराज से मजहबी तालीम के लिए विद्यार्थी आते थे। 1857 ई. की पहली आजादी की लड़ाई के बाद अकबराबादी मस्जिद को भी बगायत का एक समझकर अंग्रेज़ों ने नष्ट कर दिया था।

मदरसा-ए-रौशनुद्दौला

यह मदरसा चांदनी चौक में कोतवाली के क़रीब (जिसे अब सिक्खों को सौंप दिया गया है) सुनहरी मस्जिद में था। सुनहरी मस्जिद को उस समय रौशनुद्दौला मस्जिद कहा जाता था। कहा जाता है कि नादिरशाह ने दिल्ली के क़त्लेआम का हुक्म इसी मस्जिद में बैठकर दिया था। इस मदरसे में विद्यार्थी दूर-दूर से आकर हदीस की तालीम लेते थे।

मदरसा-ए-शरफुद्दौला

यह मस्जिद शरफुद्दौला में था। मस्जिद और मदरसा नवाब शरफुद्दौला ने मुहम्मद शाह के काल में बनवाया था। दरीबा कलां में यह मस्जिद थी जिसमें काफ़ी अर्से तक विद्यार्थियों को दीनी तालीम दी जाती रही मस्जिद के अग्रभाग में एक पत्थर लगा था जिसमें मदरसा और मस्जिद दोनों का जिक्र है।

मदरसा-ए-मोहतसिब

इसी नाम की मस्जिद में था जो फाटक हवश खां में कूचा मौलवी हाशिम में मुहम्मद शाह के जमाने में बनी थी। इस मस्जिद के संस्थापक दिल्ली के मोहतसिब अबू सईद थे। मस्जिद भी लंबी-चौड़ी थी और पूर्व की ओर विद्यार्थियों के लिए कमरे और मदरसा था। मदरसे में इल्म-ए-शरह (व्याख्याशास्त्र) और तफ़सीर (भाष्य) की बहुमूल्य पुस्तकें पढ़ाई जाती थीं विद्यार्थियों को खाना ख्वाजा मुहम्मद आकिल के लंगर से मुफ़्त मिलता था जो इस मदरसे में तालीम भी देते थे।

मदरसा-ए-शाह गुलाम अली

शाह गुलाम अली खां जिनके वालिद पंजाब से दिल्ली आकर बसे थे, खानकाह-ए-मजररिया में रहते और एक बाकमाल बुजुर्ग थे। आप तफसीर (माध्य) और हदीस की शिक्षा देते थे और आपको सुनने के लिए खानकाह में एक भारी जनसमूह इकट्ठा हो जाता था और श्रोताओं पर उनके वाज़ (धर्मोपदेश) में एक अजीब कैफियत छा जाती थी। आपके निधन के बाद मदरसे में शिक्षा का काम शाह अबू सईद साहब और उनके सुपुत्र शाह अहमद सईद ने जारी रखा और उन दोनों की ज़िन्दगी तक यह मदरसा हदीस की तालीम का एक बड़ा केन्द्र रहा।

मदरसा-ए-नवाब कुतबुद्दीन

मस्जिद नवाज कुतबुद्दीन, जिसमें यह मदरसा स्थित था, बुलबुलीखाना, भोजला पहाड़ी पर 1725 ई. में मुहम्मद शाह के दौर में बनी थी। मदरसे का मकान अब नेस्तोनाबूद हो गया है। मगर अनुमान है कि इस मदरसे में भी एक सदी तक हदीस और तफ़सीर की शिक्षा दी जाती रही।

मदरसा-ए-मीर- जुम्ला

यह मदरसा लाल कुंए पर था और आलमगीर के ज़माने में मीर जुम्ला ने बनवाया था। इस मदरसे का अब कोई नामो-निशां बाक़ी नहीं है। मगर मदरसा-ए-मीर जुम्ला के नाम से एक गली अब तक मौजूद है।

मदरसा गाजीउद्दीन खां

इस मदरसे की इमारत 1710 ई. से पहले आलमगीर के पुत्र शाह आलम के शासन काल में पूरी बन गई थी। इसे गाजीउद्दीन खां फिरोजजंग ने बनवाया था। शुरू में इसमें सिर्फ 9 विद्यार्थी पढ़ते थे। यही मदरसा आगे चलकर दिल्ली कॉलेज बना, कई बार उजड़ा और बसा। दिल्ली के मुसलमानों का शैक्षिक और सामाजिक इतिहास इस स्कूल से बहुत हद तक जुड़ा रहा।

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