दिल्ली के ऐतिहासिक अखाड़ों में हर शुक्रवार होता था दंगल
दिल्ली के ऐतिहासिक अखाड़ों के बारे में ढाई सौ साल पहले सालारजंग प्रथम ने अपनी फारसी पुस्तक ‘मुरक्का-ए-दिल्ली’ में महाबत खां की रेती (जहां आजकल दिल्ली विकास प्राधिकरण, आयकर और राजस्व विभाग के कार्यालय है) के अखाड़े का आंखों देखा वर्णन इस प्रकार किया है- “यह एक बहुत बड़ा मैदान है। यहां कुश्ती के शौकीन नौजवान, देश भर के नामवर पहलवान और दिल्ली के हजारों बाशिन्दे इकट्ठे होते हैं। ऐसे-ऐसे लड़ाकू और हाथियों की तरह पहलवान कुश्ती लड़ते हैं कि देखने वाले हैरान रह जाते हैं। कुश्तियां ख़त्म होने पर लोगों को मिठाइयां खिलाई जाती हैं।
प्रत्येक शुक्रवार दंगल
दिल्ली में यह आम रिवाज था कि हर शुक्रवार को दंगल किए जाते। उनका एलान शहर भर में ढोल पीट-पीटकर किया जाता और अखाड़ों का और पहलवानों का नाम लिया जाता। जो पहलवान इन दंगलों में भाग लेते वे स्थानीय अखाड़ों के होते थे। हाल ही के मशहूर अखाड़े थे चिरंजी पहलवान का अखाड़ा, गुरु मुनि का अखाड़ा, गुरु सोहन लाल का अखाड़ा, हनुमान का अखाड़ा, शैखूवाले का अखाड़ा, भूरेवाले का अखाड़ा, गोंडीशाह वाले का अखाड़ा और मीरां शाह वाले का अखाड़ा। मगर इन सबसे पहले का महाबत खां की रेती का अखाड़ा शुक्र के दिन होने वाले दंगलों के लिए कहीं अधिक लोकप्रिय था। बाद में महाबत खां रेती के बजाय ये दंगल मोतिया खान में होने लगे थे।
उन दिनों पंजाब के पहलवान भी अपना-अपना कमाल दिखाने के लिए अक्सर दिल्ली आते रहते थे। वे बड़े-बड़े दंगलों में शरीक होते थे। रुस्तम-ए-हिन्द गामा, गूंगा पहलवान, इमाम बख़्श, कीकर सिंह ऐसे कुछ नाम हैं जो कुश्ती की दुनिया में दूर-दूर तक मशहूर थे और लोग उनकी कुश्ती देखने के लिए सैकड़ों मील का सफ़र तय करके आते थे।
गामा पटियाला की रियासत का दरबारी पहलवान था। कहा जाता है कि 1920 ई. में वे अपने भाई इमाम बख़्श के साथ विलायत गया और वहां उसने उधर के मशहूर पहलवानों के साथ कुश्ती लड़ी। क्योंकि दिल्ली वाले गामा को ज़्यादा नहीं जानते थे इसलिए उन्होंने गामा की उन चोटी के पहलवानों में गिनती नहीं की जिनकी श्रेणी निश्चित थी। लेकिन जब गामा ने बीस ऐसे नामी पहलवानों को सिर्फ़ एक घंटे में पछाड़ दिया तो दुनिया दंग रह गई और उन कुश्तियों का आयोजन करने वालों ने भी गामा का लोहा मान लिया।
पश्चिम में जिबिस्को सबसे मशहूर पहलवान था गामा ने उसे ललकारा और पराजित किया। एक साल बाद जिबिस्को गामा से जवाबी कुश्ती करने के लिए हिन्दुस्तान आया। उस समय बहुत से दर्शक दूर- पास से उस कुश्ती को देखने के लिए दंगल के स्थल की ओर रवाना हो गए। हजारों लोग पंक्ति में खड़े टिकट खरीद रहे थे। लेकिन पूरी भीड़ अभी दंगल में पहुंच नहीं पाई थी कि ख़बर मिली कि गामा ने जिविस्को को सिर्फ़ 31 सेकंड में चित्त कर दिया। उसके बाद गामा को ‘रुस्तम-ए-ज़मां’ मान लिया गया।
दिल्ली के दंगलों और अखाड़ों के दृश्य और पट्टों की आपस की बातचीत और खलीफ़ा और गुरु की हिदायतों की जितनी भी तसवीरकशी की जाए कम है। हिन्दुओं के एक मुहल्ले में अखाड़े को भी देखते चलते हैं। दो नौजवान अखाड़े की मिट्टी जिस्म पर मले, लंगोट पहने गुत्थम-गुत्था होने से पहले गुरुजी का आशीर्वाद ले रहे हैं। फिर अखाड़े में उतरकर आमने-सामने खड़े होकर हाथ मिला रहे हैं। अब सिर्फ़ ज़ोर कर रहे हैं यानी यह उसे रेलता हुआ ले जा रहा है और वह इसे पेलता हुआ ले आ रहा है। जब तक सांस न फूल जाती यही रेल-पेल जारी रहती। दम लेने के बाद पकड़ होती।
दोनों ने दाहिने हाथ से अपनी-अपनी जांघ पर थपकी दी और गुथ गए। एक दूसरे को चित करने की कोशिश कर रहे हैं। गुरुजी ऊंचे से थड़े पर बैठे-बैठे दांव बताते रहते। किसी से कहते, “सांटियां निकाल ।” दूसरे से कहते, “अरे मिट्टी के माधो, पड़े का पड़ा रह गया, गधा लोट लगा” ले लीजिए आन-की-आन में वह नीचे से निकल आया और दोनों फिर आमने-सामने खड़े हो गए। गुरुजी की आंखें सब पठ्ठों पर लगी रहतीं। एक से कहते, “धोबी पाट पर खींच ले।” दांव अधूरा रह जाता तो कहते, “कैंची डाल।” बस फिर क्या था, एक ने दूसरे को बेबस कर दिया। लेकिन गुरुजी ने अब दूसरे को दांव का तोड़ बताया, “अबे ताले को कुहनी की कुंजी से खोल और कला-जंग लगा।” कुश्ती और पहलवानी ताकत का नाम नहीं, फुर्ती चाहिए फुर्ती।”
पहले कई अखाड़ों में कुश्ती के अलावा तरह-तरह के करतब सिखाए जाते थे। मसलन फिकैती यानी लाठी घुमाना, पट्टा, बांक, बन्नौट (रूमाल के कोने में तो का सिक्का बांधकर ऐसे-ऐसे घुमाना और दांव-पेच करना कि प्रतिस्पधी के हाथ में तलवार, लाठी या कोई और हथियार भी हो तो कुछ न कर सके) बर्छा और जल-बांक आदि । इन कलाओं को ज़्यादातर हिन्दू अखाड़ों में सिखाया जाता था। उस समय के इन करतबों को सिखाने वाले (कुश्ती के अलावा) मशहूर दल थे। परसराम दल, भीम दल, राम दल, भीष्म दल, कृष्ण दल और हनुमान दल। इनमें से कुछ दल अभी तक मौजूद है।