दिल्ली की बावलियों का इतिहास

हजरत निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह के अहाते के उत्तरी दरवाजे पर एक और बड़ी बावली है, जिसे पीर-मुरशिद के अनुयायी बहुत पवित्र मानते हैं। हज़रत निजामुद्दीन औलिया को दिल्लीवाले, जिनमें हिन्दू और मुसलमान दोनों शामिल हैं, प्रेम और समादर से ‘महबूब-ए-इलाही’ और ‘सुलतानजी’ कहकर याद करते हैं। कहते है कि यह बावली जिस समय बनाई जा रही थी उसी समय गयासुद्दीन तुगलक अपना किला बनवा रहा था।

महबूब-ए-इलाही अपने पड़ोसियों को ताज़ा और साफ़-शफ़्फ़ाफ़ पानी मुहैया कराते थे। बादशाह ने इस ख़याल से कि किले पर काम करने वाले मज़दूरों में से ही कुछ बावली पर काम करना शुरू न कर दें, हुक्म दे दिया था कि कोई मजदूर दिन के वक़्त निज़ामुद्दीन औलिया की दरगाह की तरफ नहीं जाएगा। इस हुक्म की वजह से मज़दूर उनके लिए रात को काम करते रहे। इसके लिए स्थल पर तेल की कुप्पियाँ और चिराग़ जला दिए जाते थे। जब बादशाह को इसका पता लगा तो उसने दरगाह और बावली के लिए तेल की बिक्री पर पाबंदी लगा दी। फिर एक चमत्कार हुआ। काम तो रोशनी न होने के कारण रुक ही गया था, मगर महबूब-ए-इलाही ने फ़रमाया कि बावली के पानी को तेल की तरह इस्तेमाल किया जाए और काम शुरू कर दिया जाए। इस बावली के पानी की तेल की जगह कुप्पियों और चिरागों में इस्तेमाल किया गया और उसने तेल का काम दिया।

इस बावली के निर्माण का काम 1921 ई. में पूरा हो गया था और सुलतानजी ने अपने कर-कमलों से उसे शुभ बना दिया। यह हौज 190 फुट लंबा और 120 फुट चौड़ा है। दक्षिण, पूर्व और पश्चिम में ऊँचे पत्थरों और कंकरीट की दीवार है और उत्तर की दिशा में सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। हीज़ की दीवारों पर समय-समय पर इमारतें बनती चली गई। इसके दक्षिणी और पश्चिमी भाग में नीचे मेहराबदार रास्ते और कमरे हैं। ईद-गिर्द की इमारतों की छतों पर से प्रशिक्षित और अनुभवी तैराक सीधे बावली में गोता लगाते हैं और यह ऊँचाई कम-से-कम 60 फुट के क़रीब होती है।

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