एन राजम् जीवनी Biography in Hindi – Dr. N Rajam

दी यंगिस्तान, नई दिल्ली।

Biography of N Rajam वॉयलिन मुख्यत: पश्चिमी वाद्य है, किंतु दक्षिण भारतीय संगीत में इस वाद्य की उपादेयता अधिक है या यों कहें कि कर्नाटकी संगीत ने इस वाद्य को एक प्रमुख वाद्य के रूप में अंगीकार किया है। उत्तर भारतीय संगीत में वॉयलिन वाद्य को प्रतिष्ठित एवं लोकप्रिय करने में जिन प्रमुख संगीतज्ञों का अमूल्य योगदान रहा, उसी कड़ी में डॉ. श्रीमती एन. राजम् का नाम आदरपूर्वक लिया जा सकता है।

एन. राजम् ने इस वाद्य को गायिकी अंग में ढाला और उनके वादन में जितनी मिठास एवं करुणा की झलक मिलती है, वह अपने में एक अभिनव प्रयोग है। उनके वादन में चमत्कार, लटके-झटके, पांडित्य प्रदर्शन, श्रोताओं को प्रभावित करने के लोकप्रिय तरीके नहीं हैं; अपितु उनके स्थान पर तन्मयता, सरलता एवं कठोर साधना आदि का स्वरूप झलकता है।

प्रारंभिक जीवन एवं संगीत यात्रा

एन. राजम् का जन्म सन् १९३८ में एर्णाकुलम, केरल के एक परंपरागत संगीतज्ञ परिवार में हुआ। उनके पिता श्री ए. नारायण अय्यर कर्नाटक संगीत के क्षेत्र में कंठ संगीत एवं वीणा वादन के श्रेष्ठ ज्ञाता होते हुए भी कठोर अभ्यास एवं अनुसंधान द्वारा तत्कालीन वॉयलिन वादन की तकनीक में महत्त्वपूर्ण कार्य कर उसे आगे बढ़ाया। श्री अय्यर की पाँच संतानें थीं, जिसमें सभी को उन्होंने वॉयलिन की ही शिक्षा दी।

हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में दीक्षा

पिता के प्रयास और अपनी लगन के कारण वे मात्र चार वर्ष की उम्र से ही वॉयलिन से मधुर ध्वनि निकालने लगीं। नौ वर्ष की उम्र में वह दक्षतापूर्वक वॉयलिन वादन करने लगीं और रेडियो से कार्यक्रम देने लगीं। सन् १९५० में मद्रास संगीत अकादमी द्वारा आयोजित वाद्य संगीत प्रतियोगिता में उन्हें प्रथम पुरस्कार मिला।

इस प्रतियोगिता में उनसे पंद्रह साल बड़ी उम्र के कलाकार भी शामिल थे। इसी अवधि में इन्हें श्रीमती एम.एस. शुब्बलक्ष्मी के साथ विविध संगीत समारोहों में वॉयलिन की संगत करने का भी अवसर प्राप्त हुआ। पिता से शिक्षा प्राप्त करने के पश्चात् सेंट्रल कॉलेज ऑफ कर्नाटक म्यूजिक के तत्कालीन प्रधानाचार्य श्री मूसिरि सुब्रह्मण्यम अय्यर, जो कर्नाटक संगीत की एक महान विभूति थे, से आगे की संगीत शिक्षा लेने लगीं।

बनारस में भी ली दीक्षा

कर्नाटक संगीत में प्रवीणता के पश्चात् इनके मन में उत्तर भारतीय संगीत सीखने की जिज्ञासा उत्पन्न हुई। इसी कालक्रम में सौभाग्यवश श्री एल. आर. केलकर, जो उत्तरी संगीत के ज्ञाता थे, मद्रास में रहते उनके संपर्क में राजम् आई और उत्तरी संगीत की शिक्षा लेने लगीं। कालांतर में वे बंबई आ गई, जहाँ उत्तरी संगीत के प्रमुख संगीतज्ञों के निकट आने का अवसर प्राप्त हुआ। इन सभी से उत्तरी संगीत की बारीकियों को समझने और सीखने का लाभ उन्होंने उठाया।

कुछ समय बाद व्यक्तिगत छात्रा के रूप में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से इंटरमीडिएट परीक्षा देने के निमित्त वे वाराणसी गईं, जहाँ पं. ओमकार नाथ ठाकुर से उनकी मुलाकात हुई। पंडितजी के सौजन्य, विद्वत्ता और पांडित्य से राजम् अत्यधिक प्रभावित हुई। पहली ही मुलाकात में पं. ओमकार नाथ ठाकुर ने राजम् का वॉयलिन वादन सुना और उन्हें शिष्या के रूप में स्वीकार कर लिया। बंबई में परिवार के साथ रहते राजम् पं. ओमकार नाथजी के समय-समय पर बंबई प्रवास के दौरान संगीत सीखती थीं।

बनारस में नौकरी

सन् १९५९ में काशी हिंदू विश्वविद्यालय से नियुक्ति पत्र आने के पश्चात् बंबई की सारी गृहस्थी समेटकर एन. राजम् वाराणसी आ गई। वहाँ पं. ओमकार नाथ ठाकुर के सान्निध्य में संगीत के क्षेत्र में उनकी प्रगति तीव्र गति से होने लगी। नौकरी करते अपनी योग्यता के विस्तार हेतु सतत प्रयत्नशील रहीं।

पीएचडी की उपाधि

बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से संस्कृत में एम. ए., प्रयाग संगीत समिति, इलाहाबाद से संगीत प्रवीण (एम. म्यूज.) एवं ‘भारतीय शास्त्रीय संगीत की हिंदुस्तानी व कर्नाटक प्रणालियों का तुलनात्मक अध्ययन’ विषय पर बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से पी. एच. डी. की उपाधि प्राप्त की।

सम्मान, पुरस्कार

सन् १९५६ में श्रीमती राजम् बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के कॉलेज ऑफ म्यूजिक ऐंड फाइन आर्ट्स में लेक्चरर पद पर नियुक्त हुई। कालांतर में वहाँ के वाद्य विभाग की अध्यक्षा एवं प्रोफेसर के रूप में उनकी पदोन्नति हुई। श्रीमती एन. राजम् को सुरसिंगार संसद्, बंबई से ‘सुरमणि’ एवं भारत के राष्ट्रपति द्वारा सन् १९८३ में ‘पद्मश्री’ की उपाधि से सम्मानित किया गया।

महादेव मिश्र से ठमुरी सीखी

श्रीमती राजम् के वादन में पं. ओमकार नाथ ठाकुर के गायन की समग्र बारीकियाँ समाहित रहती हैं। जिस प्रकार पंडितजी अपनी गंभीर आवाज में राग की स्थापना करते थे, ठीक उसी प्रकार वॉयलिन पर राग को उठाना, उसकी धीरे-धीरे बढ़त, फिर विलंबित लय में बंदिश के स्थायी एवं अंतरा को बजाना, द्रुत लय में सपाट की तान को प्रस्तुत करना आदि राजम् के वादन की मुख्य विशेषताएं हैं।

वाराणसी में कार्यक्षेत्र के कारण किसी भी संगीतज्ञ को बनारसी ठुमरी के प्रति आकर्षित होना स्वाभाविक ही है। एन. राजम् इससे अछूती नहीं रहीं। अतः उन्होंने वाराणसी के वयोवृद्ध ठुमरी गायक पं. महादेव मिश्र से ठुमरी की भी शिक्षा प्राप्त की। वह वॉयलिन पर बनारसी ठुमरी, कजरी, चैता एवं लोक धुनें भी बड़े ही लालित्य के साथ बजाती हैं।

पेरिस में संगीत प्रस्तुति ने मन मोहा

सन् १९७२ में एन. राजम् ने पं. ओमकार नाथ ठाकुर स्मारक संगीत संस्था की स्थापना की और इसके निमित्त धन एकत्रित करने के लिए अनेक नगरों में संगीत सम्मेलन का आयोजन किया। उन्होंने सांस्कृतिक शिष्ट मंडलों की सदस्या के रूप में यूरोप, अमेरिका, चीन, सोवियत संघ, जापान आदि देशों की यात्रा की पेरिस में भारत महोत्सव में श्रीमती राजम् का कार्यक्रम अत्यंत ही प्रशंसनीय रहा।

अखिल भारतीय कार्यक्रम के अंतर्गत उनका वॉयलिन वादन कई बार हो चुका है। वर्तमान में वाराणसी से सेवानिवृत्त होकर वे महाराष्ट्र में रह रही हैं। पुत्री श्रीमती संगीता शंकर और भतीजी श्रीमती कला रामनाथ उत्तम वॉयलिन वादिका के रूप में ख्याति प्राप्त कर रही हैं।

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