दिल्ली शहर का इतिहास अब तक की खोज के अनुसार तीन हजार वर्षों से अधिक प्राचीन है। इस लंबे काल अवधि में दिल्ली बार-बार उजड़ी और फिर आबाद हुई। कई सल्तनतें कायम हुई और कई नेस्तोनाबूद हुई। कई बड़ी लड़ाईयां दिल्ली की धरती पर लड़ी गईं। दिल्ली के इतिहास की गाथा उतार-चढ़ाव और उथल-पुथल तथा शासन-परिवर्तन का सार है। दिल्ली की एक प्रमुख विशेषता यह रही है कि उजड़ने के बाद यह फिर बसी तो नई शान और एक निखार और खूबसूरती के साथ और उसका सब कुछ मिट गया लेकिन उसकी सभ्यता, उसकी संस्कृति, उसका रख-रखाव और उसकी रीति-नीति नहीं मिटी।

अधिकतर इतिहासकार इस विचार से सहमत हैं कि वर्तमान दिल्ली जहां स्थित है वहां पहले विभिन्न कालों में सात प्राचीन नगर आबाद हो चुके हैं। कई इतिहासकारों का कहना है कि ऐसे शहर सात नहीं पंद्रह थे, यदि आसपास की बस्तियों और किलेबंदियों की उपेक्षा न की जाए। होता यह आया कि शहर बरबाद हुआ तो इमारतों के मलबे और साजो सामान को नए शहर के निर्माण में इस्तेमाल कर लिया गया और इस तरह पुराने शहरों का कुछ भी बाक़ी न बचा और जो बचा उसको वक़्त के थपेड़ों ने नष्ट कर दिया। अब सिर्फ दो शहर हैं और दोनों जिन्दा हैं, एक शहजहानाबाद और दूसरा नई दिल्ली। दोनों शहरों में ऐतिहासिक इमारतें और उनके खंडहर मौजूद हैं। ये दोनों शहर मौजूदा दिल्ली के दो पहलू, दो रुख हैं। एक में सत्रहवीं सदी से शुरू हुई सभ्यता और पूर्वी संस्कृति की पूरी झलक है और दूसरे में आधुनिकता तथा पाश्चात्य सभ्यता के भरपूर तत्त्व हैं। आइए आपको दिल्ली केे अब तक ज्ञात शहरों के बारे में विस्तार से बताते हैं…..

इन्द्रप्रस्थ

कल्कि पुराण के अध्ययन से पता लगता है कि इन्द्रप्रस्थ नामक नगरी के आबाद होने से पहले यहां एक घना जंगल था जो खांडव वन या इन्द्र वन कहलाता था। चंद्रवंशी राजा सुदर्शन ने इस जंगल को साफ करवाकर एक सुंदर शहर बसाया। यह यीशु मसीह के जन्म से लगभग 1450 वर्ष पहले की बात है। इस शहर का नाम खांडवप्रस्थ रखा गया। उन दिनों यमुना दक्षिण-उत्तर दिशा में बहती थी और खांडवप्रस्थ के पूर्व में पड़ती थी। अब यमुना ने अपना रास्ता लगभग डेढ़ मील पूर्व की ओर बदल लिया है। कहा जाता है कि हिन्दुओं का श्मशान घाट, जिसे अब निगमबोध घाट कहा जाता है, पांडवों के काल में भी मौजूद था। खांडवप्रस्थ का क्षेत्रफल पांच गांवों में फैला हुआ था और पांडवों ने अपनी राजधानी इन्द्रप्रस्थ इसी स्थान पर स्थापित की थी। निगमबोध, राजघाट और नीली छतरी का पांडवों ने ही निर्माण कराया था। पांडवों के सबसे बड़े भाई युधिष्ठिर को नगर को सुंदर बनाने और नए भवनों का निर्माण कराने का बहुत शौक था।

इन्द्रप्रस्थ के निर्माण के विवरण और उसके उत्थान तथा पतन के संबंध में प्रामाणिक इतिहास की पुस्तकों में कुछ नहीं मिलता। लेकिन बाद की खुदाइयों से यह अनुमान किया गया है कि हजरत ईसा की पैदाइश से कई हज़ार वर्ष पूर्व भी इसी स्थान पर नागरिक जीवन के लक्षण दिखाई देते थे और शायद यह शहर हुमायूं के मकबरे और फिरोजशाह कोटला के बीच वाले इलाके पर बसा हुआ था। अनेक परवर्ती इतिहासकारों ने, जिनमें अबुल फजल भी शामिल है, इन्द्रप्रस्थ के अस्तित्व को स्वीकार किया है, परंतु इन्द्रप्रस्थ का ऐतिहासिक वर्णन, जिसमें उसके उत्थान तथा पतन का उल्लेख हो, कहीं नहीं मिलता। भगवत पुराण में इन्द्रप्रस्थ का उल्लेख हुआ है और उसमें यह भी लिखा है कि पांडवों की राजधानी के हस्तिनापुर चले जाने के बाद अर्जुन की संतान ने भी इन्द्रप्रस्थ पर राज्य किया था। बहरहाल, ऐसा कोई ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं मिलता जिससे पता चले कि इन्द्रप्रस्थ कोई बड़ा नगर था। हां, विभिन्न अनुमानों और उपलब्ध कथनों से यह जरूर मालूम हो जाता है कि इसका क्षेत्रफल बहुत विस्तृत था।

दिल्ली

हजरत ईसा के काल से पहले के यूनानी यात्रियों जैसे मेगास्थनीज ने अपने यात्रा-विवरणों में इन्द्रप्रस्थ वा दिल्ली का कोई जिक्र नहीं किया। बाद के चीनी यात्री भी जिनमें फाह्यायान और ह्वेन सांग शामिल हैं, इन शहरों के बारे में चुप हैं। हेन सांग तो दिल्ली के आसपास के कई शहरों में घूमा मगर दिल्ली को नजरअंदाज कर गया। अलबत्ता सिकंदर के भूगोलवेत्ता प्टॉलेमी ने इन्द्रप्रस्थ के बिल्कुल पास किसी ‘दाईदला’दिल्ली की ऐतिहासिक पृष्टभूमि का जिक्र किया है। अनुमान है कि शायद यही देहली या दिल्ली हो, जिसे राजा देलू ने, जो कन्नौज का राजा था हजरत ईसा के जन्म से 57 वर्ष पहले कुतुब और तुगलकाबाद के दरम्यान किसी जगह पर बसाया था। यह जगह इन्द्रप्रस्थ के दक्षिण में कोई छह मील की दूरी पर थी। लेकिन उस समय की दाईदला या दिल्ली के खंडहर नहीं मिलते, न ही बाद के किसी इतिहासकार ने राजा देलू का उल्लेख किया, लेकिन यह अनुमान किया जाता है कि वह दिल्ली राजपूतों की विजय के पहले एक छोटा-सा शहर रही होगी। बाद की खुदाई में गयासुद्दीन बलबन के काल में बनी एक बावली में एक पत्थर मिला है जिसमें दिल्ली का नाम ‘दीलिका’ और इसे ‘हरियाणिका’ का हिस्सा बताया गया है। यह पत्थर हमारे राष्ट्रीय संग्रहालय में रखा हुआ है।

पुरानी दिल्ली या किला रायपिथौरा

तोमर राजपूतों ने इस प्रदेश पर 796 ई. में अधिकार कर लिया था और दिल्ली को अपनी राजधानी बना लिया था। इन राजपूतों ने नई-नई इमारतें बनवाई जिनके खंडहर आज तक मौजूद हैं। दसवीं शताब्दी में तोमर राजा सूरजमल ने इस शहर के दो-तीन मील दक्षिण में एक गोल तालाब बनवाया और उसके पास एक मंदिर बनवाया। इसी जगह को आज सूरजकुंड कहते हैं।

1060 ई. में इस शहर में एक नई इमारत बनी जिसे लाल कोट कहते हैं। इस किलानुमा इमारत में अगली सदी में मशहूर कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद का निर्माण किया गया। लाल कोट को तोमर राजा अनंगपाल ने बनवाया था और कुतुबमीनार के पास इसके खंडहर देखे जा सकते हैं। इसी स्थान पर ढले हुए लोहे का वह स्तंभ भी है जो चन्द्रगुप्त के वीरतापूर्ण कार्यों की स्मृति में बनवाया गया था। यह स्तंभ 400 ई. में डलवाया गया था लेकिन उसे इस स्थान पर बहुत बाद में अनंगपाल ने ही प्रतिष्ठापित कराया था।

तोमर राजपूतों के बाद चौहान आए और उनके प्रसिद्ध राजा पिथौरा ने, जिसका उल्लेख लोकगीतों और कहानियों में आता है, लाल कोट की किलेबंदी की और विस्तृत किया और उसका नाम किला रायपिथौरा रखा। यह बड़ा शानदार किला था और इसके महान भग्नावेश अभी तक उस अतीत वैभव का स्मरण कराते हैं। अब इसके इर्द-गिर्द कई आधुनिक आवास कालोनियां बन गई हैं।

जब दिल्ली पर 1192 ई. में तुर्की शासक मुहम्मद शहाबुद्दीन गौरी के सेनापति कुतबुद्दीन ऐबक ने विजय प्राप्त की तो दिल्ली का रंग-रूप और नक्शा तेजी से बदलने लगा। एक नया युग आरंभ हुआ जो सात सदियों तक कायम रहा। उसने दिल्ली को दक्षिण एशिया की इस्लामी सभ्यता व संस्कृति का एक बड़ा केन्द्र बना दिया। कुतबुद्दीन ऐबक को उस समय की दिल्ली हर दृष्टि से अजनबी नज़र आई और उसने इस शहर को अपने दृष्टिकोण के अनुसार बदलना चाहा। उसने पहले मशहूर मस्जिद कुव्वत-ए-इस्लाम बनवाई। 1200 ई. में उसने गज़नी की प्रसिद्ध मीनार-ए-फ़तह के नमूने पर कुतुब मीनार बनवाने का काम शुरू कर दिया। इस मीनार को 1220 ई. में अल्तुतमिश ने पूरा किया जो कुतबुद्दीन का उत्तराधिकारी और उसका दामाद था। कुतुब मीनार आज दिल्ली की सबसे प्रसिद्ध प्राचीन इमारतों में से एक है जिसे संसार भर के पर्यटक आकर देखते हैं।

अल्तुतमिश न केवल एक उच्च कोटि का प्रशासक और सेनापति था, वरन् कला प्रेमी भी था और उसने दिल्ली के सांस्कृतिक जीवन को बड़ा संवारा और आगे बढ़ाया। उसने मदरसा-ए-मुजरती कायम किया और उसकी मशहूर बेटी रजिया सुल्तान ने जो दिल्ली की पहली महिला शासक थी, नासिरिया दर्शगाह (पाठशाला) बनवाई जिसके प्रधान और प्रबंधक अलमिन्हाज बिन सिराज थे। दिल्ली एक शक्तिशाली साम्राज्य का प्रसिद्ध और महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गई और एक नयी वास्तुकला का आविष्कार हुआ जिसमें भारतीय और इस्लामी कला का संगम था। उस काल के सुल्तान बलबन ने भी दिल्ली में कई शानदार इमारतों की वृद्धि की। लेकिन खेद है कि कालचक्र के अत्याचार से वे भी सुरक्षित न रही सकीं।

अल्तुतमिश के समय की एक घटना प्रसिद्ध है। एक बार एक व्यापारी उसके दरबार में 100 दास बेचने के लिए लाया। सुल्तान ने एक के सिवाय सब दास खरीद लिए। बचा हुआ गुलाम एक छोटी उम्र का भोला-भाला और बहुत कुरूप लड़का था। उस लड़के ने बादशाह से पूछा, “आप ये गुलाम किसके लिए खरीद रहे हैं?”

“अपने लिए।” वादशाह ने उत्तर दिया।

“फिर अल्लाह के नाम पर मुझे भी खरीद लीजिए।” उस लड़के ने विनती की। बादशाह ने तरस खाकर उसे भी खरीद लिया और उसे भिश्तियों के साथ लगा दिया जो महल में पानी लाते थे। उस लड़के का बाप किसी समय तुर्की फौज में दस हजार घुड़सवारों का सरदार था मगर फिर बुरे दिनों का शिकार हो गया। वह खूबसूरत न सही लेकिन बहुत बुद्धिमान और होशियार था। वह बढ़ते-बढ़ते मीर-ए-शिकार के पद पर पहुंच गया। उसने और तरक्की की और आखिरकार यही गुलाम लड़का बलवन दिल्ली के राजसिंहासन पर बैठा।

किलोखड़ी और सीरी

बलवन का पौत्र कैकुबाद 1287 ई. में तख्त पर बैठा। वह उस समय केवल अठारह वर्ष का था और राज्य के विस्तार में उसकी कोई रुचि नहीं थी। वह एक विलासी और अकर्मण्य बादशाह था। उसने वर्तमान दिल्ली से पांच मील पूर्व में एक महल बनवाया और उसमें रहने लगा। यह जगह किलोखेड़ी कहलाती थी। धीरे-धीरे इस महल के गिर्द एक नई राजधानी बस गई। 1290 ई. में जलालुद्दीन खिलजी राजगद्दी पर बैठा। उसे शक था कि पुराने शहर के लोग उसे पसंद नहीं करते, इसलिए वह शुरू में किलोखेड़ी में ही ठहरा और महल को नए सिरे से ठीक-ठाक करने और सजाने लगा। उसने वहां आबाद शहर में भी सफाई करानी शुरू कर दी, बहुत-सी इमारतें भी बनवाई जो रिहायशी थीं और एक बड़े क़िले के निर्माण का काम भी शुरू कर दिया। लेकिन ज्योंही उसने स्वयं को सुदृढ़ और मजबूत महसूस किया और प्रजा का विश्वास प्राप्त किया, उसने किलोखेड़ी को छोड़ दिया और पुराने शहर में अपने पूर्वजों की बनाई राजधानी में रहने लगा।

जलालुद्दीन के उत्तराधिकारी अलाउद्दीन खिलजी के काल में 1303 ई. के लगभग मंगोलों ने कई हमले किए। इन हमलों ने बादशाह को बाध्य किया कि वह देश के दूसरे भागों में अपनी सैनिक गतिविधियां छोड़कर दिल्ली वापस आ जाए। 1504 ई. में उसने गांव शाहपुर के नजदीक सीरी के मैदान को चुना और वहां अपना क़िला और राजधानी बनवाना शुरू कर दिया और साथ ही पुराने शहर के सुरक्षा-प्रबंध को भी अधिक सुदृढ़ करना शुरू कर दिया। सीरी जल्द ही एक पूरा आबाद शहर बन गया और उसमें अलाउद्दीन के आदेश से नए-नए बाजार और मकान बन गए। बादशाह का क़िला भी तैयार हो गया। जब तैमूर 1398 ई. में इस स्थान पर आया तो उसने देखा कि सीरी के सात दरवाजे थे-तीन अंदर जहांपनाह की तरफ और चार बाहर की ओर।

अलाउद्दीन खिलजी ने सीरी के बाहर भी अपना निर्माण कार्य जारी रखा। 1311 ई. में उसने शानदार अलाई दरवाजा बनवाया, कुव्वत-उल-इस्लाम का दक्षिणी दरवाजा बनवाया और अधूरे अलाई मीनार पर फिर काम शुरू करवा दिया। उसने सीरी से एक-डेढ़ मील पर हौज़ अलाई या हौज खास भी बनवाया। जब फ़ीरोजशाह तुगलक ने हौज के पास ही एक बड़ा मदरसा बनवा दिया तो उस इलाक़े का महत्त्व और भी बढ़ गया। इन तमाम इमारतों के खंडहर आज भी मौजूद हैं और एक पब्लिक पार्क का हिस्सा बन गए हैं।

अलाउद्दीन और पद्मिनी की कहानी बहुत मशहूर है लेकिन उसके लिए कोई प्रामाणिक ऐतिहासिक संदर्भ नहीं मिलता। सबसे पहले उसका जिक्र मलिक मुहम्मद जायसी ने अपनी सुविख्यात कृति ‘पद्मावत’ में किया, यानी अलाउद्दीन की चित्तौड़- विजय के 295 वर्ष के बाद। अगर आपका चित्तौड़ जाना हो तो आपको वहांं के गाइड वह जगह दिखाएंगे जहां एक दर्पण में महाराजा रतन सिंह की मदद से अलाउद्दीन ने पद्मिनी का चेहरा देखा था। लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि अगर उस कहानी में कोई सच्चाई होती, तो उन कवियों और पर्यटकों ने जिन्होंने अलाउद्दीन के शासनकाल का विस्तार से वर्णन किया है, इसका जिक्र क्यों नहीं किया? इन कवियों और पर्यटकों में बनीं, इब्नबतूता, अमीर खुसरो और ‘तारीख-ए-महम्मदी’ और ‘तारीख-ए-मुबारकशाही’ के लेखक भी शामिल हैं लेकिन इस वास्तविकता से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि मलिक मुहम्मद जायसी के बाद फ़रिश्ता और अन्य पर्यटकों ने भी उसका उल्लेख किया, लेकिन शायद यह मलिक मुहम्मद जायसी से प्रभावित होकर इस कहानी का उल्लेख स्कूल और कॉलेजों में पढ़ाई जाने वाली इतिहास की अनेक पुस्तकों में भी मिलता है।

क़िस्सा यों है कि रानी पद्मिनी सौंदर्य की प्रतिमा थी और उसकी सुंदरता की ख्याति चित्तौड़ से बाहर भी दूर-दूर तक फैल चुकी थी। यौवन काल में वह लंका की एक राजकुमारी थी और चित्तौड़ के राजा रतन सिंह को एक तोते ने उसके अनुपम सौंदर्य और रूप के बारे में बताया था। रतन सिंह बारह वर्ष के प्रयत्न के बाद राजकुमारी को प्राप्त करने में सफल हुआ और उसे अपनी रानी बनाकर चित्तौड़ ले आया। एक साधु जिसने पद्मिनी को शिक्षा दी थी और जो पदमिनी के रूप को देखकर दंग रह गया था, दरबार में हाजिर होकर अलाउद्दीन को पद्मिनी की सुंदरता की सूचना दी और अलाउद्दीन के मन में पदमिनी को प्राप्त करने की अभिलाषा बलवती हो उठी। उसने चित्तौड़ के राणा से कहला भेजा कि पद्मिनी को दिल्ली पहुंचा जाए।

जब रतन सिंह ने इसका घोर विरोध किया तो अलाउद्दीन ने एक बड़ी सेना के साथ चित्तौड़ पर धावा बोल दिया। रतन सिंह ने डटकर सामना किया। आठ वर्ष के घेरे के बाद भी अलाउद्दीन को कोई सफलता नहीं मिली। अलाउद्दीन ने राजा से बातचीत शुरू की और उसे बताया कि अगर उसे सुंदर रानी के चेहरे और शरीर पर एक दृष्टि डालने को मिल जाए तो वह चित्तौड़ का घेरा उठा लेगा और दिल्ली वापस चला जाएगा। राणा इस बात को मान गया और उसने एक बड़े आईने में कमरे के दरवाजे में खड़ी पदमिनी की झलक दिखा दी।

उसके बाद रतन सिंह शिष्टाचारवश अलाउद्दीन को महल के बाहर कुछ दूर तक छोड़ने आया लेकिन अचानक अलाउद्दीन के सैनिक उस पर टूट पड़े और घायल राणा को बंदी बनाकर दिल्ली ले जाया गया। अलाउद्दीन ने संदेशे भेजे कि पद्मिनी दिल्ली आकर सुल्तान के हरम में शामिल हो जाए। बहुत मनाने के बाद वह मान गई और उसका जुलूस जिसमें पर्देदार पालकियों में 1600 दासियां भी थी, दिल्ली की ओर रवाना हो गया। ज्योंहि वह सुल्तान के महल में पहुंची, पालकियों में से 1600 सशक्त सैनिक बाहर कूद पड़े और महल के पहरेदारों और सिपाहियों को मारकर राजा रतन सिंह को छुड़ा लिया और रानी पद्मिनी वापस चित्तौड़ पहुंच गई।

एक ऐसे अवसर पर जब राजा रतनसिंह चित्तौड़ से बाहर गया हुआ या तो भेलना (कुंभल गढ़) के देवपाल ने पद्मिनी पर डोरे डालने की कोशिश की। रतन सिंह ने लौटकर देवपाल से बदला लेने के लिए उस पर चढ़ाई कर दी। देवपाल लड़ाई में मारा गया लेकिन रतन सिंह भी बुरी तरह घायल हो गया और कुछ दिन के बाद मर गया। इस पर रानी पद्मिनी एक और रानी के साथ सती हो गई। उसके कुछ ही दिन बाद सुल्तान अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर हमला बोल दिया और किले पर कब्जा कर लिया।

तुगलकाबाद

गयासुद्दीन तुगलक ने एक और राजधानी बनाई जो तुगलकाबाद का किलाबंद शहर था। उसने मौजूदा दिल्ली से तीन-चार मील पूर्व की ओर एक विस्तृत और ऊंची सतह पर स्थित मैदान का चुनाव किया और 1921 से 1929 ई. के बीच वहां एक शानदार किला बनवाया। इस किले के तेरह दरवाजे थे। उसके नीचे भूमिगत कमरे और दालान थे और एक सुरंग के जरिए यह दिल्ली के पुराने शहर से जुड़ा हुआ था। यद्यपि तुगलकाबाद एक विस्तृत भू-खंड पर स्थित था किन्तु उसमें इतनी गुंजाइश हरगिज़ नहीं थी कि पुराने शहर के सभी लोग वहां रह पाएं।

हज़रत निजामुद्दीन जिनका दिल्ली के सूफ़ी-संतों में बहुत ऊंचा दर्जा था जिन्हें दिल्ली वाले सुल्तानजी कहा करते थे, गयासुद्दीन तुग़लक के ही शासन काल में हुए थे। अमीर खुसरो, जिनका काव्य चिरस्थायी है और जो खुद भी सूफी थे, उनके ही शिष्य थे। उसी समय में बादशाह के साथ-साथ हज़रत निजामुद्दीन की बावली भी बन रही थी जिसे लेकर उनके और बादशाह के बीच झगड़ा हो गया था और उन्होंने उसे बदुआ दी थी। क़िले मे रिहायश शुरू करने के पांच वर्ष बाद ही गयासुद्दीन अपने बेटे मुहम्मदशाह तुगलक के हाथों मारा गया। मुहम्मद तुग़लक ने क़िले और तुगलकाबाद को छोड़कर दिल्ली के पुराने शहर में निवास किया और उसके बाद तुगलकाबाद उजड़ गया।

जहांपनाह

मुहम्मद शाह तुगलक ने 1325 ई. में अपने पिता का मक़बरा और हजरत निज़ामुद्दीन की दरगाह बनवाई। उसी वर्ष उसने एक नए शहर का निर्माण भी शुरू कर दिया जिसका नाम जहांपनाह रखा गया था। उसमें दिल्ली की अब तक की किलेबंदियां पुरानी दिल्ली, तुग़लक़ाबाद और सीरी भी शामिल कर लिए गए। इसका जिक्र सुप्रसिद्ध पर्यटक इब्नबतूता ने किया है जो दिल्ली में आठ वर्ष तक ठहरा था। उसने सुल्तान मुहम्मद तुग़लक़ के शासन का भी वर्णन किया है। उसने सुल्तान को झक्की, सनकी और ज़िद्दी बताया और लिखा है कि कुछ गुमनाम पत्रों से डरकर बादशाह ने अपनी राजधानी दिल्ली से बदलकर दौलताबाद (दकन) कर दी। मुहम्मद तुग़लक़ न सिर्फ़ अपने साज-सामान, सेनाओं और कर्मचारियों को दौलताबाद ले गया बल्कि उसने अपनी रैयत को भी हुक्म दिया कि वे भी उस शहर में जाकर बसें । हज़ारों-लाखों आदमियों का क़ाफ़िला जब असह्य विपत्तियां सहता हुआ दौलताबाद (दकन) पहुंचा और अभी ये लोग वहां बस भी न पाए थे कि मुहम्मद तुगलक ने फिर से दिल्ली को राजधानी बनाने का फैसला कर लिया और लोग तरह-तरह की मुसीबतें उठाकर फिर लौटे। बहुत से वहीं बस गए। इस तरह से दिल्ली एक तरीके से दुबारा बसी और लोगों की जिन्दगी फिर से शुरू हुई ।

मुहम्मद तुगलक ने 1326 ई. में खिड़की मस्जिद के पास एक दुमजिला पुल भी बनवाया था और तुग़लक़ाबाद के दक्षिण में एक छोटा क़िला आदिलाबाद भी बनवाया था। दोनों के खंडहर अभी तक मौजूद हैं।

फीरोजाबाद

तीसरे बादशाह तुगलक ने 1354 ई. में यमुना के दाहिने किनारे पर इन्द्रप्रस्थ से छह मील उत्तर में एक नया शहर बसाया जिसका नाम फ़ीरोज़ाबाद रखा गया। इसमें एक क़िला और तीन महल थे। अब उनकी यादगार फ़ीरोज़शाह कोटला के रूप में है। फीरोज़शाह मस्जिद के खंडहर क़िले के अंदर ही हैं। फीरोजशाह की ऐतिहासिक वस्तुओं और भवन-निर्माण में बड़ी दिलचस्पी थी। वह खुद अम्बाला और मेरठ से दो अशोक स्तंभ लाया था। उनमें एक फीरोजशाह कोटला में स्थापित किया गया और दूसरा पुरानी सब्जी मंडी से परे बाउटे की पहाड़ी पर ये दोनों स्तंभ अभी तक मौजूद हैं जबकि फर्रुखसियर के काल में पहाड़ीवाले स्तंभ को क्षति पहुँची थी।

1373 और 1374 ई. में फ़ीरोज़शाह ने दरगाह रौशन चिराग़ और क़दम शरीफ़ का निर्माण करवाया। 1987 ई. में फ़ीरोज़शाह ने खिड़की और बेगमपुर की मस्जिदें बनवाई। फ़ीरोज़शाह के बाद ही 1398 ई. में तैमूर ने दिल्ली को तहस-नहस किया। पचास हजार से अधिक नागरिकों को लूटा गया और मौत के घाट उतार दिया गया। तत्कालीन बादशाह को भी नहीं बख्शा गया और उसकी बड़ी बेइज्जती की गई। उसके खजानों को लूट लिया गया और दिल्ली-वासियों पर बड़े अत्याचार किए गए। जब दिल्ली में तुग़लकों के बाद सैय्यदों का शासन शुरू हुआ तो पहले बादशाह खिज खाँ ने (1414 से 1421 ई.) तैमूर के नाम पर ही राज्य किया लेकिन उसने और उसके तीन उत्तराधिकारियों ने एक तवाह-बरबाद छोटी-सी दिल्ली पर राज्य किया। जब लोधियों का दौर शुरू हुआ तो दूसरे लोधी बादशाह सिकन्दर ने राजधानी दिल्ली से बदलकर आगरा के निकट एक स्थान को बना लिया लेकिन उसके उत्तराधिकारी सुल्तान इब्राहिम लोधी ने फिर दिल्ली को ही राजधानी बनाया और दिल्ली वापस आ गया। बाबर ने 1526 ई. में इब्राहिम लोधी को पानीपत के मैदान में परास्त करके मुग़ल खानदान के शासन की बुनियाद रखी। नई दिल्ली का लोधी गार्डन और मस्जिद मोठ लोचियों के काल की यादगारें हैं। दीनपनाह और पुराना किला

27 अप्रैल, 1526 ई. को दिल्ली में बाबर के नाम अभिनन्दन पत्र पढ़ा गया। बाबर का 1530 ई. में निधन हो गया, लेकिन दिल्ली में उसने बहुत कम वक्त गुजारा। उसके बेटे हुमायूँ ने एक नया शहर बसाने का फैसला किया जिसका नाम ‘टीनपनाह’ प्रस्तावित किया गया। उसके लिए पुराने शहर इन्द्रप्रस्थ का चुनाव किया गया। 1539 ई. में किले और नए शहर के निर्माण का कार्य शुरू कर दिया गया। किला 1598 ई. में पूरा हो गया। लेकिन 1540 ई. में हुमायूँ शेरशाह सूरी से परास्त: होकर हिन्दुस्तान से बाहर चला गया। पंद्रह वर्ष बाद जब वह विजयी होकर दिल्ली लौटा तो उसने फिर दीनपनाह में रहना शुरू कर दिया और शेर मंडल को अपनी लाइब्रेरी बना लिया। इसी लाइब्रेरी की सीढ़ियों से गिरकर हमायूँ 1557 ई. में मर गया। 1565 ई. में हमीदा बानो ने हुमायूँ के मकबरे का निर्माण आरंभ किया जो दिल्ली में मुगल वास्तुकला का सर्वोत्तम नमूना है।

शेरगढ़ या दिल्ली शेरशाही

शेरशाह सूरी बड़ा योग्य शासक था जिसने वास्तुकला में भी बड़ी ली। उसने दीनपनाह के किले में शेष काम को पूरा किया और अंदर कई और इमारतें भी बनवाई जिनमें मस्जिद और शेर मंडल भी शामिल हैं। उसने शेरगढ़ का भी निर्माण कराया जो उसके शहर दिल्ली शेरशाही का किला था। पुराने किले के नजदीक लाल दरवाजा और काबुली दरवाज़ा, जो शेरगढ़ का उत्तरी दरवाजा था, दिल्ली शेरशाही के पुराने क़िले के बाहर कुछ स्मारक हैं। 1541 ई. में शेरशाह ने सूफ़ी बख्तियार काकी के कुतुब के पास मक़बरा भी बनवाया। उसके बेटे इस्लाम शाह ने लालकिले के पास सलीमगढ़ का किला बनवाया। अकबर और जहाँगीर भी दिल्ली में बहुत कम ठहरे और ज्यादातर आगरा में रहे या फतेहपुर सीकरी और लाहौर में लेकिन अकबर के ज़माने की कुछ इमारतें दिल्ली में हैं जैसे कुतुब के पास अहमद खाँ का मक़बरा और उसकी दूध पिलाने वाली माँ माहमअंगा की बनाई हुई मस्जिद जो पुराने किले के अंदर से सदर दरवाजे के सामने हैं।

शाहजहानाबाद

शाहजहाँ आगरा में 1627 ई. में तख्त पर बैठा। 1699 ई. में उसने दिल्ली को राजधानी बनाने और फीरोजाबाद के पास यमुना के किनारे एक नया शहर बसाने का फ़ैसला किया। 1699 ई. में किले और शहर के निर्माण का काम शुरू हो गया और दस वर्ष में लालकिले और शहर का निर्माण पूरा हुआ। आगरा से तख़्ते-ताऊस को दिल्ली लाया गया। 18 अप्रैल, 1648 ई. को क़िले और शहर का उद्घाटन किया गया। उच्च कोटि की इमारतें बनवाने में जो दिलचस्पी शाहजहाँ ने ली वह और किसी मुग़ल बादशाह ने नहीं ली। इस दृष्टि से शाहजहाँ महानतम मुग़ल सम्राट था। उसने 1650 और 1656 ई. के बीच जामा मस्जिद बनवाई। शाहजहाँ की लड़कियाँ जहाँआरा और रौशनआरा और बेगमों ने भी मस्जिदों, बागों और बाज़ारों को बनवाने में बड़ी दिलचस्पी ली। जहाँआरा बेगम ने बेगम की सराय, वेगम का बाग और खवासपुरा बनवाए और रौशनआरा ने अपने नाम पर सब्जी मंडी के पास रौशनआरा बाग़ बनवाया। फतेहपुरी की मस्जिद शाहजहाँ की एक पत्नी बेगम फतेहपुरी ने बनवाई थी।

शाहजहानाबाद का नया शहर एक धनुष के आकार का था और नदी धनुष के दोनों सिरों को जोड़ती थी। शाहजहाँ ने इस नगर के निर्माण में हिन्दू वास्तुकला के विशेषज्ञों से भी काम लिया और शहर को विशाल मस्जिदों, खूबसूरत बागों और फ़व्वारों से सजा दिया। जामा मस्जिद के आसपास एक अर्धव्यास की आकृति दारुल बक़ा और दारुशिफ़ा की इमारतें थी शाहजहाँ ने अपने नए शहर की चारदीवारी में 1 पुराने शहर के कुछ हिस्से भी शामिल कर लिये थे जैसे बुलबुलीखाना, कलाँ मस्जिद जो बाद में काली मस्जिद कहलाई, बल्लीमारान और कुछ मुहल्ले शहर के एक दरवाजे का नाम शाह तुर्कमान बयाबानी के नाम पर रखा गया जिनका असली नाम शम्सुलजरिफ़ीन था।

यह नया शहर सात मील के दायरे में फैला हुआ था और उसके तीन ओर मोटी और मजबूत दीवार थी। शाहजहानाबाद की असल दीवार 1650 ई. में पत्थर और मिट्टी की बनाई गई थी जिस पर उस जमाने में पचास हजार रुपये की लागत आई थी। मगर यह दीवार बारिशों में ज़्यादा देर न टिकी और फिर सात साल के अर्से में चार लाख रुपए की यह मजबूत दीवार बनाई गई। यह 1664 गज चौड़ी और नौ गज ऊँची थी और इसमें तीस फुट ऊँचे सत्ताईस बुर्ज थे। दीवार के कई स्थलों पर बड़े-बड़े मजबूत दरवाजे बनाए गए ‘आसारउस्सनादीद में तेरह दरवाजों का उल्लेख है जिनमें से दिल्ली गेट, निगमबोध गेट, कश्मीरी गेट, अजमेरी गेट, तुर्कमान गेट शाहजहाँ ने बनवाए थे और वे अभी तक मौजूद हैं, हालांकि वह आलीशान ऐतिहासिक दीवार कई स्थानों पर तोड़ दी गई है। राजपाट गेट, केलाघाट, मोरीगेट, काबुली गेट, पत्थर घाटी गेट और लाहौरी गेट अब नहीं रहे। जीनतुल मस्जिद गेट या घटा मस्जिद गेट भी, (दरियागंज में जो औरंगजेब के काल में बना था, अब नहीं रहा। एक छोटा गेट कलकत्ता दरवाजा मुग़लों के जमाने में अंग्रेज़ों ने बनवाया था मगर उसे एक रेल के पुल के विस्तार के कारण गिरा दिया गया था। रात को ये सब दरवाजे बंद कर दिये जाते थे और हरेक दरवाजे पर सिपाही तैनात होते थे। मई 1857 में मेरठ के सिपाही राजघाट के दरवाजे से क़िले में कैसे दाखिल हुए थे यह गुत्थी आज भी नहीं खुली। ऐसा मालूम होता है कि पहरेदार सिपाहियों से मिल गए थे। उस जगह पर जहां आज पुराना रेल का पुल है, नावों का एक पुल बनाया गया था, जो शाहजहानाबाद को दूसरी ओर के इलाक़ों से जोड़ता था।

फैज बाजार का पहला नाम अजीजुन्निसा (अकबराबादी) बाजार था लेकिन यह नाम जल्दी ही फ्रेज बाजार में बदल गया क्योंकि इसके बीचोंबीच फ्रेज़ नहर बहती थी। इसी सड़क पर अकबराबादी मस्जिद थी जिसे 1857 ई. की विजय के बाद अंग्रेजों ने ढहा दिया था। इसी जगह पर बाद में एडवर्ड पार्क बना जो अब सुभाष पार्क कहलाता है।

उस समय का चांदनी चौक बाजार किले के लाहौरी दरवाजे से शुरू होकर फ़तेहपुरी मस्जिद तक था। इसके बीचोंबीच भी नहर बहती थी और दोनों तरफ़ छायादार पेड़ थे। इस नहर का पानी साफ़ और निर्मल होता था और गर्मियों में इससे चारों तरफ़ ठंडक रहती थी। फ़ैज़ बाज़ार और चाँदनी चौक के इर्द-गिर्द कई मुहल्ले और कटड़े आबाद हो गए। दो बड़े बाजार भी बन गए एक खास बाज़ार जो लाल क़िले के दिल्ली दरवाजे से जामा मस्जिद तक था और दूसरा खानम का बाज़ार जो परेड ग्राउंड पर गुंजान आबादी के लिए खरीदारी का केन्द्र था। 1857 ई. में इन दोनों बाज़ारों के आसपास बनी हवेलियों और इमारतों को अंग्रेज़ों ने पूरी तरह नष्ट कर दिया था।

शाहजहानाबाद के कई मुहल्ले, बाज़ार और इलाक़े पेशे की दृष्टि से बँटे हुए थे, जैसे वेदवाड़ा, दाईबाड़ा, धोबीवाड़ा और मालीवाड़ा। इसी तरह पेशों के अनुसार कटड़े थे। दोराहों और चौराहों पर चौक थे जो शहर के लिए ‘फेफड़ों’ का काम करते थे। इन चौकों में भीड़ रहती थी, बच्चे खेलते थे, औरतें मिलतीं और बातें करती थीं और बुजुर्ग हुक़्क़ा लिए किसी कोने पर बैठकर सुस्ताते और एक-दूसरे से बात करते थे।

शाहजहानाबाद में छत्तीस मुहल्ले थे और हर मुहल्ले में बड़े-बड़े अमीरों की हवेलियाँ थी। उस समय के कुछ मुहल्लों के नाम थे-कलों महल, कूचा रघुनाथ दास, कूचा घासीराम, कूचा उस्ताद हादिम, कूचा उस्तादहीरा, कूचा जलाल बुखारी और कूचा चेलान । जब शाहजहानाबाद का निर्माण हुआ तो उसकी आबादी 60,000 थी मगर औरंगज़ेब के दौर तक पहुँचते-पहुँचते दो लाख तक हो गई। इसके बाद यह आबादी फिर कम होती गई क्योंकि औरंगजेब की मृत्यु के बाद भी उत्तराधिकार के लिए लड़ाइयाँ हुईं और अशांति का दौर आया। फिर मुहम्मदशाह रंगीले के काल में दिल्ली की आबादी बढ़ने लगी। लेकिन नादिरशाह के हमले और क़त्लेआम ने और अफ़ग़ानों के हमले ने दिल्ली को फिर तहस-नहस कर दिया। 1857 ई. की तबाही के बाद दिल्ली की आबादी बहुत कम हो गई।

औरंगजेब और दूसरे मुग़ल बादशाहों के जमाने में जिन मुहल्लों की शाहजहानाबाद में वृद्धि हुई उनमें से कुछ के नाम ये हैं कूचा रुहुल्ला खां, कूचा बका उल्लाह, कूचा क़ाबिल अत्तार, कटड़ा सिपहदार खां (औरंगजेब के काल में), बाजार सीताराम कटड़ा नवाब, कूचा सरबलंद खां (फर्रुखसियर के काल में) और अमीर खां का बाज़ार(मुहम्मदशाह के काल में), कूचा मीर कासिम, छत्ता शाह जी (शाह आलम द्वितीय के काल में) कूचा शैदी क्रासिम, मुहल्ला रोदगरी, कटड़ा इरादतमद खां, कटड़ा सआदत खां अहाता काले साहब, मुहल्ला गढ़या (अकबर शाह द्वितीय के काल में) मुग़ल वंश में उन्नीस बादशाह हुए लेकिन 1707 ई. में औरंगजेब के देहांत के बाद सल्तनत का ऐसा पतन शुरू हुआ जो रोके न रुका।

यद्यपि 1707 और 1787 ई. के बीच तेरह मुग़ल बादशाह तख्त पर बैठे लेकिन केवल पाँच या छह का ही ऐतिहासिक दृष्टि से कम या अधिक महत्त्व है। औरंगजेब के उत्तराधिकारियों में बहादुरशाह प्रथम ( 1707 से 1712 ई. तक) जहाँदार शाह जिसने केवल एक वर्ष राज्य किया, फर्रुखसियर (1713 से 1718 तक) और मुहम्मदशाह रंगीला (1718 से 1748 (ई. तक) थे। मुहम्मदशाह रंगीला ने अपने तीस वर्ष के शासनकाल में कई मस्जिदें और इमारतें बनवाई और उसी के काल में राजा सवाई जयसिंह ने नई दिल्ली में प्रसिद्ध जन्तर-मन्तर बनवाया था। उसी के जमाने में नादिरशाह ने दिल्ली पर हमला किया और कत्लेआम और लूटमार से तैमूर के हमले को भी मात कर दिया। नादिरशाह अपने साथ मुगलों का मशहूर तख्ते ताऊस और कोहेनूर हीरा भी ले गया। यह दिल्ली की तबाही का समय था और 1757 ई. में अहमदशाह अब्दाली ने एक बार फिर दिल्ली के निवासियों को मौत के घाट उतारा और लूटमार की। ईरानियों और अफ़ग़ानों के बाद दिल्ली को मराठों, जाटों, सिक्खों और रुहेलों ने लूटा और मुग़ल साम्राज्य की ताक़त सिर्फ़ ताज और तख़्त तक सीमित होकर रह गई।

अंग्रेजी शासन काल का आरंभ

1803 ई. में कमज़ोर बादशाह शाहआलम ने मराठों का सामना करने के लिए अंग्रेजों की मदद माँगी। पटपड़गंज की लड़ाई में अंग्रेजों की जीत हुई और उन्होंने दिल्ली में एक रेजिडेंसी क़ायम कर दी और शाह आलम सिर्फ़ नाम का बादशाह रह गया। लोग कहा करते थे, ‘शाह आलम की हुकूमत दिल्ली से लेकर पालम तक । अंग्रेजों ने शाहजहानाबाद की सीमा में कश्मीरी गेट के पास दरियागंज में और शहर की दीवारों के बाहर अपने ढंग और जरूरत की इमारतें बनवाना शुरू कर दी। शाह आलम के बाद अकबर शाह 1806 ई. में तख्त पर बैठा और 1827 ई. तक ऐसा बादशाह बना रहा जिसके पास कोई शक्ति नहीं थी। इसी बीच अंग्रेजों का हस्तक्षेप बढ़ता रहा और बादशाह बेबस रहा। अंग्रेजों ने 1809 ई. में दिल्ली को एक प्रांत बना दिया।

आजादी की पहली लड़ाई

1857 ई. में मेरठ के सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया और हिन्दुस्तान की आजादी की पहली लड़ाई का एलान हुआ तो दिल्ली एक बार फिर बरबाद हो गई। सिपाही अगले दिन दिल्ली पहुँच गए और दरियागंज के पास राजघाट के दरवाजे से शहर में दाखिल हो गए और फिर लाल किले में गए। उन्होंने बूढ़े बादशाह बहादुरशाह ‘ज़फ़र’ को अपना नेता बनाया और शहर की चारदीवारी के अंदर अंग्रेज़ों पर हमला कर दिया। दिल्ली में हिन्दुस्तानी सिपाहियों और अंग्रेज़ों के बीच यह लड़ाई चार महीने तक चलती रही और आखिरकार जीत अंग्रेजों की हुई। विजेता अंग्रेज सेना ने दिल्ली और हिन्दुस्तान के अन्य स्थानों पर अपना पूरा अधिकार कर लिया बहादुरशाह ‘ज़फ़र’ को उनकी बेगम और बचे-खुचे परिवार के सदस्यों के साथ निष्कासित करके बर्मा भेज दिया गया जहाँ 7 नवम्बर 1862 ई. को उनका देहांत हो गया। अंग्रेजों ने विजय के बाद दिल्ली को लूटा और हज़ारों नागरिकों को गोली से उड़ा दिया या उनका वध कर दिया। घरों की तलाशी ली गई। बूढ़ों और औरतों तक को नहीं छोड़ा। अंग्रेजों ने दिल्ली की राजनीतिक सत्ता और महत्त्व को समाप्त करने के लिए कलकत्ता को राजधानी बना दिया।

लेकिन दिल्ली की महानता और उसकी सजधज को अंग्रेज़ भी ख़त्म न कर सके। अंग्रेजों ने अपने तीन दरबार दिल्ली में किए हालाँकि दिल्ली उस समय हिन्दुस्तान की राजधानी नहीं थी। जॉर्ज पंचम ने दिसंबर 1911 ई. में आयोजित तीसरे दरवार में यह फ़ैसला सुना दिया कि दिल्ली को फिर अंग्रेजी शासन की राजधानी बनाया जाएगा। लॉर्ड हार्डिंग ने इस निर्णय का कारण निम्न शब्दों में बताया था-“दिल्ली को भुलाया नहीं जा सकता। हिन्दुओं के लिए यह पांडवों की राजधानी रही है। मुसलमानों के लिए इससे बड़ी बात क्या होगी कि मुग़लों की पुरानी राजधानी की शान-शौकत को उसे अंग्रेज शासन का मुख्यालय बनाकर लौटा दिया जाए। दिल्ली इतनी मशहूर है कि हिन्दुस्तान के हर बड़े शहर में जहां मुग़ल गए, एक दिल्ली दरवाजा है। जनता तो कलकत्ते की बजाए दिल्ली को ही राजधानी समझती रही। मुझे विश्वास है कि हमारे इस निर्णय से हिन्दुस्तानियों में ख़ुशी की लहर दौड़ जाएगी।”

आधुनिक काल

दिल्ली की महानता और ऐतिहासिक महत्त्व को विजेता अंग्रेज़ भी अस्वीकार न कर सके। इस शहर की बेमिसाल खूबसूरती और इसकी शानदार सभ्यता और इसकी संस्कृति के वे भी प्रशंसक रहे हैं। इसके बाद की दिल्ली का इतिहास आधुनिक काल का इतिहास है। नई दिल्ली के निर्माण, प्राचीन काल के मिटने और नए युग के आगमन का इतिहास है। आज़ादी की लड़ाई का इतिहास है, कांग्रेस का इतिहास है, गाँधी और नेहरू का, मौलाना आज़ाद, हकीम अजमल खाँ, डॉ. अंसारी, आसफ़ अली और दूसरे सैकड़ों राष्ट्रीय नेताओं का इतिहास है। दिल्ली की और दिल्लीवालों की स्वाधीनता संग्राम में जो भूमिका रही, वह बहुत मूल्यवान थी। यह है दिल्ली के बनने, मिटने और मिट-मिट कर उभरने की संक्षिप्त गाथा, उसके इतिहास पर एक विहग दृष्टि। दिल्ली एक शहर तो है ही लेकिन एक विशिष्ट सभ्यता और संस्कृति का नाम भी है। यह सभ्यता सैकड़ों नहीं बल्कि हजारों वर्षों से हमारी बहुमूल्य संपत्ति रही है। नए युग के थपेड़ों और पश्चिमी सभ्यता की आँधी ने अब तो इसे प्रायः मिटा-सा दिया है, किन्तु कहीं किसी कोने-खुदरे में यह ज्यों की त्यों मौजूद है और कौन कह सकता है कि यह फिर एक बार करवट ले और वही प्राचीन, चित्ताकर्षक सभ्यता, शिष्टता और नैतिक मूल्य फिर लौट आएँ ।

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