महरौली और उसके आसपास बहुत बावलियाँ थीं। उस इलाक़े में आसपास छोटी-छोटी पहाड़ियाँ और पथरीले टीले थे और कई जगहों पर उनके बीच पथरीली दीवारों से घिरी हुई ऐसी नीची जमीन होती जहाँ बारिश का पानी इकट्ठा हो जाता और अगली बारिश तक न सूखता। इनमें से दो बावलियाँ तो बड़ी मशहूर हैं और बहुत अर्से से इस्तेमाल होती आई हैं। इनमें से एक गंधक की बावली कहलाती है क्योंकि इसके पानी में गंधक मिली हुई है। इस बावली में लोग अपनी त्वचा के रोगों के उपचार के लिए भी नहाते थे और उसका पानी बोतलों और शीशियों में भरकर घर भी ले जाते थे। वह बावली उधम ख़ाँ के मकबरे से लगभग सौ गज दक्षिण में है।

उधम ख़ाँ मुग़ल शहंशाह अकबर का इस रिश्ते से भाई था कि वह अकबर के साथ ही महल में हुमायूँ की रक्षा में पला था। दिल्लीवाले उधम ख़ाँ के मकबरे को भूल-भूलैया के नाम से ज्यादा जानते थे। गंधक की बावली गुलाम बादशाह अल्तुतमिश के काल में तेरहवीं सदी के आरंभ में बनाई गई थी। इसकी पाँच मंजिले या छज्जे हैं और इसके दक्षिणी छोर पर गोल दीवार है। इस बावली पर छुट्टी के दिन दिल्ली के सैलानियों की भीड़ लग जाती थी और वे ऊपर के छज्जों से नौजवान तैराकों को पानी में छलांग लगाते हुए देखकर बहुत खुश होते थे उस्ताद और ख़लीने भी अपने-अपने 1 कमाल दिखाते और उनके संरक्षक उन्हें इनाम और बख़्शीश देते।

इसके दक्षिण में लगभग चार-सवार चार गज के फासले पर दूसरी चार छतों वाली बावली है, जिसका नाम ‘राजों की बाई’ है। सर सैयद अहमद के मतानुसार संस्कृत साहित्य में ऐसी सीढ़ीदार कुँओं को जिन्हें बाई, दाई या बावलियाँ कहते थे, विस्तृत उल्लेख मिलता है। गुजरात और राजस्थान में भी ऐसी बावलियों अभी तक मिलती हैं मुस्लिम शासकों ने बावलियों को बढ़िया ढंग से मनोरंजन स्थलों के रूप में बनाया था। उनमें अंदर-ही-अंदर जाने वाले लंबे रास्ते, हौज के ऊपर मेहराबें और ऊपर से नीच उतरने वाली सीढ़ियाँ होती थीं। हौज में पानी जमीन के नीचे से आता था। राजों की बावली की सबसे ऊँचे इन्ज़ों की दीवारों के अन्दर से नीचे उतरने वाली सीढ़ियाँ उसे एक मस्जिद में मिला देती हैं, जहाँ एक छतरी है, जिस पर खुदा हुआ है कि इस बावली को सिकंदर सोधी के काल में बनवाया गया था।

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